भोपाल से लगभग 360 किमी दूर स्थित सिवनी जिले का बिनेकी गांव। ट्रेन से यहां आते हुए दोनों ओर हरे खेत दिखाई पड़ते हैं। मगर बिनेकी गांव में दाखिल होते ही नज़ारा बदल जाता है। गांव में अधिकतर खेत खाली पड़े हुए हैं।
इसी गांव में दूर से ही एक लंबी चिमनी वाला कारखाना दिखाई देता है। यह झाबुआ पॉवर प्लांट है।
600 मेगावाट का यह कोयला आधारित थर्मल पॉवर प्लांट स्थानीय किसानों के लिए मुसीबत का सबब बना हुआ है। उनका आरोप है कि प्लांट से निकलने वाली राखड़ यानि राख (ash) से उनके खेत प्रभावित हुए हैं। इससे स्थानीय प्राकृतिक नाला भी प्रदूषित हुआ है। गोड़े नाला नाम के इस नाले पर किसान, पक्षी और जानवर सभी निर्भर हैं।
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प्लांट का दावा, खेत ‘रीक्लेम’ किए मगर ज़मीनी हकीकत जुदा
मनिराम (65) पहले 2.5 एकड़ में खेती करते थे। वह खरीफ़ के दिनों में धान और रबी के सीजन में गेहूं बोते थे। मगर बीते 3 सालों से उनका खेत खाली पड़ा हुआ है। वह कहते हैं,
“राखड़ पुरने (गिरने) लगी तो दाना ही नहीं उगता था इसलिए अब खेत ऐसे ही (खाली) पड़ा हुआ है.”
मनिराम का खेत गोड़े नाला के किनारे स्थित है। वह कहते हैं कि प्रदूषण के चलते उनकी फसल बार-बार खराब हो रही थी इसलिए उन्होंने अब खेत खाली छोड़ दिया है। मनीराम के परिवार में कुल 5 सदस्य हैं। उनके इकलौते बेटे की 5 साल पहले लकवा की बिमारी के चलते मृत्यु हो गई।
मनिराम अब अपने परिवार की आजीविका के लिए मजदूरी करते हैं। उन्हें एक दिन में 200 से 300 रूपए मिलते हैं। जब हम उनसे पूछते हैं कि उनका घर कैसे चलता है? वह कहते हैं,
“साब, सबई जाते हैं तो थोड़ी-थोड़ी (पैसा) लाते हैं.”
उनके 2 नाती (grandson) हैं, दोनों गांव से 126 किमी दूर जबलपुर में मजदूरी करते हैं। यही हाल उनकी बहू का भी है। गांव के कई किसान हमें ऐसी ही कहानी बताते हैं।
गोरखपुर-बरेला गांव की सीमा में आने वाले इस प्लांट का संचालन नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन (NTPC) द्वारा किया जा रहा है। यह प्लांट कोयले से बिजली उत्पादित करता है। मगर ऊर्जा के लिए कोयले को जलाने के बाद राख (ash) बच जाती है। यह दो तरह की होती हैं- एक फ्लाई ऐश और दूसरा बॉटम ऐश। फ्लाई ऐश बेहद महीन राख का पाउडर होता है। वहीं बॉटम ऐश प्लांट के बोईलर की तली में इकठ्ठा होने वाली राख के ढेलों को कहा जाता है।
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झाबुआ पॉवर प्लांट के पर्यावरण विभाग के अनूप श्रीवास्तव बताते हैं कि प्लांट द्वारा फ्लाई ऐश का इस्तेमाल 4 जगहों में किया जाता है।
“नियमों के अनुसार प्लांट इसे हाइवे निर्माण में, सीमेंट उत्पादन में, ईंट के निर्माण में और बंजर भूमि को ‘रीक्लेम’ करने में इस्तेमाल कर रहा है.”
दरअसल यह माना जाता है कि राख में मौजूद सोडियम, पोटेशियम और जिंक जैसे कई तत्व फसलों की उत्पादकता बढ़ा सकते हैं। इसलिए बंजर भूमि में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। श्रीवास्तव दावा करते हैं कि सिवनी ज़िले के पारा, उमरपानी और राजगढ़ी गांव के खेतों में राख डलवा कर उसे ‘रीक्लेम’ किया गया है।
मगर जब हमने प्लांट से उन किसानों की जानकारी लेनी चाही जिनके खेतों को रिक्लेम किया गया है, तो वह यह जानकारी देने से बचते रहे। कुछ खबरों के अनुसार 2022 में उमरपानी के कुछ किसानों के खेत में राख भरने का अनुबंध प्लांट द्वारा किया गया था। यह काम जून 2023 तक पूरा होना था।
मगर 2024 में उमरपानी, भट्टेखारी और राजगढ़ी गांव के 20-22 किसानों के गांव में अनाधिकृत रूप से राख डाल दी गई। जिसके खिलाफ स्थानीय किसानों ने धरना प्रदर्शन भी किया था।
पर्यावरण नीतियों का विश्लेषण करने वाले मंथन अध्ययन केंद्र के फाउंडर कॉर्डिनेटर और कोल ऐश इन इंडिया सहित कई अध्ययन कर चुके श्रीपाद धर्माधिकारी कहते हैं कि खेतों में राख डालना तात्कालिक तौर पर भले ही फायदेमंद लगता हो मगर यह मिट्टी में हैवी मेटल्स को बढ़ाता है।
पानी के साथ जब राख खेतों में आती है तो वह और जल्दी लीच होती है जिससे मिट्टी की उपजाऊ क्षमता भी घटती है। साथ ही ड्राई ऐश के कण पौधों के स्टोमेटा को बंद कर देते हैं जिससे वह सूख जाते हैं।
धर्माधिकारी की यह बात हमें मनिराम की याद दिलाती है जिसके खेत में ‘दाना नहीं निकलने के कारण उसे किसानी छोड़नी पड़ी और अब वह मज़दूर बनकर रह गए हैं।
राख का हिसाब: कितना उत्सर्जन, कितना उपयोग?
प्लांट की वेबसाईट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार अप्रैल 2023 से मार्च 2024 तक बिजली उत्पादन के लिए 29 लाख 18 हज़ार 265 मिलियन टन कोयले का इस्तेमाल किया गया है।
इस दौरान 11 लाख 67 हज़ार 308 टन फ्लाई और बॉटम ऐश उत्पादित हुई। इसमें से 57 लाख 8 हजार 388 मिलियन टन ऐश का इस्तेमाल किया गया है। वहीं 83 लाख 5 लाख 086 मिलियन टन ऐश को लो लेइंग एरिया में डंप किया गया है।
इस तरह 2023-24 के आंकड़ों के अनुसार प्लांट ने लेगेसी ऐश (लंबे समय से प्लांट में मौजूद राख) सहित कुल 106.10% ऐश का इस्तेमाल किया है। मगर यह आंकड़े अधूरी तस्वीर ही पेश करते हैं।
दरअसल मार्च 2024 तक प्लांट में 17 लाख 24 हजार 228 मिलियन टन लेगेसी ऐश थी। इस दौरान तक इसमें से 8 लाख 35 हज़ार 86 मिलियन टन लेगेसी फ्लाई ऐश का ही इस्तेमाल किया गया। यानि केवल 48.43% लेगेसी फ्लाई ऐश को ही उपयोग में लाया जा सका है।
जबकि 31 दिसंबर 2021 के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के नोटिफिकेशन के अनुसार कोयला आधारित थर्मल पॉवर प्लांट को उत्सर्जित राख का 100 हिस्सा उपयोग में लाना ज़रूरी है।
भारत में कोयले और राख की कहानी
भारत में 71.22% बिजली का उत्पादन कोयला आधारित थर्मल पॉवर प्लांट्स में ही किया जा रहा है। देश के 180 थर्मल पॉवर प्लांट्स की कुल उत्पादन क्षमता 212 गीगावाट (GW) है जिसे 2030 तक 260 गीगावाट किया जाना है।
आगे के आंकड़ों की ओर बढ़ने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि इन पॉवर प्लांट्स द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले भारतीय कोयले को जलाने पर 30-45% ऐश उत्पादित होती है। जबकि विदेशों से आने वाले कोयले में यह 10-15% ही होती है। यानि देश में फ्लाई ऐश की समस्या के लिए भारतीय कोयले का इस्तेमाल भी एक कारण है।
कोयला आधारित थर्मल पॉवर प्लांट देश के 17 सबसे प्रदूषित उद्योगों में से एक हैं। इन प्लांट्स ने 2020 में देश में लगभग 226 मिलियन टन फ्लाई ऐश का उत्पादन किया था।
झाबुआ पॉवर प्लांट भारत में उत्पादित कोयले का ही उपयोग मुख्य रूप से करता है। ऐसे प्लांट्स को डोमेस्टिक कोल बेस्ड प्लांट कहा जाता है। हालांकि यह प्लांट्स कुछ मात्रा में विदेश से आयात किया जाने वाला कोयला भी ब्लेंडिंग के रूप में उपयोग में लेते हैं।
2018 से दिसंबर 2023 तक देश भर के डोमेस्टिक कोल बेस्ड प्लांट्स ने 19.31 मिलियन टन की औसत से कुल 115.9 मिलियन टन कोयला आयात किया है। 2022-23 में यह आयात सबसे ज़्यादा 35.1 मिलियन टन था।
मगर साल 2023 में देश के 180 थर्मल पॉवर प्लांट्स द्वारा 777 मिलियन टन कोयला इस्तेमाल किया गया था। इसमें से केवल 55 मिलियन टन कोयला ही आयातित था। इसका मतलब है कि हमारे पॉवर प्लांट भारत में उत्पादित कोयले पर ही ज़्यादा निर्भर हैं।
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नियमों की अनदेखी और कोई सुनवाई नहीं
झाबुआ पॉवर प्लांट के ही एक अधिकारी मुकुंद कुमार सिंह दावा करते हैं कि उनके द्वारा पर्यावरणीय नियमों का ‘शत-प्रतिशत पालन किया जा रहा है।’
मगर बिनेकी गांव के मोहनलाल यादव (55) का अनुभव इस बात से जुदा है। यादव पहले 15 एकड़ में किसानी करते थे। मगर 2016 के बाद से उनकी 5 एकड़ खेती बंजर पड़ी हुई है। वह कहते हैं कि उनके खेत में प्लांट की ओर से राखयुक्त पानी का प्रवाह बना हुआ है जिसके चलते फसल उगाना मुश्किल हो गया है।
उन्हें हुए नुकसान के बारे में बताते हुए वह कहते हैं,
“5 एकड़ में खेती करके दोनों सीजन मिला कर हम 2.5 से 3 लाख तक कमा लेते थे मगर 2016 से हर साल इतना घाटा हो रहा है।”
उनकी पत्नी सखी यादव बताती हैं कि 2016 के बाद से 2 बच्चों की शादियां की हैं। इससे उन पर आर्थिक बोझ बढ़ा है। वह कहती हैं कि अगर प्लांट वाले उनके नुकसान का हर्जाना नहीं देते हैं तो प्लांट वालों को उनकी ज़मीन खरीद लेनी चाहिए।
इस मामले को लगातार स्थानीय स्तर पर एक हिंदी दैनिक के लिए कवर कर रहे गौरीशंकर नेमा बताते हैं कि इस ऐश को प्लांट से जबलपुर लेकर जाने वाले ट्रक अनाधिकृत रूप से ग्रामीण इलाके से गुज़रते हैं। वह कहते हैं,
“शासन के नियमानुसार प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत बनी सड़कों की भार क्षमता 8 टन होती है जबकि राख का एक ट्रक ही 60-70 टन का होता है.”
इन ट्रकों से गिरने वाली राख से प्लांट से जबलपुर के बीच आने वाले कई गांव प्रभावित होते हैं। घंसौर में रहने वाले पत्रकार रवि अग्रवाल शिकायत करते हुए कहते हैं कि पर्यावरण विभाग द्वारा इन ट्रकों पर रोक लगाने के लिए पत्र जारी हुआ है मगर अब तक उस पर कोई अमल नहीं किया गया है।
वहीं समाजिक कार्यकर्ता कांति लाल नेमा बताते हैं कि उन्होंने प्लांट प्रशासन से 25 हजार रु प्रति सीजन के मुआवजे की मांग की थी।
“प्लांट प्रशासन मुआवजे की मांग होने पर तहसीलदार के पास भेज देता है। वह कहते हैं कि हम 5 हजार से ऊपर का मुआवजा नहीं दे सकते।”
नेमा कहते हैं कि किसानों को 5 हजार रुपए मुआवजे की पेशकश उनके साथ भद्दा मजाक करना है।
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क्यों है फ्लाई ऐश एक गंभीर मसला?
धर्माधिकारी मानते हैं कि फ्लाई ऐश का प्रबंधन न होना एक गंभीर मसला है। मगर इस पर आम तौर पर इसलिए ध्यान नहीं दिया जाता क्योंकि इससे प्रभावित होने वाले ज़्यादातर लोग हाशिए के समुदायों से ताल्लुक रखते हैं।
“कानून ज़रूर है मगर चाहे वो प्राइवेट कंपनियां हों या फिर सरकारी प्लांट कोई भी अपनी जिम्मेदारियां नहीं महसूस करता. इस बारे में बात करने पर यह कहा जाता है कि बिजली उत्पादन देश के लिए ज़रूरी है, उसे बंद नहीं कर सकते.”
वह बताते हैं कि सूखी फ्लाई ऐश हवा में अधिक दूरी तक सफ़र करती है। इसमें आर्सेनिक, लेड और मर्करी जैसे हैवी मेटल होते हैं जो सांस के रास्ते शरीर में दाखिल होते हैं। कोल ऐश इन इंडिया रिपोर्ट के अनुसार इससे स्किन इन्फेक्शन से लेकर लंग, प्रोस्टेट कैंसर और स्थाई तौर पर दिमाग को क्षति पहुंचा सकती है।
भारत में कोयले का उत्पादन तेज़ी से बढ़ा है। 2019-20 में इसका उत्पादन 730.87 मिलियन टन था। यह 2023-24 में बढ़कर 997.82 मिलियन टन तक पहुंच गया है। सरकार ने इस बढ़त के चलते विदेशी कोयले का आयात 3.1% तक घटाया है। भारत ने पहले ही कोयला आधारित थर्मल पॉवर प्लांट्स की क्षमता को 2030 तक 260 गीगावाट तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा हुआ है।
इन आकड़ों का अर्थ है कि आने वाले दिनों में इन प्लांट्स द्वारा उत्सर्जित राख की समस्या और गहराती जाएगी। ऐसे में ज़रूरी है कि इनके उत्सर्जन को कम करने के उपाए किए जाएं। साथ ही प्लांट्स में मौजूद लेगेसी ऐश के उचित निपटारे का प्रबंध करना ज़रूरी है। मगर इन सब में यह ध्यान रखा जाए कि किसी मनीराम को किसान से मज़दूर न बनना पड़े।
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