इतिहास के जिस मोड़ पर पाकिस्तान खड़ा है, वहाँ से सिर्फ़ दो रास्ते जाते हैं- या तो वह 1971 को याद करे, या फिर दोहराए।
ऑपरेशन सिंदूर भारत का जवाब था उस नृशंस हमले पर जिसमें पहलगाम की घाटियों में 26 निर्दोष सैलानी पाकिस्तानी प्रायोजित आतंक का शिकार बने। लेकिन यह सिर्फ जवाब भर नहीं था- यह एक चेतावनी थी।
पाकिस्तान ने न सिर्फ जवाबी संयम की सीमाएं तोड़ीं, बल्कि आतंकियों के जनाजे में उसकी वर्दी और जनरल भी कंधा देते दिखे—मानो यह “राष्ट्र के नायक” हों!
भारत अब भी संयम में है, पर यह वो पुराना भारत नहीं, जो बार-बार इतिहास की भूलों को सहता रहे।
“जब देश अपने धैर्य की तलवार म्यान से बाहर निकालता है, तो इतिहास खुद क़लम थाम लेता है।”
1971 की आग में जिस तरह पाकिस्तान के झूठे गौरव का नकाब जला था, अगर वो न भूले, तो बेहतर होगा।
पाकिस्तान के 9 आतंकी ठिकानों पर भारत का सैन्य स्ट्राइक ऑपरेशन सिंदूर पहलगाम में हुए उस आतंकी हमले के जवाब में था, जिसमें भारत के 26 निर्दोष, निहत्थे सैलानी मारे गये थे। लेकिन जवाब में जहां पाकिस्तान ने न सिर्फ भारत के 36 सैन्य और नागरिक ठिकानों पर करीब 400 मिसाइलों और ड्रोनों से हमले किये, बल्कि भारत के सैन्य स्ट्राइक में मारे गये आतंकवादियों के जनाजे में पाकिस्तानी सेना का शीर्ष नेतृत्व खड़ा नज़र आया।
आतंक को पाकिस्तानी सेना के साफ़ समर्थन की ये तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखीं। भारत लगातार संयम बरत रहा है। लेकिन पाकिस्तान बाज नहीं आ रहा।
“इतिहास जब चुप रहता है, तब भूल करने वालों को अपनी ही गूंज सुनाई देती है।”
पाकिस्तान आज भी वही कर रहा है, जो उसने 1971 में किया था—भारत की सहनशीलता की परीक्षा। और शायद उसे फिर याद दिलाने की ज़रूरत है कि भारत जब इतिहास लिखता है, तो वह सिर्फ स्याही से नहीं, हमारी वीर सेना के लहू और जनता के विश्वास से चुने राजनेताओं के नेतृत्व से लिखता है।
ऑपरेशन सिंदूर: संयम के सीने पर फिर चोट
22 अप्रैल, 2025 को पहलगाम में हुए आतंकी हमले के जवाब में भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ आरंभ किया—एक सैन्य अभियान जो संयम की चादर के नीचे लपट बनकर फूटा। 7 मई की रात को शुरू हुआ यह ऑपरेशन अभी चल रहा है, और अब तक 100 से अधिक आतंकवादी मारे जा चुके हैं।
पाकिस्तान ने फिर गलती की। भारत के सैन्य और नागरिक ठिकानों पर करीब 400 मिसाइलों और ड्रोनों से हमला किया। भारत फिर भी संयम बरत रहा है। पर क्या यह संयम अंतहीन रहेगा? पाकिस्तान को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि भारत चुप रहेगा, कूटनीति की चादर ओढ़ेगा, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच खामोश अपील करता रहेगा।
इतिहास बताता है—भारत देर से बोलता है, पर जब बोलता है तो भूगोल बदल जाता है।
आज पाकिस्तान की सेना आतंकवादियों के जनाज़ों में शरीक हो रही है, उन्हें कंधा दे रही है, जबकि वो ख़ुद देश के भीतर बिखराव के कगार पर खड़ा है।
बलोचिस्तान जल रहा है, खैबर पख्तूनवा में लोगों की चीखें पाकिस्तानी राष्ट्रवाद को धिक्कार रही हैं। गिलगित-बाल्टिस्तान के पहाड़ों से आवाज़ आ रही है—“हमें भारत के साथ होना चाहिए था।” कुछ वैसी ही आवाज़ें, जैसी 1971 में बंगालियों ने दी थीं।
1971 में भी पहला वार पाकिस्तान ने किया था
3 दिसंबर 1971 की रात, पाकिस्तान ने एक बार फिर वही किया था, जिसमें वो माहिर रहा है—पीठ पीछे वार। भारतीय वायुसेना के अमृतसर, पठानकोट, श्रीनगर, जोधपुर, आगरा जैसे 11 सैन्य ठिकानों पर एक साथ हवाई हमले कर दिए। जनरल याह्या खान ने सोचा कि भारत को चौंकाकर वह पूर्वी पाकिस्तान में बर्बर सैन्य कार्रवाई जारी रख सकेगा। लेकिन यह हमला भारत के लिए निर्णायक मोड़ बन गया।
इंदिरा गांधी ने उसी क्षण देश को संबोधित करते हुए कहा, “पाकिस्तान ने युद्ध छेड़ दिया है, अब भारत उसे समाप्त करेगा।”
भारत इसलिए भी चुप नहीं रह सकता था, क्योंकि लाखों बंगाली शरणार्थी सीमाओं पर थे, हर दिन भारत के गांवों में पाकिस्तानी बम गिर रहे थे, और दूसरी ओर ढाका की गलियों में इंसानियत का जनसंहार चल रहा था।
25 मार्च 1971 की रात को, जब जनरल टिक्का खान ने ऑपरेशन सर्चलाइट के तहत ढाका पर हमला बोला, तो अनुमान है कि 30 लाख लोग मारे गए, जिनमें क़रीब 20 लाख हिंदू थे। करीब 2 से 4 लाख बंगाली महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ।
रॉबर्ट पेन की पुस्तक इस नरसंहार की गवाही देती है। टाइम मैगज़ीन ने टिक्का खान को ‘Butcher of Bangladesh’ की संज्ञा दी थी। एक दिल दहलाने वाली घटना में, टिक्का खान ने एक ही रात में 7000 निर्दोष नागरिकों को मरवा डाला। ढाका के एक चर्च से बाहर घसीटकर एक पादरी को गोलियों से भून दिया गया क्योंकि उसने बच्चों को शरण दी थी।
- करीब 30 लाख लोग मारे गए, जिनमें 20 लाख हिन्दू थे।
- 2 से 4 लाख बंगाली महिलाओं का बलात्कार हुआ।
- टाइम मैगज़ीन ने टिक्का खान को “Butcher of Bangladesh” की संज्ञा दी।
- ब्रिटिश पत्रकार रॉबर्ट पेन ने इस नरसंहार को “मानव सभ्यता पर कलंक” कहा।
ऐसे में भारत का उतरना कोई आक्रामक विकल्प नहीं, बल्कि नैतिक, मानवीय और राष्ट्रीय सुरक्षा की पुकार थी। युद्ध लादा गया था, भारत ने केवल उसका उत्तर दिया—ऐसा उत्तर जो इतिहास बन गया।
जब 10 मिलियन शरणार्थी भारत आए, तो पश्चिम बंगाल के आम हिंदूओं ने अपने घरों के दरवाज़े खोल दिये। ये मानवता थी, जो पाकिस्तान की हैवानियत के खिलाफ खड़ी थी।
तब भारत का नेतृत्व विपक्ष की निगाह में गूंगी गुड़िया इंदिरा गांधी कर रही थीं। तब इंदिरा गांधी नेतृत्व की एक बेमिसाल उदाहरण बनकर उभरीं, जो समय से ऊपर थी।
बात 6 जुलाई 1971 की है।
बांग्लादेश की धरती पर पाकिस्तानी सेना का बर्बर नाच, भारत की सीमाओं पर लाखों शरणार्थियों की कतारें, और दिल्ली के दरवाज़े पर दस्तक देता अमेरिका।
दरअसल, अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने पाकिस्तान को चीन से जोड़ने वाले “गुप्त गलियारे” के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। याह्या खान उनके लिए “काम का तानाशाह” था। भारत उन्हें “मोरल स्पॉइलर” लगने लगा था। तो तय हुआ कि भारत को रोका जाए।
किसिंजर दिल्ली पहुँचे। अमेरिका के सारे दबाव, सारे नखरे, और चेतावनियाँ लेकर। उन्हें लगा कि नेहरू की बेटी अब भी ‘कमज़ोर लोकतंत्र’ वाली भाषा में बात करेगी। पर वो भूल गये थे कि सामने इंदिरा गांधी थीं—एक ऐसी नेता जो चाय नहीं, जवाब परोसती थीं।
बैठक शुरू हुई। इंदिरा ने पहले तो हालात की गंभीरता बताई। खूब समझाने की कोशिशें की। लेकिन किसिंजर ने वही पुराना राग छेड़ा—”war is not a solution”, “you must show restraint”, “Washington is watching.”
बैठक से पहले ही इंदिरा गांधी ने निर्देश दिया था “सैम को बुला लो। फुल ड्रेस में।” सैम पहले तो चौंके। नाश्ते पर फुल ड्रेस में? लेकिन ऑर्डर था तो हाजिर हो गये। पूरे सैनिक लिबास में सज-धज कर और बैठ गये किसिंजर के ठीक सामने —पीठ सीधी, मूंछें ऊँची, और आंखों में चमक।
किसिंजर के जवाब पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं—पर वो ‘कोमल मुस्कान’ नहीं, ‘धूप के बादल’ जैसी थी। नाश्ते की मेज पर सामने बैठे जनरल सैम मानेकशॉ की तरफ उंगली दिखाते हुए इंदिरा ने कहा—“ठीक है, अगर आप कुछ नहीं करते, तो मैं इन्हें कुछ करने के लिए कह दूँ?”
किसिंजर चौंके। कक्ष में कुछ सेकंड सन्नाटा रहा।
और सैम मुस्कराए, “Madam, I always follow orders.”
यह कोई मज़ाक नहीं था।
यह एक न्यूक्लियर-सुपरपावर को दी गई “सावधान रहो” की कूटनीतिक चेतावनी थी—बिना शोर, बिना धौंस, पर पूरी गरिमा के साथ। इस छोटे से क्षण ने बता दिया कि भारत अब गुटनिरपेक्ष होने का मतलब “गूंगा” या “कमज़ोर” नहीं समझता था। अमेरिका समझ गया कि इस बार भारत झुकने वाला नहीं है।
किसिंजर के जाने के बाद इंदिरा ने जनरल सैम से कहा—“घुस जाओ”। सैम बोले, “मैडम, आज नहीं। हमें थोड़ा वक्त चाहिए। पर जीत आपकी होगी।” यह संवाद इतिहास की ध्वनि बन गया।
अब अगली चुनौती अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर थी।
इंदिरा गांधी चार पश्चिमी देशों की यात्रा पर निकलीं—अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी। पर हर दरवाज़ा बंद मिला। तब उन्होंने कहा था: “अगर दुनिया मानवाधिकारों की रक्षक नहीं बन सकती, तो भारत अकेला खड़ा रहेगा—मानवता के साथ।”
लेकिन सोवियत संघ ने दरियादिली दिखाई। भारत ने सोवियत संघ के साथ 9 अगस्त 1971 को ‘मैत्री और सहयोग संधि’ पर हस्ताक्षर किये, जिसमें एक-दूसरे की रक्षा के लिए सहयोग का स्पष्ट प्रावधान था। इंदिरा गांधी का यह कदम एक ऐसा कूटनीतिक मास्टरस्ट्रोक था, जो चीन और अमेरिका दोनों को रणनीतिक लकवा देने जैसा था।
भारत ने तब भी संयम रखा था लेकिन 3 दिसंबर 1971 की रात, पाकिस्तान ने भारत की पश्चिमी सीमा के 11 हवाई अड्डों पर एक साथ हमला किया। जब भारतीय वायुसेना और थलसेना ने जवाबी कार्रवाई शुरू की, तो पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र की शरण ली। इस्लामाबाद को उम्मीद थी कि अब उसके दो “महाबली दोस्त”—चीन और अमेरिका—उसे कंधे पर उठा लेंगे। लेकिन कहानी कुछ और ही निकली।
चीन, जिसे पाकिस्तान “आयरन ब्रदर” और “सदैव-प्रिय मित्र” कहता था, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मौन धारण कर गया। न कोई प्रस्ताव, न कोई निंदा, न कोई “भारत वापस जाओ” वाला बयान। बीजिंग की सारी आक्रामकता धूप में रखी बर्फ सी पिघल गई।
तब क्यों चुप रहा चीन?
क्या बीजिंग ने उन ‘पाँच सिद्धांतों’ का पालन किया, जिसे जवाहरलाल नेहरू और चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने पंचशील समझौते के रूप में किया था। या कारण कुछ और थे।
भारत-रूस संधि का असर: अगस्त 1971 में भारत ने सोवियत संघ से 20 साल की मैत्री संधि की थी। चीन जानता था कि अगर वो भारत के खिलाफ आगे बढ़ा, तो उसे सोवियत टैंक और परमाणु छायाएं झेलनी पड़ेंगी।
1969 की याद: चीन और सोवियत संघ के बीच दो साल पहले उइगुर सीमा पर खूनी झड़पें हो चुकी थीं। चीन उस तनाव को दोबारा नहीं भड़काना चाहता था।
भारत अब 1962 का भारत नहीं था: ये अब इंदिरा गांधी और सैम मानेकशॉ का भारत था, जिसने सीमा पर हर मोर्चे पर तैयारी कर रखी थी।
पाकिस्तान यह नहीं समझ सका कि जिस ड्रैगन से वह आग की उम्मीद कर रहा था, वह केवल धुआँ छोड़ रहा था। चीन के मौन ने भारत को राजनयिक और सैन्य छूट दे दी। भारत ने महज 13 दिनों में इतिहास रच दिया।
1971 की हार पाकिस्तान की कोई साधारण सैन्य पराजय नहीं थी—वो रणनीतिक, कूटनीतिक और नैतिक स्तर पर पूरी तरह नग्न हो जाने की शर्मनाक गाथा थी।
वो 16 दिसंबर 1971 का दिन था, जब ढाका के रेसकोर्स मैदान में भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल ए. ए. के. नियाज़ी ने 93,000 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया था। यह केवल एक सैन्य पराजय नहीं थी—यह एक राष्ट्र की आत्मा के नंगे हो जाने की त्रासदी थी।
1971 में 93 हजार पाक सैनिकों का क्या हाल हुआ था?
पहलगाम में निहत्थे सैलानियों को धर्म पूछकर मारने वाले आतंकियों के आका पाकिस्तान को याद रखना चाहिए कि 1971 में उसके 93 हजार सैनिकों के पैंट उतरवाये गये थे। उनके हथियार डालने और पैंट डाउन सेरेमनी के गवाह जनरल एके नियाजी भी थे, जिसके वीडियो आज भी लोग देखते हैं। यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। एक देश की पूरी सेना, हथियार समेत घुटनों पर थी।
पाकिस्तान को उसके दुस्साहस का जवाब मिला—एक स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश के रूप में।
पाकिस्तानी सेना के वहशी टिक्का खान की तरह नरसंहार करने वाले पाकिस्तान को इतिहास याद दिलाना जरूरी है कि हमेशा भारत के साथ युद्ध की नींव उसने खुद डाली है।
फर्क इतना है कि तब भारत को अमेरिका जैसे सुपरपावर का सामना करना पड़ा था, और आज पाकिस्तान के पीछे चीन, तुर्किये और चंद इस्लामिक देश खड़े हैं।
लेकिन भारत अब 1971 वाला भारत नहीं
भारत अब कहीं अधिक तैयार है। उस समय भारत अकेला था, पर इरादा बुलंद था। आज भारत संगठित भी है, और निर्णायक भी। अब भारत के पास सिर्फ सेना नहीं, डिजिटल युद्ध, साइबर शक्ति, अंतरिक्ष से निगरानी, और रणनीतिक गठबंधन भी हैं।
और सबसे बड़ी बात—जनता का विश्वास है, जो अब कह रहा है— “बहुत हुआ संयम। अब इतिहास दोहराओ।”
आज की भारतीय सेना सिर्फ बंदूक नहीं चलाती, इतिहास का वारिस है। और जो इतिहास को नहीं समझते, वे खुद को दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।
अगर पाकिस्तान 1971 को नहीं याद रखता, तो आने वाली तारीखें फिर उसे मजबूर कर देंगी, घुटनों के बल खड़ा होने के लिए।
क्या बलोचिस्तान बनेगा अगला बांग्लादेश?
1971 में ढाका के बुद्धिजीवी कहते थे—“हमें पाकिस्तान नहीं चाहिए।”
आज क्वेटा में बलोच कहते हैं—“पाकिस्तान ज़िंदाबाद एक गाली है।”
खैबर पख्तूनवा में लोग कहते हैं—“हम तो अफगान हैं, पाकिस्तान नहीं।”
पाकिस्तान की सत्ता इस विभाजन को पहचानने से डरती है, लेकिन सच यह है कि उसका अपना देश आज वैसे ही दरक रहा है, जैसे 1971 में टूटा था।
बलोच छात्र नेता अल्लाह नज़र बलोच ने 2024 में एक बयान दिया: “हम भारत से युद्ध नहीं चाहते। हम भारत से वो सम्मान चाहते हैं, जो पाकिस्तान कभी नहीं दे सका।”
ये वो स्वर हैं, जिन्हें पाकिस्तान इतिहास मान कर नज़रअंदाज़ करता है। लेकिन भारत उन्हें पहचानता है। यही पहचान, आने वाले वर्षों में फिर एक नए युग की रचना कर सकती है।
सवाल अब यह नहीं कि भारत जवाब देगा या नहीं—सवाल यह है कि पाकिस्तान अपनी कब्र खुद कितनी गहराई से खोदेगा?
अब कार्रवाई शेष है
पाकिस्तान उकसा रहा है और भारत संयम तोड़ने के कगार पर है।
अगर पाकिस्तान को लगता है कि ड्रोन और प्रॉक्सी युद्ध उसे जीत दिला देगा, तो उसे अपने ही इतिहास में झांकना चाहिए—जहाँ हर दुस्साहस का जवाब भारत ने निर्णायक ढंग से दिया।
1971 में भारत ने पाकिस्तान को सिर्फ हराया नहीं था, उसे उसके ही पापों से निर्वस्त्र किया था।
आज फिर समय वही है—मंच वही है—पात्र वही हैं—और शायद पटकथा भी। फर्क इतना है कि इस बार भारत की कलम इतिहास नहीं, भविष्य लिख रही है।