देश की सबसे बड़ी अदालत की अनेक छोटी बेंचों ने तो अपना काम कर दिया लेकिन अब इंतज़ार है इसी कोर्ट की तीन-सदस्यीय पीठ के विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत सरकार केस में सन 2022 के फैसले को पूरी तरह पलटने वाली बड़ी बेंच (कम से कम पांच- या सात-सदस्यीय पीठ) के फैसले का जो संविधान के मूल प्रावधानों की अवहेलना करने वाले धन-शोधन निरोधक अधिनियम (पीएमएलए) के प्रावधानों को और उससे पैदा हुए गवर्नेंस पर अविश्वास को भी ख़त्म करे। इस कानून में मिली शक्तियों के कारण ही इसे अमल में लाने वाली एजेंसी –प्रवर्तन निदेशालय (ईडी)- आज सरकार का विपक्ष को प्रताड़ित करने वाला “कोबरा” बन गयी है। हालांकि छोटी बेंचों ने इस कानून के असंवैधानिक प्रक्रियात्मक प्रावधानों जैसे सेक्शन 24, सेक्शन 45(1) और सेक्शन 50 को ग़लत ठहराया है लेकिन इसे पूरी तरह प्रभावशून्य करने के लिए संविधान पीठ को अपनी मोहर लगानी होगी। विजय मदनलाल केस की खामियों पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट राजी हो गया है।
हाल के अपने फ़ैसलों के ज़रिये कोर्ट की बेंचों ने देश भर में –खासकर देश की निचली अदालतों और हाई कोर्ट्स के लिए— जमानत को लेकर एक नया इको-सिस्टम बना दिया है। यह है संविधान-प्रदत्त वैयक्तिक स्वतन्त्रता से निकली न्यायिक मान्यता- बेल इज रूल एंड जेल एक्सेप्शन (जमानत नियम है और जेल अपवाद)। दो- और तीन-सदस्यीय बेंच ने अपने हाल के चार फैसलों में, जो मूलतः पीएमएलए के प्रक्रियात्मक प्रावधानों को लेकर हैं, प्रभाव-शून्य कर दिया है। इन प्रावधानों के तहत इसे अमल में लाने वाली संस्था प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को निर्बाध शक्तियां हासिल हो गयी थीं।
इसी साल 23 मार्च को सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस उज्ज्वल भुइयां ने “पीएमएलए —कानून और अमल” –पर लिखी एक पुस्तक के विमोचन समारोह में कहा, “पीएमएलए जैसे हथियार का अगर धन-शोधन निरोध जैसे उद्देश्य के अलावा दुरुपयोग किया गया तो इसे अमल में लाने वाली केन्द्रीय एजेंसी की नकारात्मक छवि बनेगी जिससे राष्ट्र का बड़ा नुक़सान होगा। शराब घोटाला केस में बीआरएस नेता कविता को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 27 अगस्त को कहा “अभियोजन पक्ष को निष्पक्ष होना चाहिए; केन्द्रीय जांच एजेंसियां “पिक एंड चूज” (मनमर्जी से किसी को भी उठाना) नहीं कर सकतीं। इसी माह की 7 तारीख को एक बेंच ने संसद में पीएमएलए मामलों में सजा की दर के ग़लत आँकड़े देने पर इस क़ानून को अमल में लाने वाली एजेंसी –प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के वकील को डांट लगाई थी और सही आंकड़े दिए और कहा कि महज किसी गवाह के ज़ुबानी बयान के आधार पर केस शुरू न किये जाएँ और वैज्ञानिक साक्ष्य के जरिये अभियोजन की गुणवत्ता सुधारें।
देश के सबसे बड़ी अदालत द्वारा लगातार की गयी इन नकारात्मक टिप्पणियों के बाद न केवल इन एजेंसियों को बल्कि सरकार को भी आत्ममंथन करना चाहिए। अगर आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में पीएमएलए के 5297 केस में केवल 40 (0.8 प्रतिशत) में सजा हुई जबकि सैकड़ों लोग महीनों और सालों तक जेल में बंद रहे तो क्या देश को ईडी और सरकार की मंशा पर शक नहीं होगा यहाँ सुप्रीम कोर्ट ने लगातार अधीनस्थ अदालतों और हाईकोर्टों को जमानत के मामलों में “बेल इज द रूल एंड जेल एक्सेप्शन” का सिद्धांत अपनाने को कहा। शायद इन अदालतों का जमानत न देने का रवैया इतना आम हो गया कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि ये अदलातें “सेफ खेलना चाहती हैं”।
विगत 23 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने उन विचाराधीन कैदियों को, जो पहली बार आरोपी हैं और सजा के समय का एक तिहाई काट चुके हैं, नयी भारतीय नागरिक न्याय संहिता की धारा 479 को पूर्व-प्रभाव से लागू करते हुए छोड़ने का फैसला किया है। इस पर सरकार की भी सहमति दिखी। अन्य सभी विचाराधीन कैदी जो सजा का आधा समय जेल में काट चुके हैं नए कानून के तहत रिहा होंगे।
पीएमएलए मामलों में –मनीष सिसोदिया, हेमंत सोरेन, कविता और प्रेम प्रकाश (सभी विपक्षी के नेता या सहयोगी) की जमानत पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विपक्ष के नेताओं के लिए कोबरा बने ईडी की विषग्रंथि (पीएमएलए के प्रावधानों) को लगभग निकाल दिया है।
इन फ़ैसलों के पीछे एक ही मूल संवैधानिक प्रतिबद्धता थी –कोई भी कानून संविधान-प्रदत्त वैयक्तिक स्वतंत्रता के ऊपर नहीं हो सकता। इन फ़ैसलों में भी ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट को चेतावनी दी गयी थी कि वे इसी संवैधानिक सिद्धांत से न्यायिक फैसले के द्वारा प्रतिपादित नियम “बेल इज रूल, जेल एक्सेप्शन” का अनुपालन करें। सुप्रीम कोर्ट की अनेक बेंचों द्वारा लगातार दी गयी इस ताकीद के बाद एक नया इकोसिस्टम तैयार हुआ है जिसे अब शायद निचली अदालतें भी नकार नहीं पायेंगी और तब यह दूसरे सख्त कानून यूएपीए में भी जमानत के लिए सामान रूप से लागू होगा।
उदाहरण के लिए पीएमएलए की धारा 45 (1), जो कहीं से न्यायसंगत नहीं है, को भी प्रभाव-शून्य करते हुए कोर्ट ने विजय मदनलाल केस को संदर्भित कर ईडी को कहा कि जमानत का विरोध करने के लिए उसे साबित करना होगा कि प्रथम दृष्टया अभियुक्त का दोष बनता है। इस धारा में ट्विन टेस्ट (दोहरे टेस्ट) के तहत यह जिम्मेदारी जमानत देने वाले जजों पर डाली गयी थी कि वे सुनिश्चित करें कि (1) प्रथम दृष्टया आरोपी निर्दोष है, (2) बाहर आ कर कोई अपराध नहीं करेगा।
दिल्ली शराब नीति केस में कुछ आरोपियों ने महीनों जेल में रहने के बाद अपराध कबूल करते हुए सरकारी गवाह बन कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया सहित अन्य लोगों की संलिप्तता का आरोप लगाते हुए बयान बदला। नतीजतन ईडी ने इस क़ानून की धारा 50 के बयान के आधार पर सिसोदिया को और फिर ऐन आम चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री को गिरफ्तार कर लिया, कोर्ट ने कहा कि जो अपना अपराध कबूल कर चुका है और जेल में है केवल उसके बयान पर भरोसा नहीं किया जा सकता, ना ही उसके बयान को “स्वतंत्र मन” से दिया गया बयान माना जा सकता है।
दूसरा, यह कानून अपराध न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांत के उलट अपने को दोष-मुक्त सिद्ध करने की जिम्मदारी सेक्शन 24 के तहत आरोपी पर डालता है। सुप्रीम कोर्ट ने जमानत के स्तर पर इसे अभियोजन की जिम्मेदारी बता कर इस कानून की खामियों को दुरुस्त किया है। दरअसल, इन फ़ैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के नागरिक स्वतन्त्रता के प्रावधानों को सर्वोपरि माना है।
अब देखना है कि इन तमाम फैसलों से उद्भूत न्यायिक समझ पर बड़ी बेंच कब मोहर लगाती है।
(एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं।)