राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के `बंटेंगे तो कटेंगे’ के नारे को अनुमोदित करके यह सिद्ध कर दिया है कि अपनी स्थापना के सौ साल बाद भी वह बिल्कुल नहीं बदला है। उसका डीएनए हिंसा और नफ़रत वाला ही है और वह उसी भाषा में सोचता है। बल्कि अगर कहा जाए कि वह किसी और भाषा में सोच ही नहीं पाता तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जिस तरह कोई हिंदी भाषी किसी विचार को पहले हिंदी में सोचता है और बाद में अंग्रेजी में अनूदित करता है या अंग्रेजी भाषी पहले उसे अंग्रेजी में सोचता है फिर उसे हिंदी या किसी और भाषा में व्यक्त करता है। उसी तरह आरएसएस और उसके एजेंडा को बढ़चढ़ कर लागू करने वाले सोचते दंगे वाली भाषा में ही हैं। बाद में उसे सभ्यता, मर्यादा, शांति और सद्भाव का जामा पहना दिया जाता है।
योगी आदित्यनाथ ने पहले यह नारा बांग्लादेश के संदर्भ में दिया था। वहां शेख हसीना को सत्ता से अपदस्थ किए जाने के बाद हिंदू धार्मिक स्थलों पर हमले हुए थे और कई हिंदू बस्तियों में तोड़फोड़ हुई थी। हालांकि बांग्लादेश के बहुसंख्यक समाज ने आगे बढ़कर हिंदुओं को सुरक्षा का आश्वासन दिया और उस सिलसिले को तोड़ा और बड़ी घटनाओं को घटने से रोका। बांग्लादेश के सलाहकार प्रधानमंत्री मोहम्मद यूनुस स्वयं कई हिंदू मंदिरों में गए और हिंदुओं के साथ भारत को भी उनकी सुरक्षा का आश्वासन दिया। लेकिन जिस देश में तख्तापलट हुआ हो और लंबे समय तक पुलिस थाने बंद पड़े हों, जहां अराजक स्थिति हो और जो संवैधानिक रूप से इस्लामी देश हो वहां अल्पसंख्यकों के विरुद्ध गैर-कानूनी घटनाएं हो सकती हैं। विशेषकर, जो लोग शेख हसीना के समर्थक रहे हों वे किसी न किसी रूप में निशाने पर हैं चाहे हिंदू हों या मुसलमान। लेकिन उस पूरे घटनाक्रम को लोकसभा में पराजय के बाद प्रदेश में उपचुनाव के ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल किया जाना एक मानसिक दिवालियापन ही साबित करता है। बांग्लादेश में हिंदू ही नहीं, बिहारी मुसलमान भी असुरक्षित हैं और उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता। उनके बारे में लगातार लिखा जाता रहा है।
योगी आदित्यनाथ का पूरा नारा है—`बंटेंगे तो कटेंगे……एक रहेंगे तो नेक रहेंगे, सुरक्षित रहेंगे’। यह जानना रोचक है कि जिन पोस्टरों में यह नारे लगाए गए हैं उनमें `बंटेंगे तो कटेंगे’ के अक्षरों का आकार बाद की पंक्तियों के आकार से कई गुना बड़ा है। बल्कि बाद की पंक्तियों को देखने के लिए खुर्दबीन की जरूरत पड़ेगी और शुरू वाली पंक्तियों को देखने और सुनने के लिए न तो चश्मा चाहिए और न ही कान की मशीन। वह नारा दृश्य श्रव्य माध्यमों से पूरे प्रदेश तो क्या देश भर में गूंज रहा है। संघ के पदाधिकारी आमतौर पर शालीन भाषा में अभिव्यक्ति देने का दावा करते हैं लेकिन जिस तरह से संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने उसे अनुमोदित किया है उसे जानकर वह दावा भरभरा जाता है।
मथुरा में दो दिनों के राष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने कहा—हिंदू समाज एकता में नहीं रहेगी तो आजकल की भाषा में `बंटेंगे तो कटेंगे हो सकता है’। उनका यह भी कहना था कि हिंदू समाज को जाति के आधार पर विभाजित करने का प्रयास एक साजिश है। इससे पहले पांच अक्टूबर को ठाणे की एक रैली में प्रधानमंत्री ने एकता पर जोर देते हुए कहा, ` अगर हम बंटेंगे तो बांटने वाले महफिल सजाएंगे।’ उसके अगले ही दिन संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि हिंदू एकता होनी चाहिए। क्षेत्रीय, भाषाई और जाति के आधार पर विभाजन समाप्त होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है।
इस तरह के नारे की एक व्याख्या तो यह है कि जाति जनगणना की मांग के साथ इंडिया गठबंधन ने और पीडीए (पिछड़ा दलित, अल्पसंख्यक) नारे के साथ अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव में नया वोटबैंक एकजुट किया है। उसके परिणाम भी 43 सीटों के साथ उत्तर प्रदेश में दिखाई पड़े हैं। उसका जवाब यही है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करो और हिंदुओं को मुसलमानों से डराओ। ज्यादातर सतही व्याख्याकार इसे महज चुनाव में वोटों के इधर उधर खिसकने से करते हैं। उनका ध्यान हिंदू समाज और व्यापक भारतीय समाज में मौजूद जाति व्यवस्था की ओर नहीं जाता। जाता भी है तो जातियों के वोट प्रतिशत की ओर जाता है जातियों में विद्यमान ऊंच नीच की धर्मशास्त्रीय मान्यता और सामाजिक सांस्कृतिक यथार्थ की ओर नहीं जाता है।
वे जाति व्यवस्था के बोझ से दबे भारतीय समाज की पीड़ा को समझने के बजाय उसे वोटों के प्यादे के रूप में देखते हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने समाज परिवर्तन का कोई व्यापक अभियान छेड़ रखा है। वे जाति व्यवस्था को तोड़ने के किसी सामाजिक आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं। लेकिन उन्होंने संविधान बनाम मनुस्मृति की बहस छेड़कर इतना तो बता दिया है कि अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ शक्तिशाली होगा तो संविधान कमजोर होगा और मनुस्मृति ताकतवर होगी। इससे पिछले 75 सालों में समता, स्वतंत्रता पर आधारित जो भाईचारा कायम हुआ है वह खंडित हो जाएगा। समता और स्वतंत्रता पर आधारित भाईचारा ही देश की असली एकता है। उस एकता को कायम करने के लिए सामाजिक न्याय बहुत ज़रूरी है। उस एकता को कायम करने के लिए सांप्रदायिक सद्भाव बहुत ज़रूरी है। जो लोग संविधान, सामाजिक न्याय और सद्भाव पर चोट करते हैं वे असल में देश को बांट रहे हैं और वे ही देश को कमजोर कर रहे हैं।
सामाजिक न्याय और सद्भाव के लिए एकता का नारा डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी दिया था। पचास के दशक में महाराष्ट्र में और अस्सी नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश में उनका यह नारा गूंजता था–`शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो’। यह नारा देश के बहुजन समाज में आज भी जोश भरता है और उन्हें भविष्य की राह दिखाता है। अब जरा इसकी तुलना कीजिए `बंटेंगे तो कटेंगे’ के नारे से। पहले वाला नारा किसी पढ़े लिखे और विद्वान व्यक्ति द्वारा दिया गया लगता है और दूसरा वाला नारा किसी खाए अघाए हिंसक व्यक्ति द्वारा दिया गया लगता है। ऐसा व्यक्ति जो समाज के हजारों साल के इतिहास के बारे में नहीं सोचता, देश के वर्तमान और भविष्य के बारे में नहीं सोचता। वह सोचता है सिर्फ लोगों को भड़का कर सत्ता हासिल करने के बारे में।
भारतीय समाज विविधता भरा है और उसमें तमाम ऐसे समुदाय हैं जो कम पढ़े लिखे हैं या जिनकी जीवन शैली आक्रामक है, जिनकी भाषा आक्रामक है। लेकिन जब भी उस समाज का कोई नेता और लंबे समय से सत्ता के प्रमुख पद पर बैठा व्यक्ति अपनी बात कहता है तो उस आक्रामकता को छोड़ देता है और ऐसी भाषा में लोगों से अपील करता है जो हृदय की भावना को तो स्पर्श करे लेकिन समर्थकों और नागरिकों को असभ्य न बनाए। आमतौर पर जाट समुदाय आक्रामक माना जाता है। आप पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों से अनौपचारिक बातचीत कीजिए तो पूरब में `आप’ ज्यादा बोला जाता है और पश्चिम में `तू’ बहुत बोला जाता है। शायद इसी पर ग़ालिब ने कहा भी है कि –`हर इक बात पर कहते हो कि तू क्या है, तुम्ही बताओ ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है’। लेकिन राजनीतिकरण ने यह समाज की उस भाषा को बदल दिया है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बिरादरी के जाने माने नेता चौधरी चरण सिंह, जो कि न सिर्फ़ प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे बल्कि प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे, ने `शिष्टाचार’ नाम से किताब भी लिखी है। उसमें उन्होंने बताया है कि एक राजनीतिक कार्यकर्ता को किस तरह की भाषा का प्रयोग करना चाहिए। किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। इतना ही नहीं, चौधरी साहब उस समय भी जातिगत विभाजन समाप्त करने के लिए सचेत थे और उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखकर कहा था कि आप नौकरशाही के लिए अंतर्जातीय विवाह अनिवार्य कर दीजिए। इससे जाति व्यवस्था टूटेगी। हालांकि तत्कालीन मीडिया ने चौधरी को एक किसान नेता और औद्योगिक विकास के विरोधी के रूप में ही पेश किया और उनकी राष्ट्रीय स्तर पर एक गंवार नेता की छवि ही पेश की। लेकिन अगर आप उनके साहित्य का अध्ययन करें तो पाएंगे कि भारतीय राजनीति में अर्थशास्त्र को उतनी गहराई से समझने वाले नेता कम हुए हैं। उन्हीं चौधरी साहब ने देवीलाल को पार्टी से इसलिए निकाल दिया था कि विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने राज्यपाल तपासे से बदसलूकी की थी क्योंकि राज्यपाल ने उन्हें सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाया था। यह था शिष्टाचार का तक़ाजा।
इंदिरा गांधी को तानाशाह कहा जाता है और उनमें वह तत्व था भी लेकिन उन्होंने अपने राजस्थान के एक मुख्यमंत्री को इसलिए हटा दिया था, क्योंकि उन्होंने एक सभा में हिंदी की जानी मानी कवयित्री महादेवी वर्मा का अपमान कर दिया था।
आज मध्यवर्ग से आक्रामक भाषा की शिकायत करो तो वह कहता है कि यह कब नहीं हुआ। यह कुतर्क हर हिंसक और भेदभावपूर्ण कार्रवाई के पक्ष में दिया जाता है। जिस उत्तर प्रदेश में और पहले उसके हिस्से रहे उत्तराखंड के दर्जनों साहित्यकारों ने हिंदी को गढ़ा और समृद्ध किया वहां के राजनेताओं की ऐसी भाषा होगी और उसे भारतीय संस्कृति को अपनी लाठी पर उठाए घूमने वाला संघ परिवार अनुमोदित करेगा यह सुनकर सदमा सा ही लगता है। यह वही उत्तर प्रदेश है जहां पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी भाषा को तराशा, जिसे जयशंकर प्रसाद ने सुकोमल रेशमी भाषा दी, जिसे सुमित्रानंदन पंत ने अपने कल्पनाशील और प्रकृति के सुरम्य वर्णन से संवारा और जहां महादेवी वर्मा के करुणा भरे गीत गूंजते थे, जहां पैदा हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी, वासुदेव शरण अग्रवाल ने बेहद विद्वतापूर्ण और उच्च श्रेणी का गद्य रचा वहां के राजनेता ऐसी भाषा बोलेंगे इसकी कल्पना करना जरा कठिन है।
यह वही प्रदेश है जहां पर डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे विद्वान राजनेता हुए जिन्होंने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को समझाने के लिए और पत्रकारों को लिखने के लिए दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र के नए मुहावरे और भाषा ही गढ़ दी, जहां पर आचार्य नरेंद्र देव जैसे विद्वान राजनेता हुए जिनका `बौद्धधर्म दर्शन’ पढ़ते हुए बड़े बड़े विद्वानों के पसीने छूट जाते हैं, वहां भला कैसे नेता इस तरह की भाषा बोलने और चलाने का सांस्कृतिक साहस करते हैं। यह उस नेता और संगठन का ही नहीं उस प्रदेश का भी पतन है। इसी उत्तर प्रदेश से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चुने जाते थे और यहीं से विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर भी चुनकर प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे। उनकी भाषा, उनका लेखन और उनकी कविताएं साहित्य जगत की निधि हैं। मुख्यमंत्री पद की उसी कुर्सी पर कमलापति त्रिपाठी भी बैठे और डॉ. संपूर्णानंद भी जिनकी विद्वता और अभिव्यक्ति में एक किस्म का लालित्य था। एक बार एक नेता त्रिवेणी सिंह ने उनके बारे में कुछ अशुद्ध बातें कहीं तो उन्होंने उनको सरस्वती विहीन त्रिवेणी कह कर संबोधित किया।
यहां तक कि सामाजिक परिवर्तन की राजनीति से आने वाले मुलायम सिंह और मायावती और कल्याण सिंह की भाषा भी आमतौर पर शालीन ही रही है। मायावती ने हाल में अपने भतीजे को पद से इसलिए हटा दिया था क्योंकि भाजपा के प्रति उनकी भाषा शालीन नहीं थी।
यह बात अलग है कि कांशीराम की भाषा आरंभ में आक्रामक थी। वे अपनी रैलियों में कह भी देते थे कि इस रैली से सवर्ण समाज के लोग चले जाएं क्योंकि जो बातें मैं करूंगा वे उन्हें अच्छी नहीं लगेंगी। वे महाराष्ट्र से आए थे इसलिए उन पर एक तरफ तो मराठी संस्कृति का असर था और दूसरी ओर वे अपने दबे कुचले बहुजन समाज को जगाने के लिए लगे थे। इसलिए उनकी पीड़ा में आक्रोश हो सकता है और भाषा कड़ी हो भी सकती है। उन्हें योगी आदित्यनाथ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। दलितों की आक्रामकता को सहज मानकर एक बार गांधी ने कहा भी था कि डॉ. आंबेडकर अगर हमारा सिर भी फोड़ दें तो हमें बुरा नहीं मानना चाहिए क्योंकि उनके समाज पर हमारे लोगों ने बहुत अत्याचार किया है।
लेकिन गांधी ने अंग्रेजों की गुलामी से लड़ते हुए भी कभी आक्रामक भाषा का प्रयोग नहीं किया। यहां तक कि क्रांतिकारी आंदोलन के प्रतीक बन चुके भगत सिंह की भाषा में भी विमर्श की मर्यादा विद्यमान है। गांधी जी के भाषण को सुनकर एक जगह जयप्रकाश नारायण ने कहा भी है कि मुझे हैरानी होती है कि इतने बड़े आंदोलन का नेतृत्व करने वाला नेता कैसे इतनी ठंडी भाषा में बात करता है। असल में समाज में जोश आप के चरित्र से आता है न कि आक्रामक भाषा से।
आक्रामक भाषा पहले बोलने वाले को बिगाड़ती है और हो सकता है समाज को लंबे समय के लिए बिगाड़े। लेकिन वह न तो उसमें एकता कायम करती है और न ही उसे नेक बनाती है।
एक दौर था जब मराठी नेता आक्रामक भाषा बोलते थे और गुजराती नेता शालीन भाषा। मराठी भाषा और साहित्य के साथ अनौपचारिक भाषा में भी गाली गलौज और आक्रामकता है। लेकिन गांधी, पटेल और दूसरे तमाम गुजराती नेताओं और कवियों साहित्यकारों को देख सुनकर नहीं लगता है कि गुजराती संस्कृति में आरंभ में वैसी आक्रामकता रही है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भाषा में आक्रामकता है। वह शायद मराठी संस्कृति से आई है। लेकिन हाल में अपने मित्र योगेंद्र यादव ने वहां के संतों की महान परंपरा का स्मरण दिलाते हुए उनकी करुणामयी वाणी को अपनाने की बात कही है। इसलिए लगता है कि आक्रामक भाषा के पीछे आप के हिंसक विचार होते हैं।
कई बार हैरानी होती है कि संघ परिवार जिन संतों, महात्माओं और योगियों को आगे कर रही है उनकी भाषा और हमारे भक्तकालीन संतों की भाषा में कितना अंतर है। निश्चित तौर पर किसी समाज के हिंसक और भ्रष्ट होने से पहले उसकी भाषा भ्रष्ट और हिंसक होती है। अब देखना है कि उत्तर प्रदेश अपनी ज्ञान-विज्ञान और धर्म-संस्कृति की लंबी विरासत के मद्देनजर `बंटंगे तो कटेंगे’ की भाषा को किस हद तक स्वीकार करते हैं और किस हद तक खारिज करते हैं। पिछले कुछ वर्षों से बुद्धिजीवियों की एक फौज लगी हुई है यह सिद्ध करने में संघ अब काफी बदल गया है। अगर संघ के डीएनए में इसी तरह की हिंसक और असभ्यता की भाषा है तो वह कहां बदला है। यह सवाल उन लोगों से पूछा जाना चाहिए।