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    Home » औरंगज़ेब की छवि ‘ग़लतफ़हमियों का शिकार’: बीजेपी नेता रीता जोशी
    भारत

    औरंगज़ेब की छवि ‘ग़लतफ़हमियों का शिकार’: बीजेपी नेता रीता जोशी

    By March 7, 2025No Comments7 Mins Read
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    नीति आयोग से लेकर तमाम अन्य संस्थाओं के आँकड़े यूपी को देश के सबसे ग़रीब राज्यों में शुमार करते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में बदहाली से लेकर भीषण बेरोज़गारी तक से राज्य जूझ रहा है। शिक्षा का भी बुरा हाल है। कुल मिलाकर राज्य को इलाज की ज़रूरत है। लेकिन  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ महाराष्ट्र के समाजवादी पार्टी विधायक अबू आज़मी का ‘इलाज’ करने के लिए परेशान हैं। अबू आज़मी ने हाल में औरंगज़ेब को क्रूर मानने से इंकार करते हुए एक बयान दिया था जिसके बाद राजनीति गरमा गयी। लेकिन योगी आदित्यनाथ शायद नहीं जानते कि उनकी पार्टी की एक बड़ी नेता भी औरंगज़ेब की ‘क्रूर छवि’ बनाने पर सवाल उठाते हुए उसे ‘ग़लतफ़हमियों का शिकार’ बता चुकी हैं। ये नेता हैं, पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री प्रो. रीता जोशी जो कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती थीं। 

    प्रो. रीता जोशी के पिता हेमवती नंदन बहुगुणा कभी यूपी के मुख्यमंत्री और हिंदी पट्टी के दिग्गज नेता थे। प्रो. रीता जोशी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास की शिक्षक थीं। ‘इलाहाबाद स्कूल ऑफ़ हिस्ट्री’ ने तमाम स्थापित और औपनिवेशिक मान्यताओं को अपने शोधकार्यों से ध्वस्त किया था, और प्रो. रीता जोशी भी उसी परंपरा में पगी थीं। यह परंपरा इतिहास को हिंदू-मुस्लिम नज़रिए से नहीं देखती बल्कि किसी युग के संपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को समेट कर इतिहास का वृत्त बनाती थी।

    तथ्य बताते हैं कि शासक, शासन और शासित के अंतर्संबंधों में धर्म की भूमिका न्यूनतम थी। इस विभाग के एक छात्र अखिलेश जायसवाल ने रीता जोशी के निर्देशन में इस विषय पर शोध किया और 1988 में उनकी एक किताब प्रकाशित हुई-औरंगज़ेब और हिंदुओं के संबंध। इस किताब में औरंगज़ेब पर लगाए जाने वाले तमाम आक्षेपों की दस्तावेज़ी जाँच-पड़ताल करके बताया गया है कि समाज में उसकी ग़लत छवि बनाई गई है।

    इस किताब के प्राक्कथन में डॉ. रीता जोशी ने लिखा- पाठकों तक औरंगज़ेब का सही व्यक्तित्व, उसकी कठिनाइयों और उसके कार्यों की सही व्याख्या पहुँचाना नितांत ज़रूरी है।

    प्राक्कथन में प्रो. जोशी आगे लिखती हैं-

    “मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का दुर्भाग्य है कि वह मुग़ल शासकों में सर्वाधिक ग़लतफ़हमियों का शिकार हुआ है। उस पर रूढ़िवादिता, हठधर्मिता एवं कट्टरता का आरोप लगाया गया है। अभी तक यही आम धारणा थी कि औरंगज़ेब भारत को इस्लामी राज्य में परिवर्तित करना चाहता था, वह भारत की बहुसंख्य हिंदू प्रजा पर अल्पसंख्यक मुस्लिम धर्म को लागू करना चाहता था। औरंगज़ेब पर अकबर की उदारता समाप्त करने तथा हिंदू-मुसलमानों के मध्य चली आ रही सद्भावना को विद्वेष में परिवर्तित कर देने का आरोप है। यह भी कहा जाता है कि हिंदू तत्वों को मुग़ल साम्राज्य का शत्रु बनाकर औरंगज़ेब ने अपने साम्राज्य का पतन सुनिश्चित कर दिया था। राजपूतों एवं मराठों तथा सिखों के प्रति उसकी नीति की कटु आलोचना की गई है। इस प्रकार मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मूलत: औरंगज़ेब को ही उत्तरदायी ठहराया गया है।

    कुछ समय से औरंगज़ेब के शासनकाल के अध्ययन एवं मूल्यांकन में परिवर्तन हुआ। नवीन तथा निष्पक्ष दृष्टिकोणों से इतिहास लिखा जा रहा है। नवीनतम अनुसंधानों तथा विश्लेषणों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वास्तव में औरंगज़ेब वैसा नहीं था, जैसा कि यूरोपीय एवं बीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहासकारों ने समझा था। प्रत्येक शासन से त्रुटियाँ होती हैं और औरंगज़ेब ने भी की थी। किंतु यह भी सत्य है कि अगर सन 1658 ई. में औरंगज़ेब गद्दी पर ना बैठता तो शायद मुग़ल साम्राज्य उसी समय समाप्त हो जाता।

    औरंगज़ेब ने अपनी सूझ-बूझ, दूरदर्शिता, अनुभव एवं कूटनीति से पचास वर्षों तक मुग़ल साम्राज्य के पतन को स्थगित रखा। पतन के कारणों का बीजारोपण काफ़ी पहले हो चुका था। औरंगज़ेब ने तो कालचक्र को रोके रखा। किंतु उसके उत्तराधिकारी स्थिति को नियंत्रित ना कर सके और इस योग्य शासक की मृत्यु होते ही साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।

    आज आवश्यकता है कि विभिन्न स्तरों पर इतिहास की त्रुटियों को सुधार कर पुन: उसकी रचना की जाए। श्री अखिलेश जायसवाल ने भी ऐसा ही एक प्रयत्न किया है। अधिक से अधिक प्रकाशनों के माध्यम से पाठकों तक औरंगज़ेब का सही व्यक्तित्व, उसकी कठिनाइयों और उसके कार्यों की सही व्याख्या पहुँचाना नितांत आवश्यक है। केवल उच्च स्तर पर ही नहीं, वरन शिक्षा के प्रारंभिक माध्यमिक स्तर पर भी छात्रों को सही इतिहास पढ़ाया जान चाहिए।

    मेरी शुभकामनाएँ इस पुस्तक के लेखक श्री अखिलेश जायसवाल के साथ हैं।”

    इन पंक्तियों का लेखक भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्य एवं आधुनिक इतिहास विभाग का छात्र रहा है। बल्कि प्रो. जोशी की कक्षा का भी विद्यार्थी रहा है। आश्चर्य है कि प्रो. रीता जोशी राजनीतिक कारणों से वह सब कुछ भुला चुकी हैं जो बतौर शिक्षक वे पढ़ाती थीं। ये लोकतंत्र की विडंबना ही है कि सच बोलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन यह मजबूरी उनकी नहीं जो अकादमिक क्षेत्र में आज भी रमे हुए हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ‘मध्य एवं आधुनिक इतिहास विभाग’ के पूर्व अध्यक्ष प्रो. हेरम्ब चतुर्वेदी का एक बयान हाल में द टेलीग्राफ़ अख़बार में छपा है। प्रो. चतुर्वेदी कहते हैं-

    “औरंगज़ेब ने मंदिर तोड़ने के आदेश दिये थे, लेकिन उसने कई मंदिरों को दान भी दिया था। इनमें अरैल का महादेव मंदिर, चित्रकूट का बालाजी मंदिर,  उज्जैन का महाकाल मंदिर, वाराणसी में जंगमबाड़ी का मंदिर शामिल हैं। चित्रकूट के बालाजी मंदिर के लिए तो उसने राजस्व मुक्त ज़मीन भी दी थी।”

    योगी चाहें तो प्रो. चतुर्वेदी से औरंगज़ेब पर ज्ञान ले सकते हैं अगर प्रो. रीता जोशी के पास जाना मुमकिन न हो।

    निश्चित ही औरंगज़ेब ने क्रूरता की। अपने भाइयों समेत तमाम विरोधियों को बेदर्दी से मारा। लेकिन यह ‘राजत्व के सिद्धांत’ से जुड़ी वही प्राचीन परंपरा है जिसमें सत्ता के लिए पिता की हत्या तक की गयी है। मगध का शासक अजातशत्रु अपने पिता बिम्बसार को मरवा डालता है और अपने पुत्र उदयन के हाथों मारा जाता है। राजत्व या बादशाहत का सिद्धांत ही क्रूरता पर ही आधारित है। राजा के लिए सिर्फ़ राजगद्दी का महत्व होता है, धर्म का नहीं जैसा कि आज बताने की कोशिश हो रही है। बात पुरानी है तो याद कीजिए कि चित्तौड़ के राणा कुम्भा की हत्या उनके बेटे उदय सिंह ने की थी। इस्लाम के जन्म से पहले ही भारत में दूसरे मतावलम्बियों के पवित्र स्थलों के ध्वंस का इतिहास कश्मीर से लेकर दक्षिण भारत तक फैला हुआ है।

    यह नहीं भूलना चाहिए कि औरंगज़ेब की सेना में पाँच हज़ारी मनसबदारों की तादाद अकबर के वक़्त से भी ज़्यादा थी। उसका साम्राज्य इन्हीं के बल पर विस्तार पाता रहा। शिवाजी के ख़िलाफ़ औरंगज़ेब के अभियान का नेतृत्व राजा जय सिंह ने किया था और शिवाजी की ओर से औरंगज़ेब की सेना पर टूट पड़ने वाले सेनापतियों का नाम इब्राहीम ख़ाँ और दौलत खाँ था। शिवाजी ने बीजापुरी सिपहसालार की अफ़ज़ल खाँ की हत्या के बाद उन पर हमला करने दौड़े पं. भास्कर कुलकर्णी को भी वहीं मौत के घाट उतार दिया था। कुलकर्णी अफ़ज़ल खाँ का साथी था।

    औरंगज़ेब जिस राजतंत्र का प्रतीक है, उसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने हमेशा के लिए दफ़ना दिया है। तीन सौ से भी ज़्यादा साल पहले मर चुके औरंगज़ेब से बदला लेने का आह्वान अब वही कर सकता है जिसे वर्तमान और भविष्य की कोई चिंता नहीं है। वह औरंगज़ेब के नाम पर महज़ धार्मिक ध्रुवीकरण करके वोटों की फ़सल काटना चाहता है। औरंगज़ेब से बदला लेने का एक ही तरीक़ा हो सकता है कि जिन बातों के लिए उसकी आलोचना होती है, उस रास्ते पर न चलाया जाये। लेकिन हो उल्टा रहा है। दूसरे धर्म के लोगों पर अत्याचार को अपनी राजनीतिक पूँजी बनाने में जुटे लोग औरंगज़ेब पर दूसरे धर्म के लोगों के प्रति क्रूरता करने का आरोप लगा रहे हैं। दरअसल, वे ख़ुद औरंगज़ेब की राह पर चल रहे हैं।

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