लैटरल एंट्री मोड के जरिए 45 वरिष्ठ स्तर के अधिकारियों की भर्ती के लिए नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव ने एक राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है। विपक्षी नेताओं ने सरकार पर आरक्षण प्रणाली को व्यवस्थित रूप से कमजोर करने का आरोप लगाया है जो भारत में हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए अवसर देता है।
आमतौर पर, ऐसे पदों पर अखिल भारतीय सेवाओं – भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफओएस) – और अन्य समूह ए सेवाओं के अधिकारियों द्वारा भरा जाता है। इनमें आरक्षण भी लागू होता है। लेकिन केंद्र सरकार लैटरल एंट्री के जरिए इन पदों पर लाने वालों को किसी भी तरह का आरक्षण लाभ नहीं देती है।
2018 में मोदी सरकार ने लैटरल एंट्री योजना शुरू की थी। इसका मकसद निजी क्षेत्र और अन्य गैर-सरकारी संगठनों से विशेष प्रतिभाओं को सरकार में लाना बताया गया है। सरकार का तर्क है कि इस कदम से प्रशासन में नए नजरिए और विशेषज्ञता वाले लोग आएंगे और शासन की कार्यकुशलता में बढ़ोतरी होगी।
लैटरल एंट्री के जरिए अब तक 63 नियुक्तियां की जा चुकी हैं, जिनमें से 35 नियुक्तियां निजी क्षेत्र से थीं। ताजा आंकड़ों के मुताबिक, फिलहाल मंत्रालयों/विभागों में 57 अधिकारी पदों पर हैं। हालांकि सरकार इन्हें यूपीएससी के जरिए भर सकती थी।
भर्ती का यह तरीका शुरू से ही विवादास्पद है। आलोचकों का तर्क है कि यह भारतीय संविधान में निहित आरक्षण प्रणाली को दरकिनार कर देता है। विपक्ष इसे सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के सीधे अपमान के रूप में देखता है। हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण उन्हें आगे बढ़ने का अवसर देता है। लेकिन मोदी सरकार ने 2018 से इस रास्ते को बंद कर दिया है।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आरोप लगाया कि यह कदम अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को महत्वपूर्ण सरकारी पदों से किनारे करने का भाजपा का एक जानबूझकर किया गया प्रयास है। खड़गे ने सरकार से पूछा कि जो भर्ती आज निकाली गई, क्या उसमें एससी, एसटी, ओबीसी और ईडब्ल्यूएस वर्गों के लिए आरक्षण है। खड़गे ने कहा कि यह भाजपा की सोची समझी साज़िश है।
बिहार में कांग्रेस के प्रमुख सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) नेता तेजस्वी यादव ने आरक्षण प्रणाली और डॉ. बी.आर. द्वारा तैयार किए गए संविधान पर केंद्र सरकार के विज्ञापन को एक “गंदा मजाक” बताते हुए इस कदम की निंदा की। यादव ने रेखांकित किया कि यदि ये 45 पद पारंपरिक सिविल सेवा परीक्षा के माध्यम से भरे जाते, तो उनमें से लगभग आधे एससी, एसटी और ओबीसी उम्मीदवारों के लिए आरक्षित होते।
तेजस्वी यादव का कहना है कि लैटरल एंट्री का विकल्प चुनकर, सरकार प्रभावी रूप से इन समुदायों को शासन में उनकी उचित हिस्सेदारी से वंचित कर रही है। तेजस्वी ने कहा- “पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री, बिहार में उनकी पिट्ठू पार्टियां और उसके नेता बड़े जोर-शोर से दावा करते थे कि आरक्षण खत्म कर कोई उनका हक नहीं छीन सकता, लेकिन उनकी आंखों के सामने, उनके समर्थन और सहयोग से वंचित, उपेक्षित और गरीब वर्गों के अधिकारों को लूटा जा रहा है।”
तेजस्वी ने कहा- “जागो दलित-ओबीसी-आदिवासी और गरीब सामान्य वर्ग जागो! हिंदू के नाम पर वे आपके अधिकारों को हड़प रहे हैं और आपके अधिकारों को बांट रहे हैं।”
यूपी में आरक्षण घोटाला
यूपी में 69,000 सहायक शिक्षकों की नियुक्ति में आरक्षण घोटाले का हाई कोर्ट के फ़ैसले से पर्दाफ़ाश हो गया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश सरकार को 2019 में आयोजित 69,000 सहायक शिक्षक भर्ती के लिए चयनित उम्मीदवारों की नई सूची जारी करने का आदेश दिया है। हाईकोर्ट ने फैसला यह कर दिया है कि इस पूरी प्रक्रिया में आरक्षण नियमों का पालन ही नहीं किया गया। जिन कैंडिडेट्स को कोटे का लाभ मिलना चाहिए था, उन्हें नहीं मिला।
कोर्ट के फैसले में 1 जून 2020 और 5 जनवरी 2022 को जारी चयन सूची को रद्द कर दिया गया है और राज्य को नियमानुसार तीन महीने के भीतर नई सूची तैयार करने का निर्देश दिया गया है। यह फैसला राज्य सरकार के लिए एक बड़ा झटका है और पिछली सूचियों के आधार पर पहले से कार्यरत शिक्षकों की नौकरी की सुरक्षा के बारे में चिंता पैदा करने वाला है।
जस्टिस ए.आर. की पीठ मसूदी और जस्टिस बृजराज सिंह ने अशोक यादव और अन्य उम्मीदवारों द्वारा दायर 90 विशेष अपीलों पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया। इन अपीलों में आरक्षण कोटा के अनुचित कार्यान्वयन के संबंध में 13 मार्च, 2023 के एकल-जज बेंच के फैसले को चुनौती दी गई थी। बेंच ने मार्च में सुनवाई पूरी करने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, अंतिम फैसला पिछले मंगलवार को सुनाया गया और शुक्रवार को हाईकोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया गया।
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कोर्ट ने निर्देश दिया कि नई चयन सूची में 1981 के नियम और 1994 के आरक्षण अधिनियम के तहत आरक्षण नीति का पालन किया जाना चाहिए। अदालत ने इन निर्देशों के अनुरूप सिंगल जज के आदेश और निर्देशों को भी बदल दिया। यह मामला 69,000 प्राथमिक सहायक शिक्षकों की भर्ती में आरक्षण गड़बड़ियों से संबंधित मुद्दों को प्रकाश में लाया था।
अदालत ने आगे कहा- अगर आरक्षित वर्ग का कोई उम्मीदवार सामान्य वर्ग के कटऑफ के बराबर या उससे अधिक अंक प्राप्त करता है, तो उसे सामान्य वर्ग में रखा जाना चाहिए। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि यदि वर्तमान में कार्यरत कोई भी उम्मीदवार संशोधित सूची से प्रभावित होता है, तो राज्य सरकार या सक्षम प्राधिकारी को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि छात्रों के लिए व्यवधान को कम करने के लिए शैक्षणिक सत्र के अंत तक उन्हें मुआवजा दिया जाए।
हाईकोर्ट के फैसले से यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार को जहां जबरदस्त झटका लगा है, वहीं डिप्टी सीएम केशव मौर्य ने एक बार फिर अपनी ही सरकार की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि इस मामले पर हाई कोर्ट का फैसला सामाजिक न्याय की दिशा में एक स्वागत योग्य कदम है। उन्होंने कहा, “यह पिछड़े और दलित समुदायों के योग्य उम्मीदवारों की जीत है जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी।” फैसले के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि बीजेपी के शासनकाल में राज्य में शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई है। इस बीच, केंद्रीय मंत्री और बीजेपी सहयोगी अनुप्रिया पटेल ने टिप्पणी की, “अदालत ने जो कहा है वह कुछ ऐसा है जिसे मैंने हमेशा आगे रखा है। मुझे अब उम्मीद है कि वंचित समुदायों के साथ न्याय होगा।”