सूचनाएं विवेक देती हैं या विवेक हर लेती हैं यह एक बड़ा सवाल आज मानव सभ्यता के माथे पर घूम रहा है। सूचनाओं के पक्षधर कहते हैं कि सूचनाएं हमें सशक्त करती हैं और हम ज्यादा अच्छी तरह से कोई निर्णय ले सकते हैं और बीमारी से लेकर आर्थिक- राजनीतिक किसी समस्या का समाधान कर सकते हैं। इसलिए सूचनाओं से फैलाए गए भ्रम का इलाज और सूचनाएं ही हैं। यानी सूचनाओं के खुलेपन से हम न सिर्फ सूचनाओं से पैदा होने वाली समस्याओं का हल निकाल सकते हैं बल्कि उन तमाम समस्याओं का हल कर सकते हैं जिन्हें सूचनाओं ने नहीं पैदा किया है। जबकि सूचनाओं के ख़तरों की ओर इशारा करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि सूचनाओं की बाढ़ में यह तय कर पाना कठिन है कि ग़लत सूचनाएं कौन सी हैं और सही सूचनाएं कौन हैं। सूचनाएं आमतौर पर सत्य तक नहीं ले जातीं और जब तक ले जाती हैं तब तक बहुत देर हो जाती हैं। सूचनाओं से मानव विवेक भी नहीं उत्पन्न होता। उसके लिए सूचनाओं से मदद मिल सकती है लेकिन विवेक ऐसी अवस्था है जिसे पाने के लिए अन्य कारकों की भी आवश्यकता होती है। ऐसे दौर में जब सूचनाएं देने से ज्यादा दबाई जा रही हों और एआई यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने सूचनाओं पर कब्जा कर लिया हो तब मानव सभ्यता को अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए।
यह बात सेपियन्स जैसी बेस्टसेलर पुस्तक लिखने वाले इसराइली इतिहासकार युआल नोआ हरारी ने सितंबर 2024 में आई अपनी ताजा पुस्तक—नेक्ससः ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ इनफारमेशन नेटवर्क्स फ्राम स्टोन एज टू एआई— में बेहद जोरदार ढंग से उठाई है। सेपियन्स का अर्थ होता है बुद्धिमान। अपनी पहली चर्चित पुस्तक के इस अर्थ के माध्यम से वे नई पुस्तक में सवाल उठाते हैं कि अगर मनुष्य इतना बुद्धिमान है और उसने अपनी प्रगति के माध्यम से इसे प्रमाणित भी किया है तो आज वह अपने विनाश का सामान क्यों इकट्ठा कर रहा है। एआई यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता के खतरे के बारे में चर्चा करने वाले हरारी पहले बौद्धिक नहीं हैं। इससे पहले स्टीव वोझनियक, एलन मस्क समेत दुनिया के सौ प्रौद्योगिकी जगत के लीडर एआई के खतरे के बारे में पत्र लिखकर दुनिया को सचेत कर चुके हैं। उन्होंने कहा था कि एआई लैब को अपना शोध धीमा करना चाहिए क्योंकि इससे मानवता को पर्याप्त और गंभीर खतरा है। इतना ही नहीं, ज्योफ्री हिन्टन जिन्हें एआई का गॉडफादर कहा जाता है वे गूगल के अपने पद से इस्तीफा दे चुके हैं। उन्होंने भी खतरे के प्रति आगाह किया था।
हरारी की तकरीबन साढ़े पांच सौ पेज की यह पुस्तक बेहद रोचक ढंग से लिखी गई है। इसके दो सौ पेज सूचना की परिभाषा और उसके इतिहास के बारे में हैं। उसमें सूचनाओं के मिथकीय संसार का भी वर्णन है और वर्णन चेरी अमी नाम के उस कबूतर का भी है जिसने पहले विश्वयुद्ध में हौंसला गंवा चुके अमेरिकी सैनिकों को हिम्मत दी थी। अगर सूचना संबंधी मिथकीय कहानी को भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो सूचना दबाने का कितना घातक परिणाम हो सकता है इसका उदाहरण महाभारत से लिया जा सकता है। अगर कुंती ने पांडवों को यह बता दिया होता कि कर्ण राधेय नहीं कौंतेय है तो युद्ध टल जाता। इसीलिए महाभारत की वह कथा भी उत्पन्न होती है कि युद्धिष्ठिर ने नारी जाति को शाप दिया था कि आज के बाद स्त्रियां अपने भीतर कोई सूचना छिपा कर रख नहीं सकतीं। यानी उनके पेट में कोई बात पचेगी नहीं। सूचना न देने या उसे गलत तरीके से देने का संदर्भ 2019 में हुई पुलवामा की घटना से जोड़कर देखा जा सकता है। अगर पुलवामा की घटना के सही तथ्य सामने आ गए होते तो शायद भारतीय जनता पार्टी वह चुनाव इतने बड़े बहुमत से न जीतती। आज अगर इंडिया गठबंधन इस बात पर अपनी भावी राजनीति टिकाए हुए है कि जाति जनगणना हो जाएगी तो वह देश की राजनीति बदल देगा। कहते हैं कि अगर यह सूचना आ गई होती कि मोहम्मद अली जिन्ना को टीबी की गंभीर बीमारी है तो शायद भारत का विभाजन टल गया होता।
हरारी कहते हैं कि सूचना का मौजूदा तंत्र या प्रौद्योगिकी उस तंत्र से बहुत अलग है जो छापाखाना, रेडियो और टेलीविजन और यहां तक कि कम्प्यूटर के माध्यम से निर्मित हुआ था। सूचना के वे तंत्र मनुष्य के हाथ में होते थे और मनुष्य उन्हें नियंत्रित करता था। लेकिन आज स्थिति एकदम अलग हो गई है। पहले रेडियो और टेलीविजन न खुद सोचते थे और न ही खुद निर्णय ले सकते थे। आज एआई न सिर्फ स्वयं निर्णय लेने में सक्षम हो गया है बल्कि वह विचार भी करने लगा है। उसने मनुष्य पर अपना नियंत्रण करना शुरू कर दिया है।
एआई के विचार करने के ख़तरे को देखते हुए हरारी इसे मानव सभ्यता के लिए विनाशकारी मान रहे हैं। दुनिया में फैल रहे युद्ध के ख़तरों को देखते हुए हम देख रहे हैं कि किस तरह से सोशल मीडिया नफरत करने वाली और हिंसा को सही बताने वाली सूचनाएं फैला रहा है। विचार और नैतिकता का तत्व राष्ट्रीय समाज से लेकर अंतरराष्ट्रीय समाज तक अदृश्य हो रहा है और नफरत का तत्व उपस्थित हो रहा है। उत्तर प्रदेश का समाज गाजियाबाद से लेकर लखनऊ तक नफरती भाषणों का तनाव समय समय पर झेलता रहता है।
वास्तव में तानाशाही नफ़रती सूचनाओं को प्रसारित करती है और सद्भाव संबंधी सूचनाओं को दबाती है। वह उन सही सूचनाओं को भी दबाती है जिनसे किसी समस्या के व्यापक पहलू उजागर हो सकते हैं और उनका वस्तुनिष्ठ समाधान निकाला जा सकता है।
वास्तव में सूचनाओं का जंजाल किसी पुरानी समस्या को हल नहीं करता बल्कि नई नई समस्याएं उत्पन्न करता है। वह सनसनी फैलाता है और एक सनसनी के मर जाने के बाद दूसरी सनसनी तैयार रखता है। सनसनी से विवेक मरता है और विवेक का नाश हमें विनाश की ओर ले जाता है।
सूचनाओं को संचालित करने वालों को जयप्रकाश नारायण के विचारों से मतलब नहीं है। उसे जयप्रकाश नारायण इंटरनेशनल सेंटर को आधुनिक बनाने और उसे निर्माणधीन बताकर वहां उनके अनुयायियों को पहुंचने से रोकने में रुचि है। ताकि एक टकराव और दमन का माहौल निर्मित हो सके। एक दशक पहले नील पोस्टमैन ने टेक्नोपोली नामक पुस्तक में बताया था कि प्रौद्योगिकी के फायदे हैं लेकिन वह अपने फायदे की कीमत लेती है। आज वह संस्कृति की बलि ले रही है। हम प्रौद्योगिकी की चकाचौंध में यह भूलते जा रहे हैं कि वह संस्कृति के किन मूल्यों को खत्म कर रही है। उदाहरण के लिए सत्य, अहिंसा का मूल्य कोई आज का मूल्य नहीं है। भारत में तो आज के ढाई हजार साल पहले बुद्ध और महावीर ने अहिंसा के मूल्य पर जोर दिया था। लेकिन आज की प्रौद्योगिकी हिंसा से भरी हुई है। उसे प्रोत्साहित करने वाले कॉरपोरेट घराने आईटी कंपनियों के शेयर बढ़ाने और मुनाफा कमाने में लगे हैं। वे समझते हैं कि एआई से कितना विनाश हो सकता है। लेकिन यह बात कहने वाले कर्मचारियों को वे काम से निकाल देते हैं। उन्हें सभ्यता के भविष्य से ज्यादा चिंता अरबों डॉलर के टर्नओवर की है। वे उसे हासिल कर रहे हैं और सभ्यता को भाड़ में झोंकने को तैयार हैं।
यही वजह है कि जो हरारी अपने पहले के लेखन में मानव विवेक पर इतने मोहित थे कि उन्होंने कहना शुरू कर दिया था कि अब अकाल, महामारी और युद्ध का ख़तरा समाप्त हो चुका है, वे ही अब कहने लगे हैं कि एआई से महाविनाश का ख़तरा पैदा हो गया है। वे बताते हैं कि किस तरह 2026-17 में म्यांमार में फेसबुक के अलगोर्थिम ने रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति नफ़रत फैलाई और उनका नरसंहार किया गया। हरारी आगाह करते हैं कि भूकम्प आने वाला है हमें सावधान हो जाना चाहिए। प्रौद्योगिकी की गुलामी के ख़तरे के प्रति महात्मा गांधी ने भी आगाह किया था। तब लोगों ने उन्हें मध्ययुगीन व्यक्ति कहकर खारिज कर दिया था। आज फिर से मनुष्य को सचेत होने की ज़रूरत है। उसे सूचनाओं से सीमित विवेक ही मिलेगा। सूचनाएं जितना विवेक देती हैं उससे ज्यादा मार देती हैं। विवेक के लिए उसे संस्कृति के श्रेष्ठ मूल्यों को समझना होगा और उन सूत्रों को आगे बढ़ाना होगा जिनके चलते हम सेपियन्स कहलाए और यहां तक पहुंचे हैं और अपने को सुरक्षित रखे हुए हैं। यह प्रेम और सत्य के मूल्यों के आधार पर ही हो सकता है।