सोशल मीडिया पर एक बेहद दिलचस्प, लेकिन अचरज़भरी चेतावनियों से लदी पोस्ट दिखाई दी। वाट्सएप पर विदेश से भेजी हुई थी। पोस्ट में माता-पिताओं को उनके बच्चों के बारे में चरम वामपंथवाद को लेकर सावधान किया गया था। अभिभावकों से पूछा गया था कि क्या उन्हें अपने बच्चों में निम्न सात ख़तरनाक़ लक्षण दिखाई देते हैं:
1. क्या उनमें निर्धन और श्रमिक वर्ग के लिए हमदर्दी है,
2. क्या वे हाशिये के समूह के साथ होनेवाले व्यवहार को लेकर चिंता करते हैं,
3. क्या उनमें फासीवाद और वर्तमान राजनैतिक वातावरण को लेकर चिंताएं हैं
4. क्या वे सभी योनिकताओं, धर्म, लिंग और नस्ल को स्वीकार करते हैं
5. क्या वे ऐसा विश्व चाहते हैं जहाँ सभी लोग समानता से रहें
6. क्या उनकी इतिहास और दर्शन में रूचि है
7. क्या वे समाज में हो रहे विभिन्न अन्यायों के समाधान को लेकर चर्चा करते हैं
ये सात हिदायतें या सवाल सिर्फ़ हिदायत या सवाल तक ही सीमित नहीं हैं। इनमें निहित अर्थ, सन्देश और राज व्यवस्था की तस्वीर को समझने की ज़रूरत है। यह सात सवालों की पोस्ट अकारण डाली गयी होगी, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। निश्चित ही ये सवाल कई लोगों को प्रेषित किये गए होंगे! इन सवालों के माध्यम से लोगों के मनोदृष्टि संसार में झाँकने -टटोलने की क़वायद की गई होगी। ऐसा तो नहीं हो सकता कि सवालों के लेखक ने निःस्वार्थ भाव से लोगों से सवाल पूछे हैं। यदि ये सवाल निरापद या मासूम होते, तो निश्चित ही इस तरफ ध्यान नहीं जाता। लेकिन, सातों सवालों का सीधा रिश्ता वर्तमान विषमताग्रस्त समाज, फैलते असंतोष -तनाव, विश्व में बढ़ते चरम दक्षिणपंथ और आक्रामक कॉर्पोरेट पूंजीवाद से है। सवाल ऐसे समय पर वायरल हो रहे हैं जब मध्यपूर्व एशिया में इसराइल बनाम हमास जंग, रूस -यूक्रेन, और आर्थिक विषमताओं को लेकर सामाजिक -राजनैतिक तनाव बढ़ रहे हैं। मूल रूप से इंग्लिश में प्रेषित सवालों को अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए। रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प ने रह रह कर अपनी चुनाव सभाओं में अपनी विरोधी प्रत्याशी कमला हैरिस के सम्बन्ध में रट लगा रखी है कि वे ‘समाजवादी, मार्क्सवादी, कम्युनिस्ट और सोवियत यूनियन समर्थक हैं।’ क्योंकि वे गरीबों और निम्न व मध्य वर्ग के लोगों के स्वास्थ्य, आवास, शिशु कल्याण, ओबामा केयर आदि के संबंध में सोचती हैं। वे अमेरिका की गन पॉलिसी को बदलना चाहती हैं और खरबपतियों पर अधिक टैक्स लगाना चाहती हैं। इसके साथ ही मध्य पूर्व जंग को लेकर अमेरिका के कॉलेज- परिसरों में छात्र असंतोष बढ़ रहा है। पुलिस को भी हस्तक्षेप करना पड़ा है। महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर समाज में असंतोष भी है।
इसके अतिरिक्त इटली, फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी सहित अन्य देशों में भी गिरती आर्थिक स्थिति को लेकर भी लोग सड़कों पर उतर चुके हैं, हड़तालें हुई हैं। जहां एक तरफ़, इटली, फ्रांस, जर्मनी सहित कुछ देशों की राज सत्ताओं पर चरम दक्षिणपंथी शासक बैठे हुए हैं, वहीं जनता में अपनी बदहाली को लेकर असंतोष फैल रहा है। यह सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विसंगतियों और सम्भावी प्रतिरोध -विस्फोट के संकेत भी हैं। श्रीलंका और इंग्लैंड के ताज़ा घटना-क्रम से भी सत्ताधीश और कॉर्पोरेट पूंजीपति वर्ग चिंतित हो सकते हैं। श्रीलंका की जनता ने अपना राष्ट्रपति एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी को चुना है। पिछले दिनों इंग्लैंड में भी लम्बे समय के बाद लेबर पार्टी सत्ता में आई, और इतिहास में कंज़र्वेटिव की शर्मनाक हार हुई है। कनाडा में अगले वर्ष चुनाव होने वाले हैं। वर्तमान सत्तारूढ़ लिबरल पार्टी अलोकप्रिय होती जा रही है।
अब भारत की तरफ लौटते हैं। भारत गरीबी के सूचकांक में और खिसक कर 105वें पायदान पर पहुँच चुका है। 2014 में हमारा देश 51वें स्थान पर था। लेकिन, एक दशक के मोदी -शासन में हम लगातार गिरते जा रहे हैं। दुनिया के’ हंगर इंडेक्स’ में 127 देशों में हमारा स्थान 105 है। एक तरफ मोदी सरकार का दावा है कि वह 81 करोड़ लोगों का पेट भर रही है और चुनाव जीत भी रही है। लेकिन, फिर भी हम भूख तालिका में क्यों नीचे की तरफ़ फिसलते जा रहे हैं कुछ तो वज़ह होगी; क्या देश में किसान सत्याग्रह नहीं कर रहे; क्या किसानों की आत्महत्यायें बंद हो गई हैं; क्या आर्थिक तंगी व भूख से त्रस्त परिवारों में आत्महत्याएँ नहीं हो रही हैं; क्या बेरोज़गारी को लेकर युवाओं में असंतोष नहीं है; क्या महंगाई ने देश को टाटा कर दिया है; क्या करोड़पतियों-अरबपतियों की आबादी नहीं बढ़ रही है; क्या देश में दलितों और आदिवासियों का शोषण- उत्तपीड़न थम गया है; क्या झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों से श्रमिक पलायन और आदिवासियों का विस्थापन रुक गया है क्या समाज से जातिगत और साम्प्रदायिक दंगे आसमान में फ़ना हो गए हैं
क्या सभी को समान शिक्षा मिल रही है क्या सरकार सबको साफ़ पानी, पर्याप्त चिकित्सा व शिक्षा और आवास उपलब्ध करा सकी है और क्या सियासत से निर्वाचित प्रतिनिधियों की खऱीद -फ़रोख़्त काफ़ूर हो गई है
इस लेखक ने इन तमाम सवालों को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत के विजय दशमी उवाच के परिप्रेक्ष्य में उठाया है। संघ प्रमुख भगवत ने अपने गत नागपुर सम्बोधन में कहा था कि देश-समाज को सांस्कृतिक मार्क्सवाद से बचाना चाहिए। क्या उन्हें ज्ञात है कि सांस्कृतिक मार्क्सवाद की अवधारणा विदेशी है और पश्चिम में इस पर सालों तक विमर्श चलता रहा है। प्रमुख कारण यह था कि प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के बाद पश्चिम के श्वेत देशों में व्यापक जन असंतोष फैलता जा रहा था। शासक वर्गों के लिए सत्ता में बने रहना दुष्कर होने लगा था। आर्थिक तंगी और बेरोज़गारी को लेकर सरकारों के विरुद्ध सामाजिक और युवा आंदोलन बढ़ते जा रहे थे। हिटलर व मुसोलिनी की फासीवादी -नाजीवादी प्रवृत्तियां सत्ता पर हावी हो चुकी थीं। लेकिन, सत्ताधारियों ने जन असंतोष और प्रतिरोध को सांस्कृतिक मार्क्सवाद से जोड़ना शुरू कर दिया था। शासक वर्ग चाहता था कि जनता ख़ामोशी से सब कुछ बर्दाश्त करती जाए और सरकार से सवाल -ज़वाब न करे। यह संस्कृति यूरोप की नहीं है, जबकि मार्क्सवाद व समाजवाद का जन्म पश्चिम में ही हुआ था।
आश्चर्य तो यह है कि भागवत जी को यह अवधारण कैसे याद आ गई क्या यह सिर्फ संयोग था या विचार क्रम या पूर्व सुविचारित योजना का एक हिस्सा। यदि भागवत -उवाच का विश्लेषण किया जाए तो मूल स्वर यही निकलता है कि जनता शांत रहे। उसके दुःख-दर्दों के साथ मोदी -सरकार की पूरी हमदर्दी है; असंतोष, तनाव, सड़कों पर प्रतिरोध भारतीय संस्कृति नहीं है। भारतीय संस्कृति धैर्य, सहनशीलता, समर्पण, अनुशासन, अहिंसा और वीरता की है। क्या भागवत जी ने सरकार से पूछा कि बेरोज़गारी क्यों है क्यों अभी तक किसान सत्याग्रह कर रहे हैं क्या भागवत जी ने अपने भाषण में इस पर चिंता व्यक्त की कि भारत भूख की तालिका में नीचे खिसकता जा रहा है
क्या उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से पूछा कि अमीरों के बैंकों से उठाये गए करीब 16 लाख करोड़ रुपयों के कर्ज़े को क्यों बट्टे खाते के हवाले कर दिया गया है वे अपने भाषण में यह भी कह सकते थे कि सरकार अभी तक किसी भी भगोड़े खरबपति वापस भारत लाने में नाकाम रही है।
वास्तव में, ट्रम्प और भागवत उवाचों में प्रमुख साम्यता यह है कि हाशिये के लोगों के सरोकारों को चिंताओं, विचारों और कार्रवाइयों के दायरे से बाहर रखा जाए। किसी का ध्यान इस पर नहीं जाना चाहिए कि खरबपतियों की आबादी क्यों बढ़ रही है और आम जन का और अधिक हाशियाकरण क्यों होता जा रहा है एक और ख़तरनाक़ स्वर निकलता है और वह है ‘नागरिक का प्रजा में रूपांतरण’। प्रजा मानस में सरकार ‘माईबाप’ होती है, जबकि नागरिक चेतना में ‘वह सरकार का निर्माता’ है। आज के दौर में उदार लोकतंत्र बनाम रूढ़िवादी या मध्ययुगीनवादी लोकतंत्र के मध्य ‘अस्तित्व संघर्ष‘ चल रहा है। आरम्भ के सात सवाल रूढ़िवादी-निरंकुशवादी लोकतंत्र और उसके शासक वर्ग की हिफाज़त में भावी मानसिक मोर्चाबंदी से जुड़े हुए हैं। श्रीलंका की घटनाओं से निर्वाचित निरंकुश लोकतंत्रवादी स्वयं को और अधिक असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। भागवत जी का उवाच स्वर उनकी सुरक्षा में उठा प्रतीत होता है!
ज़रा सोचें, यदि बच्चा संवेदनशील नहीं बनेगा और निर्धन के लिए उसमें करुणा नहीं जगेगी तो वह पाषाण ही बन जायेगा। यदि वह फ़ासीवाद और सत्ता की ज़्यादतियों व नाइंसाफियों को लेकर खामोश रहता है तो वह देश-समाज के लिए कैसा भविष्य गढ़ेगा यदि वह वर्तमान शासकों और माहौल के प्रति मूकदर्शक बना रहता है तो किस प्रकार के राष्ट्र का निर्माण होगा क्या उसे इतिहास -दर्शन को नहीं पढ़ना चाहिए दोनों ही अनुशासन मानव सभ्यता की विकास-चिंतन यात्रा के वाहक हैं। क्या आप चाहते हैं कि आपके बच्चे अपनी शानदार विरासत से अपरिचित रहें पिछले एक दशक से पाठ्यक्रमों में इतिहास के पुनर्लेखन एक अभियान चल रहा है और प्रतिरोध के प्रसंगों व नायकों को हाशिये पर फेंका जा रहा है। समाज-देश का ‘वीर भोग्य वसुंधरा‘ का मानस तैयार किया जा रहा है। यदि इस मूल्य व्यवस्था को स्वीकार कर लिया जाता है तो निर्बलता, निर्धनता, असमानता जैसी स्थितियों के प्रति राज्य चेतना शून्य बन जायेगा और हम सब ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस‘ में तब्दील होते चले जायेंगे। कई साल साल पहले एक धारावाहिक चला था: लैला। उसमें आर्यव्रत की फंतासी के माध्यम से फासीवादी प्रवृत्तियों का प्रदर्शन किया गया था। कनाडा की फिल्म निदेशक दीपा मेहता ने नेटफ़्लिक्स के लिए यह धारावाहिक तैयार किया था। यह विचित्र संयोग है कि सात सवालों की पोस्ट एक कनाडावासी से ही प्राप्त हुई थी। अब आप इस पोस्ट का और अधिक विश्लेषण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में करने के लिए स्वतंत्र हैं।