रंगमंच की एक बड़ी खूबी ये है कि वो लिखित शब्द को दृश्यों और ध्वनियों में बदल देता है। लिखित का विस्तार कर देता है। जब कोई कहानी मंच पर आती है तो उसकी संप्रेषणीयता में इजाफा होता है। उसके चरित्र ज़्यादा परिचित लगते हैं। कुछ मामलों में अपरिचित भी, क्योंकि अभिनेता उनमें वो अक्स निकाल देता है जो पाठक के जेहन में आते तो हैं पर कुछ दबे और सकुचाए हुए से। इसका अहसास फिर से तब हुआ जब पिछले रविवार को गुरुग्राम के `रंग परिवर्तन’ नाट्य गृह में दो प्रस्तुतियाँ देखीं। दोनों इस्मत चुगताई (1911- 1991) की रचनाओं पर आधारित थीं। इस्मत उर्दू और आधुनिक भारतीय साहित्य में विद्रोही लेखिका के रूप में मशहूर रही हैं। वे हिंदी में भी लोकप्रिय रही हैं और उनकी रचनाओं के आधार पर देश के अलग-अलग हिस्सों में नाटक खेले जाते हैं। ये रचनाएँ उर्दू की हैं पर रंगमंच पर आकर वे हिंदी की भी हो जाती हैं। भाषा का विभाजन यहाँ ख़त्म हो जाता है क्योंकि मंच जो पर दिखता है वो एक हक़ीक़त होती है, सिर्फ़ भाषा नहीं।
बात यहाँ इस्मत चुगताई की रचनाओं पर आधारित नाट्य प्रस्तुतियों की हो रही है जो गुरुग्राम के `रंग परिवर्तन’ नाट्य गृह में हुए। `रंग परिवर्तन‘ नाट्य गृह वरिष्ठ रंगकर्मी और नाट्य प्रेमी महेश वसिष्ठ ने बनाया है। अपने संसाधन से। गुरुग्राम को एक ग्लोबल सिटी कहा जाता है। लेकिन विडंबना देखिए कि इस ग्लोबल सिटी में ढंग का कोई नाट्य केंद्र न सरकार ने बनाया है और न किसी कॉरपोरेट ने। महेश वसिष्ठ ने अपने आवास की तीसरी मंजिल पर एक छोटा सा प्रेक्षागृह बनाया है जहां बाहर से आकर रंगकर्मी अपने नाटक करते हैं। इसी स्थल पर पिछले रविवार को इस्मत चुगताई की रचनाओं पर आधारित दोनों नाट्य प्रयोग हुए। पर पहला था `दिल की दुनिया’ जिसमें इस्मत चुगताई का व्यक्तित्व भी था और उनकी रचनाओ के पात्र भी। इसमें युवा रंगकर्मी आर्याश्री आर्या का एकल अभिनय है। आर्याश्री ने इसका निर्देशन भी किया है। दूसरी प्रस्तुति भी एकल अभिनय वाली ही थी। इस्मत की कहानी `घरवाली’ को निर्देशित किया शुभांकर विश्वास ने। इसमें वरिष्ठ रंगकर्मी अजय रोहिल्ला का एकल अभिनय था। अजय वैसे मूल रूप से दिल्ली के ही रहनेवाले हैं और यहां लंबे समय तक नाटक करते रहे। पर पिछले ढाई-तीन दशकों से मुंबई में रह रहे हैं। दोनों प्रस्तुतियाँ कुल मिलाकर लगभग डेढ़ घंटे की थीं।
दोनों से इस्मत चुगताई के जीवन और साहित्य की जो छवि उभरती है वो एक ऐसी लेखिका की है जिसने अपने किरदारों के माध्यम से एक ऐसी दुनिया की सृष्टि की जो नई थी और जिसमें पारंपरिक रूढ़ियों से मुक्त होने की गहरी आकांक्षा थी। समाज को वैचारिक तौर पर आज़ाद कराने की भी। एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में जन्मी इस्मत चुगताई किस तरह अपने माहौल की चौहद्दियों से बाहर निकलती हैं और अपने लेखन से समाज में पहले से व्याप्त दृष्टिकोणों से टकराती हैं, उनकी अभिव्यक्ति का दायरा फैलता जाता है – ये सब `दिल की दुनिया’ में खुलता जाता है। आर्याश्री ने संक्षेप में इस्मत की जिंदगी को भी दिखा दिया और उनके साहित्य को भी। इस्मत जब लेखन में सक्रिय हुईं तब भारतीय साहित्यिक परिदृश्य पर नारीवाद की आहट सुनाई नहीं पड़ी थी। लेकिन ताउम्र उनका लेखन उन मान्यताओं से टकराता रहा जिसे आज मर्दवादी या पुरुषवादी कहा जाता है। उनकी `लिहाफ’ कहानी एक जमाने में विवादास्पद हुई। उस पर अश्लीलता के आरोप भी लगे।
हालाँकि जिसे अश्लीलता कहते हैं उसका कोई नामो निशां यहां नहीं था। पर ये सब क्यों हुआ? इसलिए कि समाज में, लगभग हर धर्म में, यौनिकता को लेकर एक खास धारणा रही है। वैसे, यौनिकता मनुष्य के अंदर- मर्द और औरत के अंदर (और हर जीव में) है। लेकिन धर्म और समाज में नियमन करने वाली संस्थाएँ धारणा बनाती हैं कि यौनिकता को लेकर फलां चीज स्वीकार्य है और फलां अस्वीकार्य। लेकिन ये नियमन नैसर्गिक नहीं होते और लोग इन नियमनों से परे भी जाते हैं। वही `लिहाफ’ कहानी में हुआ है। इस्मत ने नियमन से परे जानेवाले पहलू को रेखांकित किया। इसी पर हंगामे हुए। हालाँकि आज की तारीख में वो नियमन कानून के द्वारा भी रद्द किया जा चुका है।
इस्मत जिस जमाने में सक्रिय हुईं उसी समय उर्दू के बेहद चर्चित कथाकार सआदत हसन मंटो भी लिख रहे थे और विवादास्पद भी हो रहे थे। मंटो और इस्मत – दोनों में साहित्यिक समानांतरताएं भी थीं। 1947 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए लेकिन इस्मत हिंदुस्तान में ही रहीं और आधुनिक भारतीय साहित्य के शीर्ष पर बनी रहीं। उनकी एक कहानी है `घरवाली’। ये लाजो नाम की एक चरित्र को लेकर है जो अनाथ ही पली बढ़ी और स्वच्छंदता की जिंदगी जीती रही। समाज क्या कहता है, इसकी उसे परवाह नहीं। अजय रोहिल्ला ने इसी कहानी को पेश किया। वे मिर्जा नाम के चरित्र को उभारते हुए लाजो के व्यक्तित्व और अलहड़पन को भी सामने लाते हैं। लाजो अविवाहित मिर्जा के घर आ जाती है और ऐसे हालात पैदा कर देती है कि मिर्जा उससे शादी कर लेता है। लेकिन लाजो की स्वच्छंदता मिर्जा को नागवार लगती रहती है और तंग आकर वो उसे तलाक दे देता है। लेकिन लाजो के लिए क्या शादी और क्या तलाक! इतना सब होने के बावजूद वो मिर्जा के घर पर बनी रहती है। आखिरकार वो उसे अपनी घरवाली मान ही लेता है। तलाक देने के बावजूद।
अजय रोहिल्ला ने अपने बयान और अपने अंदाज से कहानी की उन बारीकियों को पकड़ा और उद्घाटित किया जो पढ़ने के दौरान महसूस नहीं होतीं। या कहिए कि दबी रहती हैं। जैसे मुहल्ले का लाला लाजो को किस तरह के प्रस्ताव देता रहता है और किस अंदाज में देता है- ये औऱ ऐसे कई पक्षों को अजय सामने लाते हैं। वैसे कहानी को मंच पर कैसे किया जाए, इसे लेकर कोई एक राय नहीं है। अलग-अलग अभिनेता और निर्देशक अपने-अपने तरीक़े से कहानी को पेश करते हैं। कुछ निर्देशक कहानी को नाटक बना देते हैं। यानी कई अभिनेताओं के माध्यन से कहानी रेशे रेशे खुलते हैं। कुछ में एक ही अभिनेता पूरी कहानी को पेश करता है और उसके हर चरित्र की खासियत को सामने लाता है। `घरवाली’ में यही दूसरा तरीका अपनाया गया है। तीसरे या चौथे तरीक़े भी हो सकते हैं। इससे यही पता चलता है कि कोई एक कहानी या रचना अपने भीतर आस्वाद की कई संभावनाएं लिये रहती है और भिन्न अभिनेता या निर्देशक उन संभावनाओं को अन्वेषित करते हैं। अजय रोहिल्ला ने जो किया वो कहानी की उनकी अपनी व्याख्या है।