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    Home » क्या ‘भीड़वाद की सोच’ से देश चल सकता है? 
    भारत

    क्या ‘भीड़वाद की सोच’ से देश चल सकता है? 

    By January 19, 2025No Comments10 Mins Read
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    8 दिसंबर 2024 को, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पुस्तकालय में विश्व हिंदू परिषद के ‘क़ानून प्रकोष्ठ’ द्वारा एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इस कार्यक्रम में बोलने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ही जज जस्टिस शेखर यादव को बोलने के लिए बुलाया गया था। जस्टिस यादव को समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर बोलना था लेकिन उनका वक्तव्य हिंदू बनाम मुस्लिम मुद्दे में तब्दील हो गया। जस्टिस शेखर यादव हिंदुओं द्वारा किए गए सुधारों पर बड़े गर्व पूर्वक बोलने लगे और मुसलमानों को इस्लामिक रूढ़ियों के लिए कोसने लगे।

    यूसीसी की वकालत करते हुए जस्टिस यादव ने कहा, ‘आपका यह भ्रम है कि अगर कोई कानून लाया गया तो वह आपके शरीयत, इस्लाम और कुरान के ख़िलाफ़ होगा। लेकिन मैं एक और बात कहना चाहता हूँ कि चाहे वह आपका व्यक्तिगत कानून हो, हमारा हिंदू कानून हो, आपका कुरान हो या हमारी गीता, जैसे मैंने कहा कि हम अपनी प्रथाओं में बुराइयों का समाधान कर चुके हैं। छुआछूत, सती, जौहर, भ्रूण हत्या… हम इन सभी समस्याओं का समाधान कर चुके हैं। फिर आप इस कानून को क्यों नहीं खत्म करते’

    मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो गया और क्यों हुआ कि जिस व्यक्ति को सिर्फ़ और सिर्फ़ क़ानून की ही भाषा बोलनी चाहिए थी, वह धार्मिक ‘गर्व’ की भाषा में बात कर रहा था। यह अलग बात है कि जस्टिस यादव ने सबरीमाला मंदिर द्वारा महिलाओं को लगभग ‘अछूत’ समझी जाने वाली परंपरा पर कुछ नहीं बोला। यह भी अलग बात है कि चाहे सती प्रथा हो या विधवा विवाह कोई भी दक्षिणपंथी हिंदू इन पर सुधारात्मक उपायों के समर्थन में कभी नहीं रहा, उल्टा जमकर विरोध किया। राजा राममोहन राय, केशव चंद्र सेन और विद्यासागर जैसे तमाम समाज सुधारकों को हिंदू धर्म के लोगों से ही लड़कर इन सुधारों को आगे बढ़ाना पड़ा था, वे किसी अल्पसंख्यक से नहीं लड़े थे। लेकिन जस्टिस यादव शायद इतिहास में हाथ तंग रखते हैं इसलिए उन्हें यह नहीं पता होगा कि चाहे सती प्रथा का उन्मूलन (1829) हो या विधवा विवाह को मान्यता देने वाला क़ानून (1856), दोनों ही कानून बिना अंग्रेजों की मदद के संभव नहीं थे। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बाल गंगाधर तिलक जैसे लोग महिला अधिकारों को लेकर इतने संकुचित थे, कि भरोसा नहीं होता। विद्वान और प्रगतिशील पंडिता रमाबाई के ख़िलाफ़ तिलक जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व की टिप्पणी और विवाह की उम्र बढ़ाने पर उनका विरोध इस बात का प्रमाण है कि हिंदू धर्म में सुधारों का क़ानूनी रूप औपनिवेशिक सत्ता के बिना कभी संभव नहीं होता क्योंकि तथाकथित बहुसंख्यक हिंदू इसके लिए न कभी तैयार था, न ही आगे कभी तैयार होता।

    आज जब समाज में इतनी कड़वाहट फैल गई है तो जस्टिस यादव को संविधानवाद के पहले बहुसंख्यकवाद दिख रहा था। वो ‘क़ानून के शासन’ के पहले बहुसंख्यक शासन को खड़ा करना चाहते हैं, उसकी खूबियाँ बता रहे हैं, उसकी बुराइयों की चर्चा भी ज़रूरी नहीं समझते, उसके भयानक ख़तरों से नज़रें फेर लेना चाहते हैं। इसी वक्तव्य में वो कहते हैं कि मुझे ‘यह कहने में बिल्कुल गुरेज नहीं है कि यह हिंदुस्तान है। हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा। आप यह भी नहीं कह सकते कि हाईकोर्ट के जज होकर ऐसा बोल रहे हैं। क़ानून तो भइया बहुसंख्यक से ही चलता है। परिवार में भी देखिए, समाज में भी देखिये। जहाँ पर अधिक लोग होते हैं, जो कहते हैं उसी को माना जाता है’।

    मेरा सवाल यह है कि उन्होंने न्याय के परिसर में खड़े होकर, संवैधानिक न्यायालय के अंदर, पुस्तकालय कक्ष में एक ‘फासीवादी विचार’ को इतनी आसानी से, बेहद गौरव और विश्वास के साथ कैसे और क्यों कह दिया और ऐसी फासीवादी बात को कहने के बाद उन्हें इसका अफ़सोस भी नहीं है। बल्कि वो तो हिम्मत के साथ यह कह रहे हैं कि वो अपनी सांप्रदायिकता से सनी हुई विभाजनकारी बात पर अडिग हैं।

    18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा तलब किए जाने के एक महीने बाद जस्टिस शेखर कुमार यादव ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को पत्र लिखकर कहा है कि वह अपनी टिप्पणी पर कायम हैं, उन्होंने जो भी कहा है वह बात न्यायिक आचरण के किसी सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती है।

    मेरा कहना यह है कि उन्होंने न्यायिक आचरण के किस सिद्धांत का उल्लंघन किया है इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने संवैधानिक पद पर रहते हुए एक ऐसे विचार को आगे बढ़ाया है जो ‘संविधान विरोधी’ है। जब भारतीय संविधान का निर्माण हो रहा था उस दौर में द्वितीय विश्व युद्ध और उससे संबंधित विचारों से सतर्क रहने का नज़रिया बहुत ज़रूरी था। हमारे संविधान ने सतर्कता बरती भी; और यह सुनिश्चित भी किया कि यह भारतीय संविधान और इसके माध्यम से, इसका नाम लेकर देश को चलाने वाले कभी भी फासीवादी/नाज़ीवादी विचारों को आगे न बढ़ाने पायें।

    एक ऐसा विचार जहाँ बहुसंख्यक ही सबकुछ तय करता हो, और यह तय करने की प्रवृत्ति उसे इतना अधिक दुस्साहसी और शक्तिशाली बना दे कि वो अल्पसंख्यकों के जीवन और मूल्यों के बारे में भी निर्णय करना शुरू कर दे। ऐसे विचारों पर रोक लगाने के लिए हमारे भारतीय संविधान ने हर संभव कोशिश की है और इसीलिए संविधान को किसी भी धर्म के भगवान से दूर रखा गया, जातीय सर्वोच्चता को नकार दिया गया और अल्पसंख्यकों को अतिरिक्त सेफ़गार्ड्स प्रदान किए गए। लेकिन जस्टिस यादव का ‘बहुसंख्यकों’ का सहारा लेकर देश चलाने का विचार संविधान का न सिर्फ़ उल्लंघन है बल्कि देश को विभाजन और अराजकता की ओर धकेलने का विचार है। लेकिन अपनी ग़लती न मानने की जिद में जस्टिस यादव अपनी सांप्रदायिक टिप्पणी पर ‘अडिग’ हैं। यह वास्तव में चिंता का विषय है, और न्यायपालिका पर भरोसे का विषय है। इसलिए देश के जाने माने और वरिष्ठ वकीलों के समूह ने 17 जनवरी, को भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को पत्र लिखकर आग्रह किया है कि सीबीआई को आदेश दें कि जस्टिस यादव के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की जा सके। एक ईमेल के ज़रिए भेजे गए पत्र में कहा गया है, ‘न्यायमूर्ति यादव के भाषण में भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 196 और 302 के तहत वर्णित कई अपराधों की छाप है। यह भाषण न केवल मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाता है, जैसा कि संहिता की धारा 302 के तहत परिभाषित किया गया है, बल्कि इसमें धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी (धारा 196) को बढ़ावा देने की भावना भी है।’

    जस्टिस यादव ने क़ानून की पढ़ाई भले ही की है पर वो न्यायिक रूप से एक ‘कुपढ़’ व्यक्ति हैं। वो देश की धार्मिक विविधता के विरोधाभासों की सुंदरता और उसकी आवश्यकता को समझ ही नहीं पाए हैं, देश में लोकतंत्र भले ही चुनावी बहुमत से संबद्ध किया जाता रहे लेकिन दुनिया का कोई भी सफल संवैधानिक लोकतंत्र सिर्फ बहुमत की इच्छा पर संचालित नहीं किया जाता। कोई भी देश अल्पसंख्यक समुदायों की असुरक्षाओं को संबोधित किए बिना स्थाई, खुश और सुरक्षित रह ही नहीं सकता।

    जस्टिस यादव बहुसंख्यकवाद (भीड़वाद) के आधार पर देश और शासन चलाने की बात कर रहे हैं। उनका कहने का मतलब है कि जिस बात को ज़्यादा लोग कहेंगे वही माना जाना चाहिए।

    हो सकता है कि यादव ख़ुद को ‘उपयोगितावाद’ से जोड़कर देख रहे हों जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को खुश करने का विचार है। लेकिन भारत के संविधान का जन्म उपयोगितावाद से नहीं हुआ है। यह विचार सामाजिक योजनाओं जैसे- गरीबी उन्मूलन आदि के लिए तो ठीक हो सकता है लेकिन क़ानून बनाने, शासन चलाने, और अदालतों में बैठकर फ़ैसले लेने के लिए इस सिद्धांत का उपयोग आपराधिक साबित हो सकता है। भारत का संविधान न्याय के उदार सिद्धांतों पर टिका है। जहाँ सामुदायिक हित और व्यक्तिगत हितों के बीच संतुलन स्थापित किया गया है। यदि यह संतुलन कभी टूटता भी है तो व्यक्तिगत अधिकार प्रभावी होते हैं। संविधान के अनुच्छेद-19 और 21 इसके प्रमाण हैं। जब एक बहुसंख्यक आबादी मिलकर अल्पसंख्यकों के फ़ैसले भी लेने लगती है तो वह लोकतंत्र नहीं फासीवाद का गढ़ बन जाता है।

    जस्टिस यादव को परिवार, समाज, देश और संविधान में अन्तर करना नहीं आया इसलिए मैं उन्हें ‘न्यायिक कुपढ़’ कह रही हूँ। भारतीय संविधान के दो बड़े पहलू हैं- पहला मूल अधिकारों के संरक्षण में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका और केंद्र राज्य संबंधों में तनाव की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय की ‘प्रारम्भिक अधिकारिता’। इन दोनों के बिना भारतीय संविधान दस साल भी ठहर नहीं सकता था। ये दोनों पहलू इस बात के प्रतीक हैं कि भारतीय संविधान बहुसंख्यकवाद को नकारने की घोषणा करता है।

    बहुसंख्यक, चुनावी राजनीति की वजह से कितने भी भाग्यशाली और शक्तिशाली हो जायें, लेकिन जब भी किसी के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद-19), जीवन के अधिकार (अनुच्छेद-21), उनके साथ समानता का व्यवहार (अनुच्छेद-14 से 18), उन्हें क़ानून के समक्ष समान समझा जाने का अधिकार और उन्हें उनके धर्म या संप्रदाय के आधार पर जीवन जीने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद-25 से 30) पर संकट आयेगा तो भारत का सर्वोच्च न्यायालय उनके संरक्षण में आने को बाध्य होगा। इसके अलावा केंद्र सरकार कितनी भी मज़बूत क्यों न हो जाये, कितने भी वोट और समर्थन क्यों ना हासिल कर ले, लेकिन जब भी वह राज्यों के अधिकारों और उनके संचालन में अनावश्यक हस्तक्षेप करेगी तो सर्वोच्च न्यायालय को बचाव में सामने आना होगा। अगर केंद्र अपने राज्यपालों के नाम से विपक्षी दलों की सरकारों को परेशान करने की कोशिश करेगी तो सर्वोच्च न्यायालय बार-बार बीच में आकर कभी एन रवि तो कभी आरिफ़ मोहम्मद को यह बताएगा कि वोट की शक्ति से लोकतंत्र की आत्मा नहीं नोची जा सकती।

    जस्टिस यादव से पूछा जाना चाहिए कि अगर ‘बहुसंख्यक’ के आधार पर देश का शासन चलाया जाएगा तो संख्या में बेहद कम तथाकथित उच्च वर्ण की जातियों के साथ क्या और कैसा व्यवहार किया जाए क्या शासन कैसे चलाया जाए यह अधिक संख्या में मौजूद ‘बहुसंख्यक’ अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ा वर्ग के लोगों से पूछकर तय किया जाना चाहिए संख्या में बेहद कम और बेहद धनवान अरबपति भारतीयों के साथ क्या और कैसा व्यवहार किया जाए, यह देश के ‘बहुसंख्यक’ गरीबों से पूछकर ही तय किया जाना चाहिए क्या ऐसा हो सकता है 

    जस्टिस यादव से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या इस तरह की बातें करने के लिए और इस तरह से देश चलाने के लिए भारत का संविधान बनाया गया था जज साहब को पता होना चाहिए कि भारत का संविधान ‘भारत के लोगों’ पर आश्रित है न कि भारत के बहुसंख्यक लोगों पर।

    जस्टिस यादव यह समझने में विफल हैं कि ‘न्याय की अवधारणा’ और ‘चुनाव की अवधारणा’ में अन्तर है। भारत में सबकुछ चुनाव और चुने हुए प्रतिनिधि तय नहीं कर सकते। इसीलिए यहाँ न ही संसद को बहुसंख्यकों का नेता बनाया गया है और न ही न्यायपालिका को। यहाँ सर्वोच्चता संविधान की है और संविधान अपनी ‘आधारिक संरचना’ तय कर चुका है जिसे किसी भी किस्म के बहुमत और ‘बहुसंख्यकों’ के समूह के द्वारा बदला नहीं जा सकता।    

    जस्टिस यादव का बयान बेहद बचकाना है। उन्हें असल में न्याय क्षेत्र में आना ही नहीं चाहिए था। अगर आ भी गए थे तो कम से कम उनके जैसे लोगों को न्यायधीश बनाये जाने से बचना चाहिए था। इनके जैसे न्यायधीश कभी ना मिटने वाले दाग छोड़कर जाते हैं जिनसे न्यायपालिका दशकों तक लज्जित महसूस करती है। इनके जैसे लोग राष्ट्रीय अखंडता पर भी ख़तरा बनते हैं क्योंकि इनके वक्तव्यों का इस्तेमाल करके समाज में असुरक्षा और अविश्वास का माहौल बनाया जाता है जो कि अंततः देश की समृद्धि और विकास को बाधित करता है।

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