हमारे देश की एक बड़ी आबादी आज भी ऐसी है जो शहरों और महानगरों में आबाद तो है, लेकिन वहां शहर के अन्य इलाकों की तरह सभी प्रकार की सुविधाओं का अभाव होता है. शहरी क्षेत्रों में ऐसे इलाके स्लम बस्ती कहलाते हैं. यह बस्तियां अधिकतर खाली पड़े सरकारी ज़मीनों पर आबाद होती हैं. जहां सरकारी सुविधाएं तो होती हैं लेकिन आबादी का एक बड़ा हिस्सा इन सुविधाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाता है. यह बस्तियां केवल राजधानी दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों में ही नहीं होती हैं बल्कि बिहार की राजधानी पटना समेत देश की लगभग सभी राज्यों की राजधानी में आबाद होती हैं. इन बस्तियों में अधिकतर आर्थिक रूप से बेहद कमजोर तबका निवास करता है. जो रोजी रोटी की तलाश में गाँव से निकल कर शहर की ओर पलायन करता है. इनमें रहने वाले ज्यादातर परिवार दैनिक मजदूरी के रूप में जीवन यापन करता है. अक्सर ऐसी बस्तियों को मलिन बस्ती के रूप में भी चिन्हित किया जाता है.
Child crossing dangerous drain
साल 2011 की जनगणना के अनुसार देश में लगभग 1.23 लाख स्लम एरिया हैं जिनमें करीब 6.55 करोड़ की जनसंख्या निवास करती है. इनमें से अधिकतर बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा सहित कई मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहते हैं. ऐसी ही एक स्लम बस्ती बिहार की राजधानी पटना (Patna) स्थित गर्दनीबाग इलाके में भी आबाद है. बघेरा मोहल्ला के नाम से दर्ज यह बस्ती पटना हवाई अड्डे से महज 2 किमी दूर और बिहार हज भवन के ठीक पीछे स्थित है. ऐतिहासिक शाह गड्डी मस्जिद, (जिसे स्थानीय लोग सिगड़ी मस्जिद के नाम से जानते हैं), से भी इस बस्ती की पहचान है. इस बस्ती तक पहुंचने के लिए आपको एक खतरनाक नाला के ऊपर बना लकड़ी के एक कमजोर और चरमराते पुल से होकर गुजरना होगा.
यहां रहने वाली 80 वर्षीय रुकमणी देवी बताती हैं कि वह इस बस्ती में पिछले 40 सालों से रह रही हैं. इस बस्ती में करीब 250-300 घर हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 700 के करीब है. रुकमणी देवी की पहचान क्षेत्र में एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी रही है. जो इस बस्ती की महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ने का काम करती रही हैं. वह बताती हैं कि 1997 में सरकार ने इस बस्ती को स्लम क्षेत्र घोषित किया था. इस बस्ती में लगभग 70 प्रतिशत अनुसूचित जाति समुदाय के लोग आबाद हैं. जिनका मुख्य कार्य मजदूरी और ऑटो रिक्शा चलाना है.
रुकमणी देवी के अनुसार स्लम क्षेत्र घोषित करने के बाद राज्य सरकार की ओर से यहां विकास की कई योजनाओं को शुरू करने की घोषणा की गई थी ताकि यहां के रहने वालों के जीवन स्तर को सुधारा जा सके. उन्हें बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से विशेष काम भी किये जाने की बात कही गई, लेकिन इनमें से अधिकतर योजनाएं लागू होने की जगह फ़ाइलों में दब कर रह गई हैं. अलबत्ता शिक्षा के नाम पर बस्ती के एक किनारे में दो कमरों का एक प्राथमिक स्कूल संचालित है जहां एक से पांचवीं कक्षा के 30-35 बच्चों को मुफ़्त शिक्षा दी जाती है. स्कूल की शिक्षिका पुष्पा कुमारी बताती हैं कि इन्हीं दो कमरों में स्कूल का कार्यालय और कक्षाएं आयोजित की जाती है. यह स्कूल 1997 में स्थापित किया गया था. जहां बच्चों को मुफ़्त किताबें, कॉपियाँ और बैग उपलब्ध कराए जाते हैं. इसके अतिरिक्त उन्हें सरकार द्वारा निर्देशित मेनू के अनुसार मध्यान्ह भोजन भी उपलब्ध कराया जाता है.
Children eating mid-day meal in the open area
हालांकि स्कूल में बच्चों के लिए पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए वह भोजन के बाद अपने अपने घरों में जाकर पानी पीते है. इन बच्चों के भोजन के लिए अलग से कमरों की कोई व्यवस्था नहीं है, लिहाज़ा वह खुले आसमान के नीचे मैदान में उड़ते धूल के बीच ही भोजन करने को मजबूर होते है. स्कूल के प्रधानाध्यापक मुरारी कुमार बताते हैं कि कम सुविधा में भी बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए स्कूल की ओर से हर संभव प्रयास किये जाते हैं. बच्चों को खाने में पौष्टिक आहार के अलावा समय समय पर आयरन की गोलियां और कीड़े मारने की दवाईयां भी खिलाई जाती है. वह बताते हैं कि अनिधिकृत ज़मीन पर बस्ती और स्कूल होने के कारण इस क्षेत्र को बहुत जल्द खाली कराया जा सकता है. ऐसे में यहां पढ़ने वाले बच्चों को गर्दनीबाग के अन्य प्राथमिक विध्यालयों में शिफ्ट किया जा सकता है.
No boundry wall in primary school
प्रधानाध्यापक की बातों की पुष्टि करते हुए एक अभिभावक और स्थानीय निवासी 33 वर्षीय सीमा देवी कहती हैं कि वह लोग पिछले 30-40 सालों से इसी बस्ती में रह रहे हैं. यहां सुविधाओं की कई कमियां हैं. लोगों को नल से स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता है. यहां पीने के पानी के लिए एकमात्र हैंडपंप है. जिसका पानी गर्मियों में अक्सर नीचे चला जाता है, वहीं बारिश के दिनों में इसमें से गंदा पानी आता है. बस्ती के लोगों को स्वास्थ्य की सुविधा भी बहुत कम मिलती है. इसके बावजूद कोई इस बस्ती को छोड़कर जाना नहीं चाहता है.
वह बताती हैं कि बारिश के दिनों में नाले का पानी उफन कर बस्ती में घुस जाता है. जान बचाने के लिए लोग सड़कों के किनारे आश्रय बनाते हैं. सरकार और कई गैर सरकारी संगठनों की ओर से मदद भी की जाती है. नाली के आसपास सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं होने के कारण अक्सर इसमें दुर्घटना की संभावनाएं बनी रहती हैं. कई बार उफनते नाले में डूब कर बच्चों की मौत भी हो चुकी है. बस्ती की 45 वर्षीय रंजू देवी, रौशनी और गुड़िया कुमारी भी इस बस्ती के उजड़ने की खबर से परेशान नजर आई. वह कहती हैं कि हमें बताया गया है कि लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद हमें इस बस्ती को खाली करनी होगी. हालांकि उन्होंने इस संबंध में किसी प्रकार के लिखित आदेश मिलने से इनकार किया. उन्होंने बताया कि इस संबंध में स्थानीय वार्ड पार्षद भी उनकी किसी प्रकार मदद नहीं कर रहे हैं.
इस बस्ती के लोगों का कहना था कि एक जगह से दूसरी जगह पलायन करने से न केवल शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी परेशान करने वाली बात है. अनधिकृत बस्ती के नाम पर वैसे ही विकास के कार्य नहीं के बराबर होते हैं. ऐसे सरकार को चाहिए कि वह इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए ऐसी योजना तैयार करे जिससे न केवल स्लम बस्ती की समस्या का स्थाई समाधान निकल सके बल्कि ऐसे क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को विकास से जुड़ी सुविधाओं का समुचित लाभ भी प्राप्त हो सके.
यह भी पढ़ें
पर्यावरण बचाने वाले उत्तराखंड के शंकर सिंह से मिलिए
मिलिए हज़ारों मोरों की जान बचाने वाले झाबुआ के इस किसान से
देसी बीजों को बचाने वाली पुणे की वैष्णवी पाटिल
जवाई लेपर्ड सेंचुरी के आस-पास होते निर्माण कार्य पर लगते प्रश्नचिन्ह
पर्यावरण से जुड़ी खबरों के लिए आप ग्राउंड रिपोर्ट को फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और वॉट्सएप पर फॉलो कर सकते हैं। अगर आप हमारा साप्ताहिक न्यूज़लेटर अपने ईमेल पर पाना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें।