क्या एक राज्यपाल अपनी मर्जी से जनता के चुने हुए विधायकों के फ़ैसलों को ठंडे बस्ते में डाल सकता है सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का जवाब देते हुए तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि को करारा झटका दिया है। मंगलवार को आए एक सनसनीखेज फ़ैसले में कोर्ट ने राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए सुरक्षित रखने को कानूनन अवैध और त्रुटिपूर्ण ठहराया और इसे तत्काल रद्द कर दिया।
कोर्ट ने साफ़ शब्दों में कहा कि राज्यपाल को अपनी कुर्सी की गरिमा बनाए रखते हुए राज्य विधानमंडल की सलाह और सहायता से काम करना होगा, न कि लोकतंत्र की राह में रोड़े अटकाने चाहिए। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को संसदीय लोकतंत्र की स्थापित परंपराओं के प्रति सम्मान दिखाते हुए कार्य करना चाहिए और विधायिका के माध्यम से व्यक्त जनता की इच्छा का सम्मान करना उनका कर्तव्य है। यह फ़ैसला तमिलनाडु में चल रहे सियासी घमासान को नया रंग देने के साथ-साथ पूरे देश में राज्यपालों की भूमिका पर बहस छेड़ सकता है!
यह विवाद तब शुरू हुआ था जब तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को राज्यपाल ने लंबे समय तक अपनी सहमति या असहमति के बिना रोके रखा और अंततः नवंबर 2023 में इन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए भेज दिया। राज्य सरकार ने इसे संविधान के अनुच्छेद 200 का उल्लंघन बताते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इन विधेयकों में शिक्षा, प्रशासन और सामाजिक कल्याण से जुड़े कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव शामिल थे, जिनमें से कुछ 2020 से लंबित थे।
राज्य सरकार का तर्क था कि राज्यपाल ने इन विधेयकों पर सहमति देने या असहमति जताने में अनावश्यक देरी की, जो संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन है। दूसरी ओर, राज्यपाल ने अपने निर्णय को सही ठहराते हुए कहा था कि ये विधेयक संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप नहीं थे।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि राज्यपाल का यह क़दम संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनकी शक्तियों का दुरुपयोग है। कोर्ट ने जोर दिया कि राज्यपाल के पास ‘पॉकेट वीटो’ यानी अनिश्चितकाल तक विधेयक को रोकने की शक्ति नहीं है और उन्हें राज्य मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करना चाहिए।
एक असाधारण क़दम उठाते हुए कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए इन 10 विधेयकों को स्वतः सहमति प्राप्त मान लिया। इसने कहा कि राज्यपाल ने इन पर लंबे समय तक कार्रवाई नहीं की और पहले के समान मामलों में कोर्ट के निर्णयों का सम्मान नहीं किया।
कोर्ट ने यह भी कहा, ‘हम राज्यपाल के पद को कमजोर नहीं कर रहे हैं। हम केवल यह कह रहे हैं कि राज्यपाल को संसदीय लोकतंत्र की परंपराओं के प्रति सही सम्मान दिखाना चाहिए जो जनता की इच्छा को विधायिका और निर्वाचित सरकार के माध्यम से प्रतिबिंबित करता है।
यह फ़ैसला न केवल तमिलनाडु के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, बल्कि पूरे देश में राज्यपालों की भूमिका और उनकी शक्तियों के दायरे को परिभाषित करने में एक मिसाल कायम करता है। हाल के वर्षों में कई राज्यों में राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच टकराव देखा गया है, जहां राज्यपालों पर केंद्र सरकार के इशारे पर कार्य करने का आरोप लगता रहा है। इस फ़ैसले से यह संदेश जाता है कि राज्यपाल को एक संवैधानिक पदाधिकारी के रूप में निष्पक्ष और लोकतांत्रिक तरीके से कार्य करना होगा।
हाल के वर्षों में कई राज्यों, जैसे पश्चिम बंगाल, केरल और महाराष्ट्र में, राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच टकराव देखा गया है। यह फ़ैसला उन राज्यपालों के लिए एक चेतावनी है जो विधायी प्रक्रिया में अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं या केंद्र सरकार के प्रभाव में कार्य करते दिखते हैं।
तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके ने इस फैसले का स्वागत किया है और इसे लोकतंत्र की जीत करार दिया। वहीं, विपक्षी दलों ने राज्यपाल के रवैये की आलोचना की है। सोशल मीडिया पर भी लोगों ने इस फैसले को सराहा, हालांकि कुछ ने राज्यपाल के अधिकारों पर सवाल उठाए।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय संवैधानिक संतुलन और लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूत करने की दिशा में एक बड़ा क़दम है। यह राज्यपालों को याद दिलाता है कि उनकी भूमिका केंद्र और राज्य के बीच एक सेतु की है, न कि एक बाधा की। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह फैसला अन्य राज्यों में राज्यपालों के व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है।