अमेरिकी जनता अपने 47 वें राष्ट्रपति के चुनाव के लिए नवम्बर के प्रथम सप्ताह में मतदान करेगी. अब तक के चुनाव- प्रचार से उभरते संकेतों से भारतीय मूल की उपराष्ट्रपति और डेमोक्रैट प्रत्याशी कमला हैरिस के इतिहास निर्माता के रूप में उभरने के आसार दिखाई दे रहे हैं. रिपब्लिकन पार्टी के पूर्व उप राष्ट्रपति डिक चेनी ने भी घोषणा की है कि वे कमला हैरिस को अपना वोट देंगे. वे अपनी पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प को वोट नहीं देंगे. निश्चित ही इसका प्रभाव मतदाताओं पर पड़ेगा. वैसे भी रिपब्लिकन पार्टी के कई नेताओं और युवा समर्थकों में हैरिस के प्रति रुझान बढ़ता जा रहा है. ट्रम्प की जीत का मार्ग अब आसान नहीं रहा है. वे जीत के लिए चरम दक्षिणपंथी और श्वेत वर्चस्ववादियों को सक्रिय करने की कोशिश करेंगे. याद रहे, 2020 में जब ट्रम्प राष्ट्रपति का चुनाव डेमोक्रैट प्रत्याशी जो बाइडन से हार गए थे, तब उन्होनें अपने समर्थकों को वाशिंगटन में कैपिटल स्थित अमेरिकी संसद पर हमला करने के लिए उकसाया था. अदालत तक यह केस पहुंच चुका है. कई आरोपों के कटघरे में खड़े हैं पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प. यह एक पहलू है चुनाव का।
लेकिन, चुनाव के सम्बन्ध में कुछ बातें हमें साफ़तौर पर समझ लेनी चाहिए. इस चुनाव में डेमोक्रेट पार्टी की प्रत्याशी , निवर्तमान उपराष्ट्रपति व भारतीय मूल की कमला हैरिस और रिपब्लिकन पार्टी के खिलंदड़ी प्रत्याशी रोनाल्ड जे. ट्रम्प में से कोई भी जीते, अमेरिका की विश्व वर्चस्ववादी नीति यथावत रहेगी. इसमें आधारभूत अंतर आने की क्षीण सम्भावना है. किसी भी पार्टी के विजयी प्रत्याशी में न तो क्षमता होगी, और न ही इच्छाशक्ति कि वह अमेरिका के वर्तमान भू-राजनैतिक-आर्थिक-सामरिक स्थिति में किसी भी प्रकार का गुणात्मक परिवर्तन ला सके. इसकी वजह साफ़ है. अमेरिका का विश्व वर्चस्व का स्वप्न पुराना है.
दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ ही इसने विश्व विजेता बनने की तैयारी शुरू कर दी थी. शीत युद्ध काल (1945-1991) के दौरान इसने अपनी रणनीति को अंजाम दिया और सोवियत संघ के पतन के साथ ही विश्व एकल ध्रुवीय शक्ति में बदल गया. दूसरे शब्दों में, अमेरिका का एक छत्र विश्व वर्चस्व स्थापित हो गया.विगत तीन दशकों में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के तीन तीन राष्ट्रपति ( बुश सीनियर , बुश जूनियर, ट्रम्प; बिल क्लिंटन , बराक ओबामा और जोई बाइडन ) हो चुके हैं. इन सभी राष्ट्रपतियों के शासन कालों में अमेरिकी स्थिति में तनिक भी अंतर नहीं आया है और वर्चस्व यथावत रहा है. उदाहरण के लिए, नाटो अभंग है जबकि वारसा संधि इतिहास बन चुकी है ; दूसरी खाड़ी जंग ख़त्म, लेकिन इराक़ अशांत; 2002 से 2022 तक अफगानिस्तान जंग जारी रही रही ; अशांत पश्चिम एशिया; हमास और इजराइल जंग ; तालिबान व अल क़ायदा संगठन के बाद आतंकवादी इस्लामिक स्टेट का उदय ;ईरान के साथ तनातनी; रूस -यूक्रेन जंग ; दो या बहु ध्रुवीय विश्व का विरोध.अमेरिका के किसी भी राष्ट्रपति में इस भू-राजनीतिक-सामरिक परिदृश्य को बदलने की दुस्साहसिकता दिखाई है, ऐसा दिखाई नहीं देता.
वैसे यह असंभव भी लगता है। क्योंकि अमेरिका का विख्यात ‘ मिलिट्री इंडस्ट्रियल काम्प्लेक्स ‘ इस पर जिंदा है.. निजी क्षेत्र के इस उद्योग से लाखों अमेरिकियों का जीवन-मरण जुड़ा है. इसमें कटौती का सीधा परिणाम होगा अमेरिका में रोज़गार-संकट व राजनीतिक संकट को निमंत्रण देना. यह जोखिम कोई भी राष्ट्रपति मोल नहीं लेना चाहेगा इसलिए आतंकवाद के नाम पर क्षेत्रीय जंग, स्थानीय लड़ाइयां जारी रहेंगी. ज़रुरत हुई तो नए मोर्चे खोलने में भी अमेरिका संकोच नहीं करेगा क्योंकि उसे हर कीमत पर अपना वैश्विक दबदबा बनाये रखना है. लेकिन, आर्थिक ,राजनैतिक और राजनयिक यथार्थ यह भी है कि इस सदी की पहली चौथाई में चीन ने अमेरिका के सामने अभेद्य-सी चुनौती खड़ी कर दी है. इसका असर भारत सहित दक्षिण एशिया में भी दिखाई देने लगा है. इस पृष्ठभूमि में अमेरिका के ताज़ा चुनाव होने जा रहे हैं.
इसी सन्दर्भ में गोरतलब यह भी है कि दोनों ही पार्टियों के प्रत्याशी अपने अपने भाषणों में “ अमेरिका महान”, “ अमेरिका शताब्दी” के नारे उछालते हैं. दोनों दलों के अधिवेशनों में हुए भाषणों का एकमात्र स्वर भी यही रहा कि वर्तमान शताब्दी ‘ अमेरिका की शताब्दी’ रहेगी. इसके विश्व नेतृत्व पर कोई आंच नहीं आने दी जायेगी. इसे अक्षुण रखा जायेगा. आतंकवाद के खिलाफ जंग जारी रहेगी. चिंता की बात यह है कि किसी भी दल और उसके प्रत्याशी ने दो दो खाड़ी जंगों में हुए युद्ध अपराधों, अफगानिस्तान से पराजित लक्ष्यों के साथ लौटना जैसी महा गलतियों आदि के लिए क्षमा याचना और भूल सुधार का वादा तक नहीं किया. .इससे साफ़ है कि अमेरिका और उसके मित्र नाटो राष्ट्रों को खाड़ी जंग या अफगानिस्तान जंग के लिए कोई पछतावा नहीं है.
व्हाइट हाउस का निवासी हैरिस या ट्रम्प में से कोई भी बने, अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के बुनियादी चरित्र में अंतर आएगा, इसकी सम्भावना कम दिखाई देती है.
संयोग से यह लेखक तीन दफे (2007, 2012 और 2016 ) राष्ट्रपति चुनाव के माहौल में अमेरिका में रहा है. तीनों बार दोनों दलों के प्रत्याशियों ( बराक ओबामा-, जॉन मकैन; ओबामा – रोमनी; क्लिंटन- ट्रम्प) ने अमेरिका की परंपरागत विदेश नीतियों में परिवर्तन की घोषणा नहीं की. किसी ने यह भी वादा नहीं किया कि संयुक्त राष्ट्र संघ को अधिक लोकतान्त्रिक बनाया जायेगा,उसकी सबसे महत्वपूर्ण संस्था -सुरक्षा परिषद् का विस्तार किया जायेगा, अंतरराष्ट्रीय वितीय शस्त्रों ( विश्व बैंक,मुद्रा कोष ,विश्व व्यापार संगठन ) के माध्यम से गरीब व विकाशील देशों की बाँहों का मरोड़ना बंद होगा.बल्कि, तीनों दफे एक ही राग सुनायी दिया – अमेरिका महान…अमेरिका महान…
इसलिए भारत जैसे विकासशील राष्ट्र सहित तीसरी दुनिया के लोगों को इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि भारतीय मूल की कमला हैरिस या श्वेत नस्ल के ट्रम्प में से किसी के भी राष्ट्रपति बन जाने से अमेरिका उनके प्रति अधिक उदार हो जायेगा या अदृश्य नवउपनिवेशवाद या नवसाम्राज्यवाद की रणनीति को दफना दिया जायेगा.
अमेरिकी राजसत्ता के चरित्र में कोई तब्दीली नहीं आयेगी.उसका राष्ट्रों के आन्तरिक व बाह्य मामलों में हस्तक्षेप जारी रहेगा . जब भी कोई राष्ट्र उसके राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध जायेगा ,वह उसे दण्डित करने में संकोच नहीं करेगा. गौरतलब यह है कि जहां अमेरिका महान व नरम राष्ट्रवाद और उदार लोकतंत्र की बातें होती हैं,वहीं ट्रम्प चरम राष्ट्रवाद, अंधराष्ट्रवाद, युद्धोंम्माद,महान अमेरिकीवाद के नारे उछालते हैं.उनके नारों में “ सभ्यताओं का टकराव” की अवधारणा की गंध उठती है.
यह वह अवधारणा है जिसे अमेरिकी विद्वान् समूएल पी. हंटिंग्टन ने अपनी बहु चर्चित पुस्तक “ सभ्यताओं का टकराव -उदित होती एक नयी विश्व व्यवस्था” में प्रस्तुत किया था.सबसे पहले 1989 -90 में उन्होंने एक लेख के माध्यम से अपनी इस अवधारणा को विश्व के सामने रखा था. . इसके पश्चात 1995 -96 में इसे एक मुक्कमल पुस्तक का रूप दिया गया, जिसमें उन्होंने विभिन्न व विपरीत सभ्यताओं के देशों के मध्य टकराव की वैचारिकी सामने रखी.
इस अवधारणा के केंद्र में ईसाई और इस्लामी राष्ट्रों को रखा गया है. क्या इसे भी इत्तेफाक कहना चाहिये कि जब एक ओर सभ्यताओं के टकराव की अवधारणा पर बहस शुरू होती है,दूसरी तरफ पहली खाड़ी जंग की पृष्ठभूमी तैयार होने लगती है. पुस्तक प्रकाशन के बाद अफगानिस्तान का संकट गहराने लगता है, तालिबान व अल कायदा भस्मासुर बनने लगते हैं, 2001 में न्यूयॉर्क की दो इमारतों पर हमला होता है,2002 में अफगानिस्तान पर चढ़ाई और 2003 में सद्दाम के देश इराक़ पर चढ़ाई. क्या इन तमाम घटनाओं को महज इत्तेफाक समझा जाना चाहिये इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में ट्रम्प अपने भाषणों में इस्लामी तनाव को जमकर उछालते रहते हैं , जिससे मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध घृणा की लकीरें दूसरे समुदायों में उभरती हैं,विशेष रूप से हिंदुत्त्वादी अनिवासी भारतियों में.इस लेखक ने बोस्टन,न्यूयार्क , न्यू जर्सी, जैक्सन हाइट जैसे क्षेत्रों के लोगों में इन प्रवृतियों को देखा. यही प्रवृतियां दो वर्ष पहले लेखक की पिछली यात्रा में दिखाई दीं। जब जब ट्रम्प कथित मुस्लिम आतंकवादियों के खिलाफ बोलते हैं, इन लोगों को खुशी होती है. इन्हें भरोसा है की ट्रम्प के आने से मुस्लिम आप्रवासियों पर लगाम कसेगी. दिखाई यह भी दिया कि न्यूयॉर्क से सटे क्षेत्रों में बांग्लादेश के आप्रवासियों को लेकर अनिवासी भारतियों, विशेषरूप निचले स्तर में असंतोष है.यह था अमेरिका के चरित्र का चिरपरिचित रूप.
लेकिन, वर्तमान चुनावों का परिदृश्य विगत की तुलना में ज़रूर बदला हुआ है. अमेरिकियों में उदार लोकतंत्र या लिबरल डेमोक्रेसी को लेकर अपार प्रेम है. वे इसे किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहते हैं. दिलचस्प जानना यह है कि अमेरिका सत्ता प्रतिष्ठान विदेशी मोर्चे पर कुछ भी करे, राष्ट्रों पर दादागीरी ज़माता रहे, इससे जनता कम चिंतित रहती है.
पर घरेलू मोर्चे पर राजसत्ता का चरित्र लोकतंत्रवादी रहना ही चाहिए. इस दृष्टि से आज अमेरिका में ‘उदार लोकतंत्र बनाम रूढ़ीवादी लोकतंत्र’ के बीच जंग है. उदारलोकतंत्र की प्रखर प्रतिनिधि के रूप में कमला हैरिस को देखा जा रहा है, वहीँ निरंकुश व रूढ़िवादी या अनुदारवादी लोकतंत्र का चेहरा डोनाल्ड ट्रम्प हैं. शायद इसीलिए पूर्व उपराष्ट्रपति चेनी का कहना है ,” हमारे राष्ट्र के 248 सालों के इतिहास में कोई भी एक व्यक्ति हमारे गणतंत्र के लिए इतना बड़ा खतरा नहींबना है जितना की डोनाल्ड ट्रम्प है.”. यही कथन भारतीय सन्दर्भ में भी लागू हो सकता है; शायद इसलिए लोकतंत्र व संविधान की रक्षा की ज़रुरत महसूस की जा रही है.
ट्रम्प के मुस्लिम आप्रवासी कथनों के सन्दर्भ में यह भी याद रखें, डेमोक्रेट के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा आधे मुस्लिम थे, इसलिए वे मुस्लिम आप्रवासियों के प्रति वे नरम माने जाते रहे हैं. हिलेरी .क्लिंटन को भी उदार व नरम माना गया था , जबकि ट्रम्प सख्त रहे और जीते भी थे. . वे मुसलमानों से चिढ़ते हैं. हालाँकि अमेरिका की पूर्व प्रथम महिला प्रत्याशी क्लिंटन भारतियों में लोकप्रिय मानी जाती रही हैं.. क्लिंटन की आप्रवासन नीति से दक्षिण एशियाई समाज को फायदा होगा, ट्रम्प ने इसे प्रचारित भी किया था.
तब कुछ पत्रिकाओं ने लिखा भी था कि ट्रम्प की नीति मुस्लिमों के विरुद्ध ही नहीं, अमेरिकी संविधान के खिलाफ भी है. प्रचार यह भी हुआ कि ट्रम्प के शासन में जहाँ अमेरिकी भारतियों का जीवन स्तर ऊंचा होगा, वहीं भारत को भी लाभ होगा. भारतीय समुदाय के समृद्ध वर्ग का झुकाव ट्रम्प के प्रति लगता है. यही वर्ग हिंदुत्त्वादी शक्तियों का समर्थक भी है. पिछले चुनावों में इस्लाम व मुस्लिम समुदाय का सवाल इस स्तर पर नहीं उठा था जितना इस चुनाव में दिखाई देता है. लगता है, इस सवाल पर भारतीय समुदाय विभाजित है. फिर भी , डोनाल्ड जे. ट्रम्प के मुकाबले में कमला हैरिस को कुछ पग आगे माना जा रहा है.
यह सही है हैरिस ट्रम्प के बीच टक्कर काफी तगड़ी है. वैसे हैरिस भी एक उस्ताद राजनीतिक खिलाड़ी हैं और उपराष्ट्रपति के रूप में प्रशासनिक अनुभव से लैस भी हैं. इसके विपरीत ट्रम्प इस अखाड़े में तीसरी बार खड़े हुए हैं.. यह कल्पना किसी ने नहीं की थी कि एक विवादास्पद और अहंकारी व्यापारी ट्रम्प विश्व विख्यात राजनीतिक हस्ती के रूप में उभरेगा और लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए एक खतरे के रूप में देखा जायेगा.
वास्तव में, अमेरिकी चुनाव में उदारवादी लोकतंत्र की रक्षा का मुद्दा प्रमुखता से उभरा हुआ है. लेकिन, कमला ने कुछ बुनियादी समस्याओं को भी उठाया है, जिसमें शामिल हैं बेरोज़गारी, आवास, मध्य वर्ग का जीवन स्तर, स्वास्थ्य स्थिति आदि. रोचक तथ्य यह है कि ट्रम्प ने कमला की आलोचना करते हुए कहा कि वे जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठा कर समाजवाद, पूर्व सोवियत संघ की नीतियां को लाना चाहती हैं. कमला की आलोचना के चक्कर में उन्हें कार्ल मार्क्स तक याद आ गया. विरोधी प्रत्याशी पर मार्क्सवादी होने का तमगा चस्पा दिया.
यह बेहद हास्यास्पद प्रोपेगंडा है. इसकी वज़ह यह है कि आज भी अमेरिका में काफी हद तक समाजवादी व साम्यवादी या वामपंथी अछूत समझे जाते हैं। इसी प्रोपेगंडा से वरिष्ठ डेमोक्रेट नेता बर्नी सैंडर्स को भी घेरा जाता है. जब भी कोई नेता आम जन के हितों की बात करता है, उसे अविलम्ब वामपंथी घोषित कर दिया जाता है. चरम दक्षिणपंथियों का यह अचूक हथियार है.इस लेखक की प्रोफेशनल और निजी यात्राओं के यही अनुभव हैं. और डोनाल्ड ट्रम्प अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ इस हथियार का इस्तेमाल थोक के भाव करते आ रहे हैं. उनके निशाने पर अब कमला हैरिस हैं.
2024 के चुनावों में अमेरिकी प्रवासी भारतीयों को विभाजित माना जा रहा है. पिछले चुनावों में ‘ ट्रम्प भक्त’ थे. इन भक्तों में बहुमत उन लोगों का रहा है जो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी परम अंध भक्त रहते आये हैं.. बड़ी बड़ी सभों के आयोजनों में भक्तों की सक्रिय भूमिका रहती है. लेकिन, अब प्रवासी भारतियों को विभक्त मन जा रहा है; एक बड़ा हिस्सा हैरिस की तरफ़ भी झुकता जा रहा है. यदि कमला हैरिस चुनाव जीतती हैं तो जहां वे अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति होने का इतिहास बनाएगीं,वहीं उन्हें भारतीय मूल की प्रथम अमेरिकी नागरिक होने का गर्व भी प्राप्त होगा. इससे भारत की गरिमा बढ़ेगी.
भारत में आये दिन भाजपा और अन्य हिंदुत्ववादी तत्व कांग्रेस की शिखर नेता सोनिया गांधी को लेकर ‘विदेशी महिला’ का प्रचार शुरू कर देते हैं. कमला की जीत के बाद वे ‘लुटे-पिटे’ नज़र आएंगे. निश्चित रूप से कमला- जीत का प्रभाव अमेरिकी सीमाओं से बाहर जायेगा. उदार लोकतंत्र के लिए चल रही बयार को कुछ बल मिलेगा.
कमला हैरिस कह चुकी हैं कि वे ओबामा और बाइडन की उन नीतियों को जारी रखना चाहेंगी, जिनका सीधा लाभ मध्य वर्ग और आमजन को पहुँचता है. यह जानना भी रोचक है कि विपक्ष के नेता राहुल गांधी अमेरिकी दौरे पर हैं. चुनाव -प्रचार के आरंभिक चरण में राहुल गांधी का वहां होने स्वयं में महत्वपूर्ण है क्योंकि वे भी लिबरल डेमोक्रेसी के पक्षधर और फासीवादी ताक़तों के विरुद्ध सतत संघर्षरत हैं. ज़ाहिर है, प्रवासी या अनिवासी भारतियों के एक हिस्से पर ज़रूर प्रभाव पड़ेगा. हालाँकि,
महीने के अंतिम चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यांकी-देश पहुँच रहे हैं. उनका ट्रम्प- प्रेम जग ज़ाहिर है. लेकिन,उनकी इस यात्रा में ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार ‘ का नारा गूंजेगा, इसकी सम्भावना कतई नहीं है. वे अमेरिका में ट्रम्प के साथ खुल्ल्मखुल्ला खड़े हो कर दुबारा अपनी छवि-किरकिरी करवाने से बचेंगे. यदि वे ऐसा करते हैं तो घरेलू मोर्चे पर इसका बुरा असर पड़ेगा;दक्षिण भारत की जनता से भाजपा का अलगावीकरण बढ़ेगा.