जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में समाजशास्त्र के प्रोफेसर सुरिंदर एस. जोधका के अनुसार, हालांकि सिख धर्म स्पष्ट रूप से जाति को खारिज करता है। लेकिन सिद्धांत रूप में, सिख समुदाय और उसकी प्रथाओं के भीतर जाति-आधारित भेदभाव है। हालिया विवाद, जिनमें एक दलित सिख ज्ञानी हरप्रीत सिंह का अकाल तख्त के कार्यवाहक जत्थेदार के रूप में इस्तीफा और बहाली शामिल है, उनके खिलाफ जातिवादी टिप्पणियों के आरोपों के बीच, यह भी स्पष्ट करता है कि जाति पंजाब में राजनीतिक पहचान को कैसे शक्ल दे रही है।
जोधका ने सुधार और समावेशिता (inclusivity) की वकालत करते हुए इन विरोधाभासों को सुलझाने में सिख संस्थानों और व्यक्तियों के सामने आने वाली चुनौतियों की जांच की है। इस पेपर को मल्टीडिसिप्लिनरी डिजिटल पब्लिशिंग इंस्टीट्यूट (एमडीपीआई) ने 8 अक्टूबर को प्रकाशित किया है। ‘सिख धर्म और जाति के इर्द-गिर्द विवाद’ शीर्षक वाला यह पेपर सिख धर्म के समानता के मूलभूत सिद्धांतों और जाति-आधारित व्यवस्था की उपस्थिति के बीच तनाव का भी पता लगाता है।
इस पेपर में, उन्होंने उस प्रमुख नेरेटिव को चुनौती दी है जो “इसे (जाति) को एक विशुद्ध धार्मिक प्रथा के रूप में देखता है” और “जाति की भौतिकता को देखने की आवश्यकता” के लिए तर्क देता है।
यह पेपर एमडीपीआई द्वारा एक विशेष अंक – सिखी, सिख और जाति: वैश्विक संदर्भ में अनुभव – के हिस्से के रूप में प्रकाशित किया गया था, जो 390 से अधिक ओपन एक्सेस जर्नल प्रकाशित करता है।
जोधका लिखते हैं कि सिख धर्म में जाति की दृढ़ता के मुद्दे पर सिख नेताओं और विद्वानों की ‘स्पष्ट’ प्रतिक्रिया यह होती है कि यह प्रैक्टिस में नहीं है। यही उनकी आसान और सरल प्रतिक्रिया है। वह लिखते हैं, “इस प्रतिक्रिया की वजह से हमें सिखों के बीच इसके विविध अनुभव और इसकी अन्य प्रासंगिक बातों से जुड़ने की अनुमति नहीं देती है”। जबकि सिख धर्म समानता के सिद्धांतों पर स्थापित किया गया था, जो उस समय हिंदू समाज में प्रचलित जाति व्यवस्था को स्पष्ट रूप से खारिज करता था।
उन्होंने आगे कहा कि जाति भेद के खात्मे को बढ़ावा देकर, सिख धर्म अपने अनुयायियों को समानता का समाज बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है जहां सभी व्यक्तियों के साथ उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना सम्मान और करुणा के साथ व्यवहार किया जाता है। पेपर में लिखा गया है कि “हिंदू मंदिरों के विपरीत, सिख गुरुद्वारे सभी के लिए खुले हैं, और किसी को भी धार्मिक मंडली में शामिल होने से प्रतिबंधित नहीं किया गया है। सिखों में अमीर और गरीब हैं, लेकिन कोई इस आधार पर कोई भेदभाव नहीं है। सिखों में हिंदू धर्म में ब्राह्मणों की तरह पुरोहित या पंडे नहीं हैं।”
जोधका लिखते हैं, जाट सिखों और दलित सिखों (मज़हबी सिखों) के बीच एक महत्वपूर्ण विभाजन है, जाट सिख अक्सर धार्मिक और सामाजिक संस्थानों में प्रमुख स्थान रखते हैं। इससे अपनेआप एक भेदभाव कायम रहता है। सिख दर्शन और जातिगत गतिशीलता की वास्तविकताओं के बीच यह विरोधाभास सिखों के समतावादी आदर्शों के लिए आने वाली चुनौतियां हैं।
जोधका सिख धर्म के ऐतिहासिक संदर्भ के मद्देनजर बताते हैं कि जातिगत असमानताओं को मिटाने के इरादे से इसकी रूपरेखा तैयार की गई थी। वह लिखते हैं कि 1699 में गुरु गोबिंद सिंह द्वारा खालसा का गठन, जिसका उद्देश्य एक अलग सिख पहचान कायम करना था, उसने नए आधार तैयार किये। हालाँकि, जोधका इस बात पर जोर देते हैं कि सिखों में धार्मिक ढांचे के बावजूद, जाति सिख जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है, जिसमें विवाह, सामाजिक संपर्क और धार्मिक प्रथाएं शामिल हैं। विवाह प्रथाएं अक्सर जाति संबंधी विचारों को दिखाती हैं, जिसमें व्यक्ति अपने ही जाति समूह से साथी की तलाश करते हैं, जो समानता के सिख सिद्धांतों को कमजोर करता है। यानी जाट सिखों में मजहबी सिखों की शादियां नहीं होतीं। इसी तरह मजहबी सिखों में जाट सिख शादी नहीं करते हैं।
किसकी कितनी राजनीतिक ताकतः जोधका का पेपर इस बात पर चर्चा करता है कि जाति की पहचान पंजाब में राजनीतिक पावर और प्रतिनिधित्व को कैसे आकार देती है। जाट सिख, एक प्रमुख कृषि समुदाय है, जिसके पास महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति है, जो पर्याप्त राजनीतिक प्रभाव में तब्दील हो जाती है। दूसरी ओर दलित सिख हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने का सामना किया है, अपने अधिकारों की वकालत करने और अधिक से अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व पाने के लिए विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से एकजुट हुए।
पंजाब के राजनीतिक दलों में जाट सिखों का प्रभुत्व स्पष्ट है। 1966 के बाद से पंजाब के सभी 13 मुख्यमंत्री जाट सिख समुदाय से रहे हैं, केवल दो अपवादों को छोड़कर: ज्ञानी जैल सिंह (1972-77) और चरणजीत सिंह चन्नी (2021-) 22) जिन्हें कांग्रेस ने सीएम पद तक पहुंचाया है। दोनों सिखों के दलित समुदाय से हैं।
सिख गुरुओं ने हमेशा जाति का विरोध किया है। महान संत गुरुनानक देव ने तो समानता के आधार पर ही सिख धर्म को दिशा दी थी। लेकिन आज सिखों में समतावादी समाज की खोज एक सतत संघर्ष बन गई है। हालांकि आज भी सिखों में हिन्दुओं की जातियों की तरह कोई आंतरिक संघर्ष नहीं देखने को मिलता है। हिन्दुओं में जाति एक सच्चाई है। दलितों को वहां जिस तरह हाशिये पर ढकेला गया, हिन्दुओं की जाति व्यवस्था की कमजोरी का बताता है।