क्या किसी अपराध को कम करने या ख़त्म करने के लिए कड़ा से कड़ा नियम बनाना काफ़ी है क्या सख़्त क़ानून के डर से अपराध कम होने की बात की पुष्टि अब तक किसी भी रिपोर्ट या सर्वे में हुई है और यदि ऐसा नहीं तो क्या दुष्कर्म के लिए फाँसी की सज़ा तय कर देने से अपराध कम हो जाएगा
ये वो सवाल हैं जिस पर क़ानून के जानकार बंगाल में बलात्कार विरोधी विधेयक पास किए जाने पर सवाल उठा रहे हैं। कानूनी विशेषज्ञों ने इस बात पर जोर दिया है कि सख्त सजा एक समाधान के रूप में कार्य नहीं करती है और अपराध की दर को कम नहीं करती है। क़ानून के जानकारों ने अपराजिता विधेयक नाम वाले इस बिले में मृत्युदंड के प्रावधान को कोलकाता बलात्कार और हत्या की ‘आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया’ यानी बिना सोची समझी प्रतिक्रिया करार दिया है।
कोलकाता बलात्कार और हत्या मामले पर विवाद के बीच पश्चिम बंगाल विधानसभा ने मंगलवार को सर्वसम्मति से बलात्कार विरोधी विधेयक को पास कर दिया है। ममता सरकार ने इसके लिए पश्चिम बंगाल विधानसभा का दो दिवसीय विशेष सत्र बुलाया। विधेयक का विपक्षी दल बीजेपी ने भी समर्थन किया।
बलात्कार विरोधी विधेयक पारित होने के बाद सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी भाजपा ने इसके शीघ्र क्रियान्वयन के लिए एक-दूसरे के पाले में गेंद डाल दी। चूँकि आपराधिक कानून समवर्ती सूची में आता है, इसलिए इस कानून को राष्ट्रपति की मंजूरी की ज़रूरत होगी। ममता बनर्जी इस पहलू से अच्छी तरह वाकिफ थीं, जब उन्होंने विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी से कहा कि वे बंगाल के राज्यपाल से इस कानून पर जल्द से जल्द हस्ताक्षर करवाएँ। अधिकारी ने अपने भाषण में कहा कि इस क़ानून को लागू करवाना राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है।
मंगलवार को राज्य विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित विधेयक में भारतीय न्याय संहिता यानी बीएनएस के तहत पांच अपराधों में संशोधन का प्रस्ताव है और इसमें पांच अपराधों के लिए मौत की सजा का प्रावधान है। इस विधेयक में बीएनएस और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 में संशोधन का प्रस्ताव है, जांच के लिए अपराजिता टास्क फोर्स के गठन और ऐसे अपराधों के लिए सुनवाई करने के लिए विशेष अदालतों की स्थापना की ज़रूरत पर जोर दिया गया है।
इन प्रावधानों पर क़ानून के जानकारों ने प्रतिक्रिया दी है। द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश अशोक कुमार गांगुली ने कहा कि ऐसे अनुभवजन्य अध्ययन हुए हैं, जिनसे यह साबित होता है कि सख्त सजा से अपराध की दर में कमी नहीं आती। जस्टिस (सेवानिवृत्त) गांगुली ने कहा कि पहले से ही सख़्त क़ानून हैं और उन्हें ठीक से लागू किया जाना चाहिए।
हालाँकि राज्य सरकार को समवर्ती सूची के अंतर्गत आने वाले आपराधिक कानूनों में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन जस्टिस गांगुली ने कहा कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद 161 के तहत क्षमादान और सजा में कमी के अधिकार को नहीं छीन सकता, जिसके तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल क्षमादान दे सकते हैं। उन्होंने कहा, ‘यह कानून बिना सोचे समझे बनाया गया है।’
अंग्रेज़ी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार पीड़ित के परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता विकास रंजन भट्टाचार्य ने कहा कि किसी भी अपराध में दोषसिद्धि जांच पर निर्भर करती है और इस मामले में पुलिस द्वारा समझौतापूर्ण जांच के आरोप लगाए गए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार भट्टाचार्य ने कहा, ‘यह एक झटके में लिया गया कदम है। मृत्युदंड कोई दंड नहीं है और यह किसी भी तरह से समाधान का काम नहीं करता है। दंड व्यक्ति के सुधार के लिए होना चाहिए।’ अधिवक्ता ने कहा कि मानव जीवन बहुत कीमती है और मृत्युदंड देना एक औपनिवेशिक प्रथा है जिसे समाप्त किया जाना चाहिए।
9 अगस्त से हड़ताल पर बैठे आरजीकेएमसीएच के प्रदर्शनकारी रेजिडेंट डॉक्टरों ने विधेयक को एक लोकलुभावन उपाय बताया और कहा कि अधिक सजा से यौन उत्पीड़न के मामलों में दोषसिद्धि कम होगी।