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    Home » पसमांदा मुसलमानों का रुझान किस ओर? क्या बिहार में बदलेगा मुस्लिम वोटों का ट्रेंड? जानें किसको मिलेगा इनका समर्थन
    राजनीति

    पसमांदा मुसलमानों का रुझान किस ओर? क्या बिहार में बदलेगा मुस्लिम वोटों का ट्रेंड? जानें किसको मिलेगा इनका समर्थन

    Janta YojanaBy Janta YojanaMay 17, 2025No Comments5 Mins Read
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    Bihar Pasmanda Muslim Vote 2025

    Bihar Pasmanda Muslim Vote 2025

    Bihar Pasmanda Muslim Vote 2025: जब भी चुनाव नज़दीक आते हैं, हर राजनीतिक दल की नजर एक खास वोट बैंक पर टिकी होती है मुस्लिम वोट बैंक। दशकों से यह माना जाता रहा है कि भारत में मुसलमान किसी एक खास पार्टी के प्रति वफादार रहते हैं। लेकिन अब इस वोट बैंक के भीतर एक नई हलचल है, एक नया बंटवारा, जो बहुत गहराई से सियासी समीकरणों को झकझोर सकता है। और यह बंटवारा है ‘अशराफ’ और ‘पसमांदा’ मुसलमानों का। आपने इन नामों को कम ही सुना होगा, लेकिन अब यही नाम राजनीतिक बहस के केंद्र में आ गए हैं। ‘पसमांदा’ एक शब्द जो खुद में एक लंबी सामाजिक और आर्थिक कहानी समेटे है। यह वो मुसलमान हैं जो सामाजिक दृष्टि से पिछड़े माने जाते हैं कुंजड़ा, अंसारी, मंसूरी, राइन, दर्ज़ी, नाई, फकीर जैसे तमाम जातियों से आने वाले मुसलमान। संख्या में ये भारत के मुसलमानों का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा हैं, लेकिन राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में आज भी ये हाशिए पर हैं।

    जब वोट बैंक बिखरने लगे

    सालों से यह माना गया कि मुसलमान एकजुट होकर वोट देते हैं कभी कांग्रेस को, तो कभी क्षेत्रीय दलों को। लेकिन अब पसमांदा मुसलमान यह सवाल पूछने लगे हैं “हमने वर्षों तक वोट तो दिए, लेकिन क्या मिला?” प्रतिनिधित्व उन्हीं ‘अशराफ’ मुसलमानों को मिला यानी सैयद, शेख, पठान और मलिक जैसे उच्चवर्णीय मुसलमानों को, जिनका राजनीति और धर्म दोनों पर प्रभाव रहा है। बिहार की राजनीति में यह सवाल और भी तेज़ी से उठ रहा है, क्योंकि यहां मुस्लिम आबादी लगभग 17 प्रतिशत है, और पसमांदा मुसलमानों की संख्या इसमें भी सबसे अधिक है। अब जब 2025 का विधानसभा चुनाव नजदीक है, तो यह बहस और भी मुखर हो गई है क्या पसमांदा मुसलमान अपनी राजनीतिक पहचान खुद गढ़ेंगे?

    NDA की ‘पसमांदा मुस्लिम’ रणनीति

    बीते कुछ समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने ‘पसमांदा मुसलमानों’ को लेकर कई बार बातें की हैं। एनडीए सरकार ने यह स्पष्ट रूप से दिखाने की कोशिश की है कि वो सिर्फ बहुसंख्यक वोटर के भरोसे नहीं रहना चाहती, बल्कि मुस्लिम समाज के भीतर भी उस तबके को अपना बनाना चाहती है जो अब तक खुद को राजनीतिक रूप से उपेक्षित महसूस करता रहा है। हाल के वर्षों में सरकार ने अंसारी, मंसूरी, दर्जी, नाई जैसी जातियों के प्रतिनिधियों को योजनाओं में प्राथमिकता देने और स्थानीय निकायों में स्थान देने की कोशिश की है। बिहार में भाजपा और जदयू ने भी अपने नेताओं के जरिए यह संदेश देना शुरू कर दिया है कि पसमांदा मुसलमानों की बात सुनी जा रही है।

    क्या यह रणनीति काम करेगी?

    राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पसमांदा मुसलमानों को साधना आसान नहीं है। दशकों की उपेक्षा और हाशिए की राजनीति ने इस वर्ग को गहराई से संदेहशील बना दिया है। वे अब भी इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहे कि उनकी आवाज़ को वास्तव में सुना जा रहा है या यह सब एक चुनावी जुमला है।

    लेकिन साथ ही यह भी सच है कि पसमांदा समुदाय के भीतर एक नई पीढ़ी तैयार हो रही है जो राजनीतिक रूप से अधिक मुखर है। सोशल मीडिया और जमीनी आंदोलनों के जरिए ये युवा अपनी पहचान और हिस्सेदारी की मांग कर रहे हैं।

    RJD और पसमांदा सवाल

    राष्ट्रीय जनता दल (राजद) लंबे समय तक मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण पर टिकी रही। लेकिन पसमांदा समुदाय के भीतर यह भावना घर कर रही है कि राजद ने मुस्लिमों को तो प्रतिनिधित्व दिया, लेकिन उसमें भी केवल उच्चवर्णीय अशराफों को तरजीह दी गई। राबड़ी देवी के कार्यकाल से लेकर आज तक जितने भी मुस्लिम चेहरे उभरे, उनमें से अधिकांश अशराफ वर्ग से थे। ऐसे में पसमांदा तबका सवाल उठा रहा है क्या ‘MY’ समीकरण में ‘M’ केवल एक मुखौटा था?

    AIMIM और असदुद्दीन ओवैसी की अपील

    ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के असदुद्दीन ओवैसी ने पसमांदा मुसलमानों को लेकर खुलकर बातें की हैं। बिहार के सीमांचल क्षेत्र में AIMIM का जो प्रभाव दिखा, उसका एक बड़ा कारण पसमांदा समुदाय की नाराज़गी भी रही। हालांकि, बाद में यह प्रभाव सीमित हो गया, लेकिन AIMIM ने एक बार यह जरूर साबित कर दिया कि अगर पसमांदा समुदाय को एकजुट कर लिया जाए, तो यह एक बड़ी सियासी ताकत बन सकता है।

    क्या नया राजनीतिक विकल्प बनेगा?

    बिहार में अब पसमांदा मुसलमानों के भीतर यह विचार उभर रहा है कि क्यों न अपना अलग राजनीतिक मंच तैयार किया जाए—एक ऐसा मंच जो केवल पसमांदा अधिकारों की बात करे, और उन्हें चुनावों में भागीदारी भी दे। इस विचार ने हाल ही में कई छोटे संगठनों और सामाजिक मंचों को जन्म दिया है। इन संगठनों की मांग है कि राजनीतिक दल टिकट बंटवारे में पसमांदा नेताओं को प्राथमिकता दें। और अगर नहीं दी गई, तो वे इस बार ‘बॉयकॉट’ की रणनीति भी अपना सकते हैं।

    क्या बदलेगा मुस्लिम वोट का ट्रेंड?

    अगर पसमांदा मुसलमानों का यह आंदोलन चुनावी मोर्चे पर असर डालता है, तो बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव हो सकता है। यह ना सिर्फ राजद-जदयू के लिए चिंता की बात होगी, बल्कि भाजपा और AIMIM जैसे दलों को भी अपनी रणनीति बदलनी होगी। अब तक मुस्लिम वोट बैंक को एक ‘मोनोलिथिक ब्लॉक’ के तौर पर देखा जाता था, लेकिन अब उसमें दरारें दिखने लगी हैं। अगर ये दरारें और गहरी हुईं, तो यह पूरे भारत के राजनीतिक परिदृश्य को बदल सकती हैं।

    ‘पसमांदा मुसलमानों का रुझान किस ओर?’—यह सवाल अब केवल एक चुनावी विश्लेषण नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का संकेत बन चुका है। बिहार चुनाव 2025 सिर्फ सरकार बनाने का फैसला नहीं करेगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि क्या मुस्लिम समाज अपने भीतर की विविधता को पहचानता है, और क्या पसमांदा तबका अपनी राजनीतिक हैसियत को नए सिरे से गढ़ता है। यह एक बदलाव की दस्तक है धीमी, लेकिन मजबूत। और अगर यह दस्तक दरवाजे खोलती है, तो भारतीय सियासत में एक नया अध्याय लिखा जाएगा।

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