राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत को इस पर विचार करना चाहिए कि जब वे कोई भली बात कहते हैं तो क्यों उनके अनुयायी मुँह दबा कर और दूसरे ज़ोर ज़ोर से हँसने लगते हैं। आर एस एस के प्रमुख के मुँह से प्रेम, सद्भाव ,शांति जैसे शब्द सुनकर उनके अनुयायी एक दूसरे से कहते हैं कि यह सब हमारे लिए नहीं है, यह तो दुनिया को सुनाने के लिए कहा जा रहा है। दूसरे कहते हैं कि इनकी इन बातों का कोई मोल नहीं, इन लोगों का कोई भरोसा नहीं। दोनों ही कहते हैं कि पिछले 100 साल में जाने कितनी बार ये बातें कही हैं लेकिन किया ठीक इसके उलटा है।
आर एस एस का इतिहास और उसका आचरण यह बतलाता है कि उसका एक मुँह दुनिया की तरफ़ घूमा होता है और एक उसके अपने लोगों की तरफ़ मुड़ा होता है। वह गाँधी को माला पहनाता है और उनके हत्या के षड्यंत्रकर्ता को अपना आदर्श बतलाता है।क्या आर एस एस के पदाधिकारी या अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी या नरेंद्र मोदी भारत से बाहर कहीं अपने परिचय में यह कहने का साहस कर सकते हैं कि हम तो गोलवलकर और सावरकर के शिष्य हैं जिनके आदर्श फ़ासिस्ट थे उन्हें हर जगह सुनना पड़ता है कि आप गाँधी के देश के हैं और मन मारकर गाँधी का गुणगान करना होता है।
इसके बावजूद भली या अच्छी बात का अपना वजन होता है। इसलिए जब संभल में शाही मस्जिद , अजमेर की दरगाह शरीफ़ और कोई दस मुसलमान इबादतगाहों और स्मारकों पर दावा पेश किए जाने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि मस्जिदों को मंदिर बनाने का अभियान रुकना चाहिए तो सबने उसका स्वागत किया। भागवत का कहना है कि राम मंदिर बन जाने के बाद अगर कोई समझने लगा है कि ऐसे विवाद पैदा करके वह हिंदुओं का नेता बन जाएगा। भागवत इससे बहुत नाराज़ मालूम पड़े। उन्होंने यह भी कहा हम लंबे अरसे से सौहार्दपूर्वक रहते आए हैं। सबको अपने तरीक़े से उपासना का अधिकार है। हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे शांति, सौहार्द भंग हो।
भागवत के बयान का स्वागत उन सबने किया है जो आर एस एस के आलोचक या विरोधी हैं। क्योंकि कम से कम यह बात तो वे ठीक कह रहे हैं। लेकिन क्या यह आश्चर्य की बात है कि अगर कहीं से उनकी इस बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है तो ख़ुद उनके अपने लोगों के बीच से उनकी राजनीतिक शाखा, भारतीय जनता पार्टी या विश्व हिंदू परिषद अथवा बजरंग दल के किसी पदाधिकारी ने भागवत की शांति, प्रेम की बात का स्वागत नहीं किया है। इसका क्या मतलब है जब भागवत अमन, मेल-ज़ोल जैसी बातें कर रहे थे, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बयान दिया कि सनातन धर्म ही भारत का राष्ट्रीय धर्म है। इसका मतलब तो यही है कि भागवत जब समाज में तनाव घटाने की बात कर रहे हैं, उसी समय उनके लोग समाज में तनाव और हिंसा बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं।
उनकी शांति की अपील के स्वागत की बात तो दूर, आर एस एस के मुसलमान विरोधी विचार को मानने वालों में कई खुलेआम उन्हें मुँह बंद रखने की सलाह दे रहे हैं। एक्स (ट्विटर) पर आर एस एस के व्यापक हिंसक पर्यावरण के सदस्यों में से कुछ ने लिखा कि उन्हें भ्रम छोड़ देना चाहिए कि वे हिंदुओं के एकमात्र नेता और प्रवक्ता हैं। वे कौन होते हैं हमें बताने वाले कि हम किस मस्जिद पर दावा करें, किस पर नहीं कोई कह रहा है कि क्यों अयोध्या में राम मंदिर ज़रूरी है और संभल में हरिहर मंदिर नहीं। यह तय करने वाले भागवत कौन
भागवत के इस बयान को आर एस एस के बाहर जिस प्रकार प्रचारित किया गया, ख़ुद उनके मुखपत्रों में नहीं। उनके मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ ने अनेक वक्तव्य की सुर्ख़ी लगाई:’भारत सनातन है…”। जिस बयान को लेकर बाहरी दुनिया बहुत उत्साहित है, उसे ‘ऑर्गनाइज़र’ ने इस प्रकार उद्धृत किया है: “हम अनादि काल से एक दूसरे के साथ सद्भाव से रहते आए हैं।हिंदुओं में अपने धार्मिक स्थलों के प्रति गहरी भावना है। लेकिन क्या होगा अगर हम उन भावनाओं के कारण रोज़ एक नया मुद्दा उठाते रहें। यह नहीं चल सकता।”
आर एस एस के हिंदी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ में तो इतना भी नहीं छापा गया। इसका अर्थ यही है कि ख़ुद भागवत के लोग शांति क़ायम करने की उनकी छोटी सी इच्छा को भी प्रचारित नहीं करना चाहते। क्योंकि जैसे बुरे की संगत बुरा बनाती है, अच्छी बात की भी छूत लग सकती है। आर एस एस के लोगों को शांति, सद्भाव जैसी बातों के संक्रमण से बचाना बहुत ज़रूरी है।
जिस भाषण में भागवत ने जगह-जगह मंदिर खोजने की बीमारी पर नाराज़गी दिखलाई, उसी में उन्होंने कहा कि कुछ विचारधाराएँ बाहर से आईं वे पारंपरिक रूप से दूसरों के प्रति असहिष्णु रही हैं। उन्होंने कभी इस देश पर शासन किया था, इसलिए वे सोचती हैं कि वे फिर से इस देश पर हुकूमत कर सकती हैं। लेकिन भारत संविधान से चलता है।
भागवत ने यह नहीं बतलाया कि ऐसी कौन सी बाहर से आई विचारधारा है जो आज भारत पर हुकूमत की सोच रही है। आज अगर कोई एक विचारधारा उछल-उछलकर भारत पर आपने एकछत्र शासन की बात कर रही है तो वह आर एस एस की ‘सनातन’ विचारधारा है। आख़िर उन्हीं के प्रिय आदित्यनाथ ने कहा है कि सनातन भारत का राष्ट्रीय धर्म है। फिर संविधान के शासन की बात करना क्या मज़ाक़ नहीं है
भागवत अपने इसी वक्तव्य में कहते हैं कि हम तो दूसरों को उनके धर्म के साथ स्वीकार करते हैं लेकिन बार-बार हमारी पीठ में छुरा घोंपा गया। जब मेलजोल होने लगा था तब औरंगज़ेब ने दारा शिकोह को मार कर आख़िरी बार तब छुरा घोंपा। फिर असहिष्णुता की लहर आई।
भागवत कहते हैं कि हमें दूसरों को गले लगाना चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि श्रेष्ठता हीनता का भाव छोड़ देना चाहिए। असहिष्णुता छोड़ देनी चाहिए। असहिष्णुता त्यागने की सलाह वे किसे दे रहे हैं इसका मतलब यह तो है ही कि वे मानते हैं कि देश में असहिष्णुता है। वह कौन किसके प्रति दिखला रहा है यह भागवत साफ़ नहीं करते।
भागवत कहते हैं कि हम (यानी) हिंदू तो स्वभावतः उदार और सहिष्णु हैं। फिर कौन असहिष्णुता दिखला रहा रहा है कौन मुसलमानों की नमाज़ पर हमला कर रहा है कौन उनके घर में घुसकर में फ्रिज खोलकर देख रहा है कि वे क्या खा रहे हैं कौन मुसलमान लड़कियों या औरतों के हिजाब पहनने के कारण उनपर हमला कर रहा है कौन मुसलमानों के घरों में घुसकर भगवा झंडा गाड़ रहा है कौन उन्हें पीट पीट कर ‘जय श्रीराम’ के नारे लगवा रहा है कौन मुसलमानों की हत्या करने, उन्हें काट डालने के नारे लगा रहा है कौन ईसाइयों के घर, चर्च में घुसकर उनपर हमला कर रहा है
अगर हम सब एक हैं और हमें एक दूसरे को अपनाना चाहिए तो कौन है जो हिंदू-मुसलमान शादियों पर आक्रमण कर रहा है क्या ये असहिष्णुता के नमूने नहीं हैं क्या यह सच नहीं है कि आज भारत में असहिष्णुता की लहर नहीं, उसका ज्वार है इस असहिष्णुता का स्रोत कहाँ है
ज़ाहिर है भागवत इन सबकी बात नहीं करेंगे क्योंकि इस असहिष्णुता का स्रोत ख़ुद आर एस एस की विचारधारा है। ख़ुद को दुनिया भर में सबसे श्रेष्ठ, ख़ुद को विश्वगुरु मानने का जाप दिन रात उनकी शाखाओं , उनके बौद्धिकों, उनके कार्यक्रमों में किया जाता है। यह भाषण भी वे जिस सभा में दे रहे थे उसका विषय था ‘विश्वगुरु’ भारत। यह तो अच्छा है कि भारत के बाहर इस तरह के आयोजनों की खबर नहीं जाती वरना सब पूछते कि कौन मूर्ख है जो विश्वगुरु होने का दावा कर रहा है।
एक तरफ़ भागवत अपने -पराए का भेद भुलाने की सलाह दे रहे हैं, दूसरी तरफ़ यह भी कह रहे हैं कि ख़ुद इतने मज़बूत हो जाओ कि कोई तुम्हें डरा न सके। कौन किसको डरा रहा है अगर हिंदू मुसलमान सिख ईसाई सब एक हैं तो हिंदुओं को किससे न डरने की सलाह दी जा रही है
मोहन भागवत में अगर रत्ती भर भी इंसानियत और ईमानदारी है तो वे इसपर ज़रूर विचार करेंगे कि उनके लोगों को छोड़कर बाक़ी सबने उनके वक्तव्य के उस हिस्से की तारीफ़ क्यों की जिसमें वे मंदिर-खोजो अभियान बंद करने का इशारा करते हुए दिख रहे हैं और क्यों उनके लोगों ने यह बात सुनी ही नहीं
यह मानने का जी नहीं चाहता कि जो मनुष्य के रूप में पैदा हुआ और पला बढ़ा वह पूरी तरह मनुष्यता से शून्य होगा। लेकिन ऐसे लोग होते हैं और हुए हैं। हमारे सामने इस्राइल की बहुसंख्यक जनता और नेतन्याहू जैसे लोग हैं जिन्हें इंसानियत छू तक नहीं गई है। हिटलर, माओ, स्टालिन के उदाहरण पीछे से झाँक रहे हैं। फिर भी हम मानते हैं कि चूँकि चारों तरफ़ इंसानियत के उदाहरण हैं, वह किसी न किसी तरह, कभी न कभी ऐसे लोगों को भी संवेदित कर सकती होगी। हम सब बुरी तरह चाहते हैं कि बुरा आदमी किसी तरह भला हो जाए। भागवत के बयान का स्वागत इसी इंसानी इच्छा की अभिव्यक्ति है। लेकिन उनके लोगों की प्रतिक्रिया से वह गीत याद आता है जिसे थोड़ा बदल कर कहा जा सकता है कि शांति, सद्भाव, एकता, सब बातें हैं, बातों का क्या!