सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फ़ैसला दिया है जिससे राज्यों का खजाना बढ़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया है कि राज्य ‘औद्योगिक शराब’ पर कर लगा सकते हैं और उस पर वे क़ानून भी बना सकते हैं। शीर्ष अदालत की 9 जजों की बेंच ने कहा कि यह राज्यों का अधिकार है और इसे छीना नहीं जा सकता है। इसने 1990 में 7 जजों की बेंच के फ़ैसले को पलट दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में क्या कहा है और जजों ने इस पर क्या राय दी है, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर औद्योगिक शराब क्या है। औद्योगिक शराब इंसानों के पीने के लिए नहीं होता है। दरअसल, यह उद्योग में इस्तेमाल होने वाला इथेनॉल का एक अशुद्ध रूप है। इसे आम तौर पर सॉल्वेंट यानी विलय करने वाली चीज के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इंसानों को ग़लती से भी या किसी भी रूप में पीने से रोकने के लिए औद्योगिक अल्कोहल को एक उल्टी पैदा करने वाले पदार्थ के साथ बेचा जाता है ताकि इसे कोई पी न पाए। इस तरह के अल्कोहल को विकृत अल्कोहल के रूप में भी जाना जाता है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने औद्योगिक शराब पर 8:1 बहुमत वाला फ़ैसला दिया। इस फैसले में यह तय किया गया कि औद्योगिक शराब को नशीली शराब के अर्थ में वर्गीकृत किया जा सकता है। नशीली शराब पर राज्यों को सूची II की प्रविष्टि 8 के तहत कर लगाने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राज्य की शक्तियों को केवल मादक पेय पदार्थों पर कर लगाने तक सीमित नहीं किया जा सकता है।
पीने वाली शराब पर लगाया जाने वाला उत्पाद शुल्क राज्य के राजस्व का एक प्रमुख घटक है। राज्य अक्सर अपनी आय बढ़ाने के लिए शराब की ख़पत पर अतिरिक्त उत्पाद शुल्क बढ़ाते हैं।
संविधान पीठ के नौ न्यायाधीशों- भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, अभय एस ओका, बीवी नागरत्ना, जेबी पारदीवाला, मनोज मिश्रा, उज्जल भुयान, सतीश चंद्र शर्मा और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह – में से 8 ने इस व्याख्या का समर्थन किया। हालाँकि न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने इससे असहमति जताई।
मंगलवार के फैसले में सिंथेटिक्स एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में 1990 के फैसले को भी खारिज कर दिया गया है। उस फ़ैसले में कहा गया था कि ‘नशीली शराब’ का मतलब केवल पीने योग्य शराब है और इसलिए राज्य औद्योगिक शराब पर कर नहीं लगा सकते हैं।
असहमतिपूर्ण मत में न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि ‘औद्योगिक शराब’ का अर्थ ऐसी शराब है जो मानव उपभोग के लिए उपयुक्त नहीं है और ‘नशीली शराब’ शब्द को अलग अर्थ देने के लिए कृत्रिम व्याख्या नहीं अपनाई जा सकती है जो संविधान निर्माताओं की मंशा के विपरीत है।
असहमतिपूर्ण मत में यह भी कहा गया कि यह पता लगाने के लिए जाँच की जानी चाहिए कि क्या यह उत्पाद मनुष्यों में नशा पैदा करता है।
यह निर्णय 18 अप्रैल को हुई सुनवाई के बाद आया है, जिसमें अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और वरिष्ठ अधिवक्ता दिनेश द्विवेदी तथा अरविंद पी दातार ने अन्य राज्य प्रतिनिधियों के साथ उत्तर प्रदेश सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए दलीलें पेश की थीं। न्यायालय ने साफ़ किया कि औद्योगिक शराब मानव उपभोग के लिए नहीं है, और इसे संविधान के अंतर्गत आने वाली मादक शराब से अलग किया।
संविधान की 7वीं अनुसूची के अंतर्गत राज्य सूची में प्रविष्टि 8 राज्यों को मादक शराब के निर्माण, कब्जे, परिवहन, खरीद और बिक्री पर कानून बनाने की शक्ति देती है, वहीं संघ सूची की प्रविष्टि 52 और समवर्ती सूची की प्रविष्टि 33 में उन उद्योगों का उल्लेख है। संसद और राज्य विधानसभाएं समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बना सकती हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से पुष्टि की कि केंद्रीय कानून राज्य कानून पर वरीयता लेते हैं।