झारखंड में ‘पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था’ के पदाधिकारियों की सम्मान राशि को दोगुना करने के प्रस्ताव पर मंजूरी हेमंत सोरेन कैबिनेट का एक अहम फैसला बताया जा रहा है। सरकार के इस फैसले पर आदिवासी इलाकों में ‘मानकी मुंडा’, ‘माझी परगना’ स्वशासन व्यवस्था के पदाधिकारियों के बीच प्रतिक्रियाओं का दौर जारी है। सामाजिक और राजनीतिक लिहाज से भी इसके मायने निकाले जा रहे हैं।
इस प्रस्ताव पर मंजूरी दिए जाने के बाद ‘पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था’ से जुड़े राज्य में 28,550 पदाधिकारियों को इसका सीधा लाभ मिलेगा। इन पदाधिकारियों की सम्मान राशि दोगुना किए जाने के बाद सरकार के सालाना 89.59 करोड़ रुपए ख़र्च होंगे।
‘मानकी मुंडा व्यवस्था’ झारखंड में मुंडा जनजाति की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था है, जिसमें परंपरागत रूप से मुंडा लोग शासित होते थे। जबकि ‘माझी परगना व्यवस्था’ झारखंड की संताल जनजाति की एक पारंपरिक शासन प्रणाली है। यह प्रणाली तीन स्तरों पर कार्य करती है- ग्राम, परगना और क्षेत्र।
राज्य सरकार द्वारा पारित प्रस्ताव के तहत मानकी, परगनैत को मिलने वाली 3000 की राशि को बढ़ाकर 6000 रुपए, मुंडा एवं ग्राम प्रधान को 2000 से बढ़ाकर 4000 रुपए कर दिया गया है। इनके अलावा डाकुआ, पराणिक, जोगमांझी, कुड़ाम नायकी, गोड़ैत, मूल रैयत, ग्रामीण दिउरी (पुजारी), पड़हा राजा, ग्राम सभा का प्रधान, घटवाल एवं तावेदार को एक 1000 की बजाय अब 2000 रुपए मिलेंगे।
राज्य सरकार ने ज़िलों से प्राप्त प्रतिवेदन के अनुसार पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था से जुड़े पदाधिकारियों में 86 मानकी, 194 परगनैत, 6986 ग्राम प्रधान, 1206 मुंडा, 1482 डाकुआ, 1824 पराणिक, 2172 जोगमांझी, 1740 कुड़ाम नायके, 2188 नायकी, 377 गोड़ैत, 1537 दिउरी, 22 घटवाल, 47 तावेदार को देय सम्मान राशि दोगुना करने का फ़ैसला लिया है।
पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था की अहमियत
‘आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था संदर्भ झारखंड’ के लेखक तथा ग्राम सभा समेत अन्य विषयों पर शोध और ड्राफ्ट कार्यों से जुड़े सुधीर पाल बताते हैं कि कोल्हान, संथालपरगना के अलावा दक्षिणी छोटानागपुर प्रक्षेत्र में मानकी मुंडा और माझी परगना, पड़हा राजा पांरपरिक व्यवस्था का वजूद रहा है। अमूमन इन व्यवस्था से जुड़े पदाधिकारियों के पद वंशानुगत चलते हैं।
सुधीर पाल बताते हैं कि ‘पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था’ में इन सभी पदाधिकारियों की अलग-अलग शक्तियां, जिम्मेदारी और कर्तव्य निहित हैं। इनका ग्रामीण और आदिवासी समाज में खास स्थान होने के साथ स्थानीय स्वशासन, न्याय व्यवस्था और सामाजिक तौर पर फ़ैसले लेने और पंरपरा को कायम रखने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
सुधीर पाल आगे बताते हैं कि मुंडा जनजाति बाहुल्य गांवों में ग्राम प्रधान को ‘मुंडा’ कहा जाता है। इनका क्षेत्र स्थानीय प्रशासन, न्याय देखने और लगान लेने का है, जबकि डाकुआ का काम है- मुंडा पदधारी ग्राम प्रधान का सहयोग करना।
इस व्यवस्था के तहत 10-15 गाँवों (कलस्टर) के ऊपर एक ‘मानकी’ होते हैं, जो मुंडा और डाकुआ का नेतृत्व करते रहे हैं। मानकी की बैठक में सभी मुंडा तथा डाकुआ शामिल होते हैं, जो आगत मामलों में सबकी सहमति से अंतिम फ़ैसला लेते हैं।
‘मानकी मुंडा व्यवस्था’ में गांव के पुजारी ‘दिउरी’ कहलाते हैं। शादी- ब्याह, पर्व त्योहार के अलावा धार्मिक मामलों में दंड निर्धारण में इनकी भूमिका अहम होती है।
पश्चिम सिंहभूम में मानकी मुंडा संघ के अध्यक्ष गणेश पाठ पिंगुआ भी इससे इत्तेफाक रखते हैं कि इन्हीं क्रमों के अनुसार सभी पदाधिकारी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हैं।
गणेश पाठ पिंगुआ आगे कहते हैं, “कई मामलों में हमारी अनुशंसा और भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। लेकिन अब आदिवासी समाज कई क़िस्म के दबाव और प्रशासनिक हस्तक्षेप से गुजर रहा है। सरकार विधानसभा चुनाव से पहले यह सुनिश्चित कराए कि बढ़ाई गई सम्मान राशि हासिल हो सके।”
साहिबंगज जिले के पतना प्रखंड स्थित धरमपुर मैदान में ग्राम प्रधान सम्मान समारोह को संबोधित करते हुए हेमंत सोरेन ने कहा था, “मानकी- मुंडा पारंपरिक व्यवस्था जनजाति समुदाय की मज़बूत कड़ी है और समाज के पुरोधा भी। इस व्यवस्था को हम और मजबूती दे रहे हैं, ताकि समाज को इनका लाभ ज्यादा मिल सके।”
इसी तरह माझी परगना पारंपरिक व्यवस्था में ‘माझी’ गांवों का प्रधान होता है। मुंडा की तरह इन्हें भी न्यायिक एवं प्रशासनिक अधिकार प्राप्त होते हैं, जिसका इस्तेमाल वे विवादों एवं समस्याओं के निवारण हेतु करते हैं। 15-20 गांवों (कलस्टर) पर एक परगना होता है और इसके प्रमुख को परगनैत कहते हैं।
गोड़ाईत, माझी के सहायक होते हैं, जो बैठकों, समारोहों, उत्सवों, पर्व-त्योहारों और अन्य अवसरों के लिए ग्रामीणों को सूचित करता है।
माझी-परगना शासन व्यवस्था कोल्हान के “देस-पोरानिक” दुर्गा चरण माझी हेमंत सरकार के इस फ़ैसले का स्वागत करते हुए कहते हैं कि इससे पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था से जुड़े पदाधिकारियों का मनोबल बढ़ेगा और वे सामाजिक तानाबाना, संस्कृति, पंरपरा के संरक्षण तथा संवर्धन में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं। उनका संगठन ‘ माझी परगना महाल’ इसका पक्षधर है पारंपरिक रूढ़ि प्रथा के तहत उन्हें जो अधिकार प्राप्त थे, वे दिए जाएं। साथ ही राज्य में पेसा कानून शीघ्र लागू हो।
गौरतलब है कि लंबे इंतज़ार के बाद पिछले साल सिंतबर में सरकार ने सभी आपत्तियों व सुझावों पर तर्कसंगत फैसला करते हुए पेसा रूल को अंतिम रूप दे दिया है। सुधीर पाल भी पेसा को झारखंड के लिए ज़रूरी बताते हैं।
हाल ही में सरायकेला जिले में ग्राम प्रधान महासभा ने बैठक कर सरकार के इस फ़ैसले पर खुशी जाहिर की है।
पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था की मजबूती के पक्षधर
झारखंड सरकार के जनजातीय कल्याण मंत्री दीपक बिरूआ कहते हैं, “आदिवासी इलाकों की मांग रही है कि पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था की नींव को नए सिरे से सुदृढ़ किए जाएं। झारखंड के ग्रामीण और जनजातीय इलाक़े में आए कई बदलावों ने पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था के पदाधिकारियों की जिम्मेदारी को और बढ़ा दिया है। साथ ही कई किस्म के हस्तक्षेप से चुनौतियां बढ़ी हैं। जाहिर तौर पर सम्मान राशि बढ़ाये जाने से उनका मनोबल बढ़ेगा।”
सरकार ने जिले के अधिकारियों को ये निर्देश भी दिए हैं कि समय- समय पर ग्राम प्रधानों का सम्मेलन आयोजित कर सरकार की सभी योजनाओं की विस्तृत जानकारी दी जाए, ताकि वे गांव-गांव में ग्रामीणों को इन योजनाओं का लाभ सुनिश्चित कर सकें।
खरसांवा से जेएमएम के विधायक दशरथ गागराई कहते हैं कि झारखंड सरकार के इस फ़ैसले से स्वशासन व्यवस्था के पदाधिकारियों का मान बढ़ेगा तथा ग्राम सभा का महत्व भी।
दीपक बिरूआ आगे कहते हैं, पश्चिम सिंहभूम जिला मुख्यालय में ‘न्याय पंच’ कोर्ट की शुरुआत की गई है। दरअसल, इस इलाक़े में गैर आपराधिक मामलों के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता यानी सीपीसी लागू नहीं है, जबकि सिविल मैटर से जुड़े कई मामले उपायुक्त (डिप्यूटी कमिश्नर) और अपर समाहर्ता (एडिशनल कलेक्टर) की अदालतों में लंबित थे। अब न्याय पंच में इसे मानकी- मुंडा की मौजूदगी और सहमति में तेजी से निपटाए जा रहे हैं।
गणेश पाठ पिंगुआ भी न्याय पंच की भूमिका निभाते हैं। उनका कहना है कि कई दशकों के बाद व्यवस्था पुनजीर्वित हुई है। इससे अब वर्षों लंबित दीवानी मामलों में सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय लोगों को मिलने लगा है।
दूसरी तरफ़ आदिवासी मामलों के जानकार और ‘शून्यकाल में आदिवासी’ के लेखक अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, “पांचवीं अनुसूची की मूल मंशा, जिसमें आदिवासियों की स्वशासन व्यवस्था, रूढ़ियां, पंरपरा, न्याय प्रणाली की रक्षा निहित है। आदि काल से इनका ग्रामीण और आदिवासी समाज में खास स्थान होने के बावजूद अगर ये व्यवस्था शिथिल पड़ रही है, तो इसके लिए सरकारी मशीनरी को ज्यादा शक्तियां देना और पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में पंचायती राज व्यवस्था थोपना है।”
विधानसभा की 28 सीटें सुरक्षित
पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत झारखंड के 24 में से 13 जिले आते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक़ झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या कुल आबादी लगभग 3.29 करोड़ की 26.2 प्रतिशत है। झारखंड में नवंबर- दिसंबर में विधानसभा चुनाव संभावित हैं। 81 सदस्यीय विधानसभा में आदिवासियों के लिए 28 सीटें सुरक्षित हैं। जबकि राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से 5 आदिवासियों के लिए सुरक्षित है।
इस बार के लोकसभा चुनावों में आदिवासियों के लिए सुरक्षित सभी पांच सीटों पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है। तीन सीटों पर जेएमएम और दो सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली है।
2019 में हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 28 में से सिर्फ दो सीट पर जीत मिली थी। जबकि हेमंत सोरेन की अगुवाई में जेएमएम- कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने में आदिवासी इलाक़े में मिली बड़ी जीत अहम साबित हुई थी।
कोल्हान के पत्रकार और आदिवासी मामलों के जानकार बिनय पूर्ति कहते हैं, “सरकार के इस फ़ैसले का राजनीतिक असर होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन ग्रामसभा के पदाधिकारियों और ग्रामीणों के बीच मतभेद के भी ख़तरे हैं। सरकार को इस तरह की मुकम्मल व्यवस्था करनी चाहिए कि ग्राम सभा सशक्त हो और सम्मान राशि सभी पंचों के बीच पहुंचे।”