दिल्ली से कोलकाता होकर अपने गृह जिला सरायकेला पहुंचे झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन ने बुधवार को अपने पैतृक गांव जिंतिलगोड़ा में कहा है कि वे राजनीति से संन्यास नहीं लेंगे। वे एक नया संगठन बनाएंगे। अगले एक हफ्ते में तस्वीर साफ हो जाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि रास्ते में कोई साथी मिलेगा, तो राज्य हित में उसके साथ हाथ मिलाएंगे। जिंतिलगोड़ा में वे अपने समर्थकों, कार्यकर्ताओं की भीड़ को संबोधित कर रहे थे।
जेएमएम के नेता और हेमंत सोरेन सरकार में मंत्री चंपाई सोरेन के इस बयान से ये स्पष्ट हो गया है कि जेएमएम के साथ नहीं रहेंगे। बीजेपी के साथ जा रहे हैं या नहीं ये अगले कुछ दिनों में साफ़ हो जाएगा।
इससे पहले मंगलवार को दिल्ली से वापस लौटने के दौरान उन्होंने कहा था कि बीजेपी के किसी नेता से उनकी कोई बातचीत नहीं है। वे निहायत निजी काम से दिल्ली आए थे। रविवार को दिल्ली पहुंचने पर भी उन्होंने यही कहा था।
हालांकि बनते- बिगड़ते समीकरणों के बीच चंपाई सोरेन की इस सियासत के केंद्र कई सवाल मौजूद हैं- क्या चंपाई सोरेन उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां से उन्हें कोई मनमाफिक रास्ता निकलता नहीं दिख रहा है। क्या चंपाई सोरेन वाकई में बीजेपी के संपर्क में नहीं थे और उनकी बीजेपी के किसी नेता से कोई बातचीत नहीं है। क्या चंपाई सोरेन किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के शिकार हो रहे। क्या जेएमएम से अलग होकर वे अपना राजनीतिक कद और बड़ा कर सकेंगे।
जाहिर तौर पर इन सवालों पर सत्ता- विपक्ष की नजरें टिकी हैं। और इन सवालों के जवाब का इंतजार कोल्हान के टाइगर कहे जाने वाले चंपाई सोरेन और उनके कुनबा को कहीं ज्यादा ज्यादा है।
चंपाई सोरेन के बदले तेवर के बाद जेएमएम के अंदर इस रणनीति पर ज्यादा जोर है कि पार्टी अपने विधायकों को इंटैक्ट रखे। खुद हेमंत सोरेन इस रणनीति की कमान संभाल रहे हैं। दरअसल हेमंत सोरेन को भी पता है कि बीजेपी उनकी घेराबंदी के लिए कोई कसर नहीं छोड़ने जा रही। मंगलवार, 20 अगस्त को कोल्हान से जेएमएम के चार विधायक- समार मोहंती, रामदास सोरेन, मंगल कालिंदी और संजीव सरदार जेएमएम के कार्यकारी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलने रांची पहुंचे थे।
करीब डेढ़ घंटे तक बातचीत के बाद जब वे हेमंत सोरेन के आवास से बाहर निकले, तो उन तमाम अफवाहों और अटकलों को खारिज किया, जिन्हें हवा मिल रही थी कि चंपाई के साथ कोल्हान के कई विधायक बीजेपी में शामिल हो सकते हैं। इससे पहले खरसावां के जेएमएम विधायक दशरथ गागराई ने भी एक लिखित बयान जारी कर स्पष्ट कहा था कि वे पूरी निष्ठा के साथ जेएमएम में मौजूद हैं।
दूसरी तरफ इस प्रकरण में जेएमएम का कोई नेता चंपाई सोरेन के खिलाफ तल्खियां जाहिर नहीं कर रहा। इसे उनकी रणनीति का हिस्सा समझा जा रहा है। शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन दोनों वेट एंट वाच की स्थिति में हैं। वे चंपाई सोरेन के खिलाफ फिलहाल कोई कार्रवाई कर गेंद को उनके पाले में जाने नहीं देना चाहते। राजनीतिक गलियारे में अब इसकी भी चर्चा शुरू है कि जब जेएमएम से इतनी तकलीफ थी और तीन जुलाई को ही चंपाई सोरेन ने अपने राजनीतिक जीवन का नया अध्याय शुरू करने का निर्णय ले लिया था, तो उन्हें सात जुलाई को मंत्री पद की शपथ नहीं लेनी थी। और अब जेएमएम से रास्ते अलग कर रहे हैं, तो मंत्री पद छोड़ने के लिए आगे बढ़ना चाहिए।
हालांकि झारखंड प्रदेश बीजेपी के नेता चंपाई सोरेन का बचाव उनके मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद से करते रहे हैं। कई मौके पर बीजेपी के नेता कह चुके हैं कि चंपाई सोरेन को हेमंत सोरेन ने सत्ता के मोह में मुख्यमंत्री पद से हटाया। चंपाई सोरेन के कामकाज को भी सराहा जा रहा है और बीजेपी के नेता लगातार इन बातों पर जोर दे रहे हैं कि एक झारखंड आंदोलनकारी और जमीन से निकले नेता के साथ अच्छा रुख नहीं अपनाया गया।
भाजपा में क्या चल रहा हैः तो क्या वाकई में चंपाई सोरेन बीजेपी के संपर्क में नहीं थे और उनकी किसी नेता से कोई बातचीत नहीं है। यह मुमकिन नहीं लगता। अंदरखाने कुछ तो चल रहा था, जो सिरे नहीं चढ़ा। या फिर चंपाई सोरेन ने इस विश्वास के साथ दिल्ली की राह पकड़ ली थी कि वे कोई बड़ा उलटफेर करने में सफल होंगे। बीजेपी ने दो महीने पहले केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा झारखंड में क्रमशः चुनाव प्रभारी और सह प्रभारी बनाया है। हिमंता बिस्वा सरमा इन दो महीने के दौरान कम से कम दस बार झारखंड के दौरे पर आ चुके हैं।
लोकसभा चुनावों में आदिवासियों के लिए रिजर्व सभी पांच सीटों पर हार के बाद बीजेपी को सेटबैकक का सामना करना पड़ा है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जेएमएम से सीता सोरेन और कांग्रेस से गीता कोड़ा के बीजेपी में आने से जिस तरह का राजनीतिक बुलबुला उठा था वह नतीजों के साथ फूटता चला गया। सीता सोरेन दुमका से और गीता कोड़ा सिंहभूम से चुनाव हार गईं। इससे पहले 2019 के विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी इलाकों में मिली बड़ी हार के चलते बीजेपी को सत्ता गंवानी पड़ी थी। आदिवासी इलाके में खोयी जमीन कैसे वापस करें, बीजेपी के लिए यह चिंता का सबब भी है।
बदली परिस्थितियों में शीर्ष स्तर पर बीजेपी के रणनीतिकार यह तौलना जरूर चाहेंगे कि चंपाई सोरेन के अकेले आने से पार्टी को कितना लाभ कितना नुकसान होने वाला है। दूसरा- चंपाई सोरेन की भी कुछ शर्तें हो सकती हैं। अगर अंदरखाने कुछ चल रहा है, तो इन शत्तों को मानने के लिए बीजेपी कितनी दूर तक तैयार रहेगी, यह देखने वाली बात होगी।
इधर विधानसभा चुनाव के बमुश्किल ढाई- तीन महीने बचे हैं। अगर चंपाई सोरेन अभी कोई नया संगठन बनाते हैं, तो इतनी जल्दीबाजी में अकेले चुनावी राजनीति में पैर जमाना भी उनके लिए बहुत आसान नहीं होगा। इसलिए कि उन्हें एनडीए के साथ इंडिया ब्लॉक दो धड़े का सामना करना होगा। हालांकि इससे कुछ सीटों पर वोटों के समीकरण जरूर प्रभावित हो सकते हैं।