चार दिन तक चले ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का वैसे तो युद्धविराम हो चुका है लेकिन उसके बाद उसका ‘शांतिपर्व’ नहीं आया। जिस तरह से दोनों ओर से युद्ध जीतने के दावे किए जा रहे हैं उससे तो नहीं लगता कि यह जल्दी आने वाला है। भारत की तरफ़ से कहा जा रहा है कि ऑपरेशन सिंदूर जारी है तो पाकिस्तान की तरफ़ से कहा जा रहा है कि भविष्य के किसी भी हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। राजनीतिक दलों, राजनेताओं और राष्ट्रों की नाक इतनी ऊँची हो चुकी है कि कोई भी हार को स्वीकार करना ही नहीं चाहता। न ही मानव क्षति के प्रति संवेदनशील है। बल्कि हार इतना बुरा और अपमाजनक शब्द हो चुका है और जीत इतनी प्रतिष्ठित और महान उपलब्धि हो चुकी है कि अक्सर राष्ट्र और राजनेता हार दूसरे के खाते में और जीत को अपने खाते में डालते नज़र आते हैं। रोचक तथ्य यह है कि पाकिस्तान में भी यह आख्यान चलता रहता है कि हम तो 1971 का युद्ध हारे नहीं थे और भारत में भी यह कहने वाले कम नहीं हैं कि इंदिरा गांधी ने 1971 का युद्ध जीतकर क्या हासिल कर लिया था? सिलीगुड़ी की चिकन नेक तो वैसे ही है और पाक अधिकृत कश्मीर भी उन्हीं के पास में है। लेकिन परोक्ष रूप से राजनेता जब किसी पर व्यंग्य करते हैं और धमकी देते हैं तो सच्चाई को स्वीकार करते हैं। यानी कोई भी राष्ट्र या नेता सच्चाई को परोक्ष रूप से ही स्वीकार करता है प्रत्यक्ष रूप से नहीं। अगर कोई कर लेता है तो उसे देश के प्रति या फिर पार्टी के प्रति वफादार नहीं माना जाता।
जैसे कि पाकिस्तान के लोग जब यह कहते हैं कि हमने ऑपरेशन सिंदूर में 1971 की हार का बदला ले लिया तो वे स्वीकार कर रहे होते हैं कि 1971 में उनकी हार हुई थी। या फिर भारत के रक्षामंत्री जब यह कह रहे होते हैं इस बार तो नौसेना युद्ध में नहीं उतरी, लेकिन 1971 में उतरी थी तो पाकिस्तान के दो टुकड़े किए थे और आगे उतरेगी तो चार टुकड़े कर देगी।
पर असली सवाल यह है कि पत्रकार, राजनेता, अधिकारी और पूरे समाज पर युद्धोन्माद का आख्यान इस तरह हावी क्यों है? जबकि पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल नरवाणे कह चुके हैं कि युद्ध बॉलीवुड की फ़िल्म नहीं है। उसे आख़िरी विकल्प के तौर पर ही रखना चाहिए। लेकिन युद्ध का मौजूदा आख्यान शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले पड़ोसी देश के विरुद्ध ही नहीं है, बल्कि उन नागरिकों, दलों और राजनेताओं के प्रति भी है जो सत्तापक्ष और सरकार से सवाल करते हैं और विपक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे पाक अधिकृत कश्मीर न जीत पाने की कसक पश्चिम बंगाल की सत्ता को जीतकर पूरी की जाएगी। लगता है इस समय शहबाज शरीफ से अधिक शत्रुता ममता बनर्जी से हो चली है।
लेकिन उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि अगर कोई राजनेता या सैनिक अधिकारी सच बोलने का साहस दिखाता है तो उस पर लोग ऐसे टूट पड़ते हैं जैसे कि वह देशद्रोही या गद्दार हो या राष्ट्रहित को चोट पहुँचाने वाली विवेकहीनता का प्रदर्शन कर रहा हो। हमारे सीडीएस अनिल चौहान ने सिंगापुर में जेट विमानों को क्षति पहुंचने की बात क्या स्वीकारी कि राजनयिक और रक्षा विशेषज्ञ उन पर टूट पड़े। लोग कह रहे हैं कि उन्होंने एक ‘कार्यनीतिक चूक’ स्वीकार करके पाकिस्तान की जीत के आख्यान को बढ़त हासिल करने का मौका दे दिया है। एक ओर कांग्रेस पार्टी इसे अपने नेता के बयान की पुष्टि के तौर पर पीठ थपथपा रही है तो दूसरी ओर कई विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें यह बयान अपने देश में देना चाहिए था और साथ ही पाकिस्तान के नुक़सान को भी तुलनात्मक रूप से रखना था। जबकि उन्होंने इस पूरे युद्ध पर एक विवेकपूर्ण टिप्पणी करते हुए यह भी कहा कि दोनों ओर के सैनिक अधिकारियों में इतना विवेक था कि इस टकराव को नाभिकीय युद्ध तक ना जाने देने के लिए कटिबद्ध थे।
जैसे लगता है कि युद्ध एक स्थायी भाव है और युद्धविराम एक संचारी भाव है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए युद्धविराम और शांति तो व्यापार करने का एक अवसर है। (और युद्ध हथियार बेचने, अमेरिका को महान बनाने और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति)। जबकि दुनिया के तमाम दार्शनिकों ने बार-बार कहा है कि शांति और अहिंसा अपने में कुछ प्राप्त करने का साधन नहीं है बल्कि वह मानवता का साध्य है, उसका अभीष्ट है।
वास्तव में जो स्थिति भारतीय उपमहाद्वीप में बनी है वह सिर्फ़ धरती के इसी हिस्से की नहीं है। वह कमोवेश पूरी दुनिया में निर्मित हो रही है। हालाँकि भारत के मुख्यधारा के मीडिया पर जिस तरह से सेना के युद्धोन्मादी रिटायर अफ़सरों के ढपोरशंखी बयानों और वक्तव्यों की बाढ़ आई हुई है उतना तो शायद दुनिया के विकसित देशों में नहीं है। वहां तथ्यपरक विश्लेषण की संभावना बची है। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध या इसराइल फिलस्तीन युद्ध ने तथाकथित सभ्य देशों को असभ्य देश के रूप में उपस्थित कर दिया है। और नहीं लगता कि उनके पास मौजूदा स्थिति का कोई समाधान है।
उससे भी बड़ी विडंबना है कि भारतीय उपमहाद्वीप में इस दौरान शांति का स्वर या तो हाशिए पर ठेल दिया गया या फिर वह उठा ही नहीं। युद्ध के शुरू होते ही मैग्सैसै पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय और मेधा पाटकर ने ज़रूर युद्धविराम की अपील की थी, लेकिन उनके बयानों को कितना महत्त्व दिया गया, कहा नहीं जा सकता।
आज इस उपमहाद्वीप में जिस प्रकार से 2035 में चीन और पाकिस्तान की ओर से भारत पर युद्ध थोपने की भविष्यवाणी की जा रही है रणनीतिक और राजनयिक रूप से भारत जिस तरह से अलग-थलग पड़ता दिख रहा है वह सब एक भयावह परिदृश्य उपस्थित करता है। इसका एक तरीक़ा तो यह है कि लोगों की आवश्यकताओं की कटौती करते हुए निरंतर हथियार जमा किए जाएँ और उनको टेक्नोलॉजी के लिहाज से उन्नत करते रहा जाए और भारत जैसी विशाल आबादी को सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया जाए। दूसरा तरीका यह है कि इस उपमहाद्वीप से लेकर दुनिया के दूसरे हिस्सों तक शांति का वह अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाया जाए जिसकी कल्पना रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, लियो टालस्टाय, विनोबा, थोरो, क्रोपाटकिन और डेस्मांड टूटू जैसे विचारकों ने की थी। दूसरा रास्ता अधिक श्रेष्ठ और टिकाऊ है और उसकी चर्चा उसी तरह होनी चाहिए जिस तरह भीष्म ने ‘शांतिपर्व’ में की थी। क्योंकि कई विद्वानों का मत है कि महाभारत का प्रमुख रस तो शांति रस ही है।
वास्तव में अगर दुनिया में हिंसक राजनीति शास्त्र का बोलबाला रहा है तो अहिंसक विचार की भी दीर्घ परंपरा है।
टैगोर ने तो गीतांजलि के अलावा ‘स्वर्ग का गीत’ जैसी कविताओं में ‘हार की गरिमा’ का वर्णन किया है तो महात्मा गांधी ने अहिंसा को परमाणु बम से भी श्रेष्ठ हथियार माना है। रवींद्रनाथ कहते हैं कि हार जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इससे व्यक्ति अधिक मज़बूत और विनम्र बनता है और आध्यात्मिक रूप से प्रेरित करने वाला अनुभव प्राप्त करता है। वे कहते हैं कि हार निराशा और कमजोरी नहीं है। बल्कि सीखने और विकास का अवसर है। हार से घबराना नहीं, बल्कि इससे जीवन की गहरी समझ हासिल की जा सकती है। हार भगवान के क़रीब ले जाती है। वैसे जैसे नदी समुद्र में मिल जाती है।
जबकि गांधी कहते हैं,
“जहां तक मैं देख सकता हूँ, परमाणु बम ने उस उत्कृष्ट भावना को जड़ बना दिया है जिसके सहारे मानव जाति युगों से जीवित रही है। एक समय तथाकथित युद्ध नियम हुआ करते थे जो युद्ध को सह्य बनाते थे। अब जो नग्न सत्य है उसे हम जानते हैं। युद्ध में सिवाय पशुबल के कोई नियम नहीं होता। परमाणु बम ने मित्र शक्तियों को खोखली विजय दिलाई लेकिन उसके परिणामस्वरूप कुछ काल के लिए तो जापान की आत्मा की ही हत्या हो गई है। और संहारक राष्ट्र की आत्मा का क्या हुआ है उसे देखने का समय अभी नहीं आया है।” (परमाणु और अहिंसा, हरिजन, सात जुलाई 1946)।
फ्रांसीसी दार्शनिक एतिने ला बोइसी ने ‘स्वैच्छिक दासता’ नामक अपनी मशहूर रचना में इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था कि अत्याचारी और हिंसक राजसत्ता को केवल व्यक्तिगत प्रतिरोध से नहीं मिटाया जा सकता। उसके लिए सामूहिक सविनय अवज्ञा ज़रूरी है। वे कहते हैं सामूहिक समर्पण जिस तरह गुलामी का प्रतीक है वैसे ही सामूहिक असहयोग स्वतंत्रता का। बोइसी कहते हैं,
“तानाशाह की सेवा न करने का संकल्प करते ही तुम तत्काल स्वतंत्र हो जाते हो। मैं तुम्हें अत्याचारी की गर्दन पर हाथ डालने के लिए नहीं कहता। बस यही कि तुम उसे समर्थन देना बंद कर दो और उस पीठिका के हटते ही वह विशाल प्रतिमा की तरह अपने ही भार से भरभरा कर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।”
हालाँकि युद्ध का समर्थन करने वाले विचारकों की लंबी श्रृंखला रही है। नीत्शे कहते हैं,
“जो राष्ट्र दुर्बल होते जा रहे हैं, उनके लिए यदि वे सचमुच जीते रहना चाहते हैं, युद्ध को औषधि के रूप में सुझाया जा सकता है।”
जबकि मोल्टके कहता है,
“युद्ध परमात्मा के संसार का आंतरिक अंग है, जो मनुष्य के सर्वोत्तम गुणों का विकास करता है।”
युद्ध के समर्थन में रस्किन और भी खुलकर अपने विचार प्रकट करते हैं,
“सब महान राष्ट्रों ने अपने विचारों की सत्यता और सबलता को युद्धों में ही पहचाना है। युद्धों द्वारा वे राष्ट्र पनपे और शांति द्वारा नष्ट हो गए। युद्ध से ही उन्होंने शिक्षा ली और शांति द्वारा ठगे गए, एक वाक्य में युद्ध में उनका जन्म हुआ और शांति में वे मर गए।”
मनुष्य युद्ध क्यों करता है, इस बारे में मनौवैज्ञानिकों ने भी अपने ढंग से विचार किया है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी फ्रायड मानते हैं कि मनुष्य में आक्रमकता होती है लेकिन इसका हिंसक होना अनिवार्य नहीं है। यदि विवादों के निपटारे के लिए राष्ट्रीय कानूनों की तरह ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाध्यकारी कानून व्यवस्था होती तो युद्धों से बचा जा सकता है। एरिक फ्राम का भी मानना है कि युद्ध-महायुद्ध आर्थिक स्वार्थों और उद्योगपतियों तथा राजनैतिक सैनिक नेतृत्व की महत्त्वाकांक्षा की वजह से हुए हैं।
नार्वे के प्रसिद्ध समाजशास्त्री और शांति के चिंतक योहान गाल्तुंग का कहना है कि हिंसा तीन तरह की होती है। एक प्रत्यक्ष हिंसा, दूसरी संरचनात्मक हिंसा और तीसरी सांस्कृतिक हिंसा। इनमें से बाद की दो किस्म की हिंसा अदृश्य रहती हैं। लेकिन वे अधिक शक्तिशाली होती हैं। वे हिंसा दूर करने के लिए विवाद के समाधान के बजाय विवाद के रूपांतरण की बात करते हैं। विवाद का समाधान अस्थायी होता है। जबकि विवाद का रूपांतरण समस्या की जड़ तक जाकर उसका हल करना होता है।
मानव सभ्यता की प्रगति के साथ युद्ध के विरोध की एक चेतना निर्मित हुई है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में जिस तरह विचार शून्यता, बड़बोले नेतृत्व और खतरनाक हथियारों की निर्मिति हुई है उससे फिर एक बार फिर युद्ध का डंका बजना तेज हो गया है। अगर संयुक्त राष्ट्र के गठन के साथ अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सैन्य शास्त्र के प्रोफेसरों की जरूरत पर प्रश्न चिह्न लग गया था तो आजकल सैन्य विशेषज्ञों की धूम मची है। ऐसे में अगर मानव को अपनी सभ्यता का शांतिपर्व स्थापित करना है तो एक ऐसे समाज की कल्पना करनी होगी जो अहिंसक हो और हत्याविहीन हो। एक ऐसी विश्व व्यवस्था हो जो समस्याओं की जड़ में जाकर विवादों का रूपांतरण करे।
ग्लेन डी पेज अपनी प्रसिद्ध पुस्तक राजनीतिशास्त्र का हिंसा मुक्त स्वरूप (नानकिलिंग ग्लोबल पोलिटिकल साइंस) में अहिंसक समाज को परिभाषित करते हुए कहते हैं,
“यह एक ऐसा मानव समुदाय है जिसमें छोटे से लेकर बड़े तक, स्थानीय से लेकर विश्व स्तर तक कोई भी किसी मनुष्य को न मारता है न ही मारने की धमकी देता है। मनुष्यों को मारने के लिए न तो हथियार बनाए जाते हैं न ही उसके प्रयोग का कोई औचित्य होता है।”
पर यह सब तभी हो सकता है जब शांति और समाधान देने वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था निर्मित हो जो राष्ट्रीय संप्रभुता के हिंसक रूप और राजनेताओं के विजय के अहंकार का शमन करे और शांति को एक वैश्विक मूल्य के रूप में पोषित करे।
अंत में 16 अप्रैल 1953 को समाचार संपादकों द्वारा अमेरिकी समाज को दिया गया वह संबोधन उल्लेखनीय है-
“प्रत्येक बंदूक जिसका कि निर्माण हुआ है, प्रत्येक युद्धपोत जिसका कि जलावतरण हुआ है तथा प्रत्येक रॉकेट जिसको कि छोड़ा गया है, अंतिम अर्थ में उनसे चोरी है जो भूखे हैं तथा जिन्हें भोजन नहीं कराया गया है, तथा वे जो युद्ध से प्रभावित हैं और जिनके पास वस्त्र नहीं है।”