टीकमगढ़ का जमुनिया खेड़ा गांव। यहां खेत किनारे पलाश के पेड़ के नीचे एक वृद्ध तिरपाल की छाया के नीचे आराम कर रहे हैं। हमारे आवाज़ देने पर बड़ी सफेद मूंछ, दाढ़ी और सर पर काले बाल लिए छरहरे पतले शरीर वाला 60 वर्ष से अधिक उम्र का एक व्यक्ति बाहर निकलता है। यह दीपचंद सौर हैं।
दीपचंद सौर पेशे से किसान हैं। वह टीकमगढ़ जिले के जमुनिया खेड़ा गांव में अपनी पत्नि गौराबाई के साथ रहते हैं। उनके पास कुल 7 एकड़ ज़मीन है जिसमें से 5 एकड़ में वो खेती करते हैं। बचे हुए 2 एकड़ में वो खेती नहीं कर पाते क्योंकि यहां पानी का कोई साधन ही नहीं है।
मगर बचे हुए 5 एकड़ में भी पानी का जुगाड़ उनके लिए बेहद संघर्षपूर्ण रहा है। बुंदेलखंड के इस वृद्ध ने अपनी पत्नी के साथ मिलकर 5 कुएं खोदे हैं। इनमें से 3 कुएं पत्थर निकलने की वजह से सूखे निकले। बाद में दीपचंद ने कुछ पैसे इकट्ठे कर दो बोरबेल भी करवाए लेकिन दोनों में पानी नहीं निकला। अब उनके लिए पानी का स्त्रोत उनके द्वारा खोदे हुए कुएं ही हैं।
आगे बढ़ें उससे पहले आपके एक सवाल का जवाब देना ज़रूरी है, इस कहानी को पढ़ा क्यों जाए? इसके जवाब में आपको एक बुजुर्ग दंपत्ति की कल्पना करनी होगी जो अपने हाथों में गैती-फावड़ा लेकर मुसलसल कुआं खोदते हैं। एक नहीं, दो नहीं बल्कि पांच। यह कहानी बुंदेलखंड में पानी के उस संघर्ष के बारे में है जो आम तौर पर अनदेखा रह जाता है।
दीपचंद हमें अपने द्वारा खोदे गए एक कुएं को दिखाने ले जा रहे हैं। खेत की मेड़ के किनारे दो जगह पत्थरों के ढेर हैं। इससे आगे बढ़ते हुए एक कुआं नज़र आता है। यह लगभग 15 फीट गहरा है। हम यहां बैठकर बात कर रहे थे तभी थोड़े दूर से एक महिला आते हुए दिखती है।
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यह दीपचंद की पत्नी गौरबाई हैं। छोटे से कद वाली गौरबाई का शरीर बेहद कमज़ोर नज़र आता है। पर्याप्त पोषण के आभाव और अधिक उम्र के प्रभाव में सूख रहे हाथों पर गुदना (टैटू) के हरे-हरे निशान हैं और चेहरे पर झुर्रियां। उनके बारे में दीपचंद कहते हैं,
“पांच कुएं खोद चुका हूं, मिट्टी का एक ढेला कभी बाहर नहीं निकाला। सारी मिट्टी बूढ़ी ने बाहर निकाली, मैंने सिर्फ खोदा है।”
दीपचंद खुद कुएं खोदने से पहले अपने खेत के आस-पास कृषि करने वाले किसानों से पानी लिया करते थे। इस पानी के एवज में कई बार ज्यादा पैसा देना पड़ता था। फिर भी पानी समय से नहीं मिलता था। दीपचंद बताते हैं
“पानी तब मिलता था, जब फसल पीली पड़ जाती थी।”
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क़र्ज़ और उससे उपजा पलायन
दीपचंद बताते हैं कि साल 2006 और 2007 में लगातार सूखा पड़ा था। इस समय वे पास की कुछ जमीन ठेके पर लेकर खेती कर रहे थे। मगर उन्हें लगातार दो साल फसल ही नहीं मिल पायी। इससे उनके ऊपर एक लाख रुपए का क़र्ज़ हो गया। लोग उनकी जमीन खरीदना चाहते थे, पर वह बेचने के लिए राजी नहीं हुए।
तब उन्होंने खेती-किसानी छोड़ पंजाब में छह महीने से ज्यादा समय तक मजदूरी की थी। इस समय दीपचंद, गौराबाई और उनकी दोनों छोटी बेटियां साथ में रहती थीं। घर से पंजाब जाने से पहले वह अपने बैल एक रिश्तेदार के यहां छोड़ गए थे। इसके अलावा सात एकड़ जमीन बगल के खेत वालों को देकर जाना पड़ा था। जब कर्ज चुक गया तब वे घर वापस आए और फिर से खेती शुरू कर दी।
क़र्ज़ ने भले ही उनका पीछा छोड़ दिया हो मगर पानी की किल्लत अभी भी सर पर थी। ऐसे में उन्होंने 15 साल पहले पहला कुआं खोदने का निर्णय लिया। मगर शुरुआत के तीन बार पथरीली ज़मीन से केवल धूल और पत्थर ही हाथ आए। अब जब यह दंपत्ति अपने बुढ़ापे में है तब 2 कुओं में पानी बचा है। लेकिन यह कुएं भी कच्चे हैं इसलिए इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। अब वे दोनों इस कुएं को पक्का करना चाहते हैं। इसलिए चेहरे पर झुर्रियां, हाथ में फावड़ा और गैंती लिए पत्थर खोदते रहते हैं।
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दीपचंद कुएं की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि यह कुआं 25 फीट गहरा था। तब पानी की मोटर की चेकबोल पूरी डूब जाती थी। मगर आखिर के दो सालों से बरसात के पानी के साथ आयी मिट्टी ने कुएं की तलहटी को लगभग 10 फीट तक भर दिया है। इस उम्र में दीपचंद की कमर दर्द करने लगी है। कभी-कभी पैर भी कांपने लगते हैं। इसलिए अब वे हर साल मिट्टी खाली करने में मेहनत नहीं कर सकते।
दीपचंद रात में जंगली जानवरों व मवेशियों से फसल की सुरक्षा करने के लिए रातभर जागते रहते हैं। दिन में समय मिलता है, तो कुएं को पक्का करने के लिए खेत के कोने से पत्थर निकालते हैं।
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दीपचंद को दिन, तारीख, साल कुछ याद नहीं रहता। उन्हें पढ़ना लिखना भी नहीं आता है। इसलिए सालों उन्हें सरकारी राशन भी नहीं मिला। साल 2024 में ही उन्हें राशन मिलना शुरू हुआ है। इस उम्र में वृद्धा पेंशन भी नहीं मिलती है। उन्हें सिंचाई के लिए किसी भी सरकारी योजना की जानकारी नहीं है। पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से नहरें भी नहीं हैं।
दीपचंद पहले बगल के किसानों गोपाल यादव और गोटीराम आदिवासी के कुंओं से पानी लिया करते थे। जिसके लिए उन्हें हर साल पैसे देने पड़ते थे। अब भी गर्मियों में जब दीपचंद के दोनों कुएं सूख जाएंगे तो वह पीने के पानी के लिए इन्हीं पड़ोसियों पर निर्भर हो जाएंगे। दीपचंद और गौरबाई पानी की जंग तो जीत गए हैं, लेकिन प्यास अभी तक नहीं बुझ पायी है। आज भी उन्हें आस है कि सरकार उनकी कुआं बनाने में मदद करेगी।
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