भारत और पाकिस्तान, कभी एक ही मिट्टी के हिस्से, आज़ादी की भोर में दो अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। भारत ने लोकतंत्र, सेक्युलरिज़्म और तरक्की को चुना, तो पाकिस्तान आतंक की आग में झुलस गया। सवाल यह है कि आखिर वह आधुनिक, सभ्य राष्ट्र बनने के बजाय आतंक का आका कैसे बन गया? इसका जवाब इतिहास, सियासत और उस गठजोड़ में छिपा है, जिसने पाकिस्तान को इस दलदल में धकेला।
आतंक के अड्डे
2009 में भारत के पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर ने खुलासा किया था कि पाकिस्तान में 43 आतंकी अड्डे सक्रिय हैं। ये अड्डे पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा, पीओके, पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा में फैले हैं। इन्हें पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई हथियार, प्रशिक्षण और फंडिंग देती है। लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिज़बुल मुजाहिदीन और द रेज़िस्टेंस फ्रंट जैसे संगठन भारत विरोधी हिंसा के लिए कुख्यात हैं। ये संगठन 2008 के मुंबई हमले, 2019 के पुलवामा हमले और 2025 के पहलगाम हमले जैसे जघन्य कृत्यों के लिए ज़िम्मेदार हैं।
पाकिस्तान का दोहरा खेल
पाकिस्तान का आतंक से रिश्ता सिर्फ़ भारत तक सीमित नहीं। 2011 में अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन का एबटाबाद में मारा जाना इसका सबूत है। उसका ठिकाना पाकिस्तानी सैन्य अकादमी से महज़ एक किलोमीटर दूर था। ‘ऑपरेशन नेप्च्यून स्पीयर’ ने पाकिस्तान के दोहरे चरित्र को उजागर किया। 9/11 के बाद अमेरिका ने उसे आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध में सहयोगी माना, लेकिन उसने तालिबान और अन्य आतंकी समूहों को पनाह दी।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चेतावनी
पाकिस्तान को आतंक का समर्थक मानने वाला भारत अकेला नहीं। संयुक्त राष्ट्र ने 2008 में लश्कर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा को आतंकी संगठन घोषित किया। 2017 में हाफिज सईद और 2019 में मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी करार दिया गया। फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) ने 2018-2022 तक पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में रखा, क्योंकि वह आतंकी फंडिंग रोकने में नाकाम रहा। 2025 में पहलगाम हमले के बाद भारत ने फिर से पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डालने की माँग की। FATF की ग्रे लिस्ट ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को चरमरा दिया, 2023 में उसकी जीडीपी वृद्धि शून्य के करीब थी।
पाकिस्तानी नेताओं का कबूलनामा
पाकिस्तान के शीर्ष नेताओं ने भी आतंक से अपने रिश्ते को स्वीकार किया है। 25 अप्रैल 2025 को रक्षा मंत्री ख्वाजा मोहम्मद आसिफ ने स्काई न्यूज़ को बताया, “पाकिस्तान पिछले तीन दशकों से आतंकी समूहों का समर्थन करता रहा है। यह ग़लती थी।” 2 मई को बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने भी कहा, “पाकिस्तान का आतंकी समूहों के साथ अतीत रहा है।” ये बयान पाकिस्तान की नीतियों का नंगा सच हैं।
भारत विरोध की सनक
पाकिस्तान की भारत विरोधी नीति की जड़ें 1947 के बँटवारे में हैं। जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत ने नफरत की नींव रखी। भारत और पाकिस्तान के पास तरक्की का समान मौका था, लेकिन जहाँ भारत ने लोकतंत्र और सेक्युलरिज़्म चुना, वहीं पाकिस्तान भारत को नुक़सान पहुँचाने की सनक में डूब गया। चार युद्ध—1947-48, 1965, 1971 और 1999—इसकी गवाही देते हैं। 1971 की हार ने पाकिस्तान को सबसे बड़ा झटका दिया। इसके बाद ISI ने प्रॉक्सी वॉर शुरू की, जिसका नतीजा कश्मीरी उग्रवाद है।
ज़िया की नीति: हजार घावों से खून बहाओ
1971 के बाद जनरल ज़िया उल हक़ ने “Bleed India with a Thousand Cuts” की नीति अपनाई। इसका मकसद आतंकवाद और घुसपैठ से भारत को अस्थिर करना था। ज़िया ने पाकिस्तान का उग्र इस्लामीकरण किया, जिसने आतंकियों को वैचारिक आधार दिया। आज के आतंकी हमले इसी नीति का नतीजा हैं। लेकिन इसने पाकिस्तान को बदनामी, आर्थिक बदहाली और मुल्ला-मिलिट्री गठजोड़ की गुलामी दी।
पाकिस्तान को क्या मिला?
78 सालों में पाकिस्तान ने 31 साल सैन्य तानाशाहों के अधीन बिताए। लोकतंत्र कमज़ोर रहा, ज़मींदारों और धार्मिक नेताओं का दबदबा कायम है। गरीब जनता को भारत विरोध का सपना दिखाकर बहलाया जाता है। दूसरी ओर, भारत ने वैश्विक मंच पर अपनी सशक्त पहचान बनाई। पाकिस्तान चाहता तो भारत के साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कर सकता था, लेकिन नफरत की बुनियाद पर बना उसका सपना बबूल का पेड़ ही दे सका।
ऑपरेशन सिंदूर का सबक
7 मई 2025 को विंग कमांडर व्योमिका सिंह और कर्नल सोफिया कुरैशी ने ऑपरेशन सिंदूर की जानकारी दी। उनकी मौजूदगी ने पाकिस्तान के नापाक इरादों को उजागर किया और जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत को खारिज किया। यह तस्वीर बताती है कि हिंदू और मुसलमान न सिर्फ साथ रह सकते हैं, बल्कि देश के लिए एक साथ जान भी दे सकते हैं।
पाकिस्तान के पास मौक़ा था कि वह तरक्की और तहज़ीब की मिसाल बनता। लेकिन उसने नफरत की राह चुनी। आज बलूचिस्तान अलग होने को मचल रहा है, और जिन्ना का द्विराष्ट्र सिद्धांत बांग्लादेश के जन्म के साथ ही दफन हो चुका। भारत ने संविधान को आधार बनाया, जबकि पाकिस्तान आतंक की राह पर चल पड़ा। सवाल यह है कि क्या वह अब भी सबक़ लेगा, या नफ़रत की आग में और झुलसेगा?