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    Home » `बिदेसिया और `अंकल वान्या’- दो आधुनिकताएँ
    भारत

    `बिदेसिया और `अंकल वान्या’- दो आधुनिकताएँ

    By January 30, 2025No Comments5 Mins Read
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    यहां `बिदेसिया’ को आधुनिक नाटक क्यों कहा जा रहा है वो इसलिए कि जो बात इसमें कही गई है, उसका एक ऐतिहासिक प्रसंग है। जब इसकी रचना हुई या जब ये पहली बार खेला गया तो भारत एक उपनिवेश था और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई चल रही थी। उपनिवेशकालीन भारत में स्थानीय स्तर पर रोजगार की समस्या थी। खासकर बिहार मे जहाँ के भिखारी ठाकुर रहनेवाले थे। उस समय के बिहार में कई सारे पुरुष रोजगार की तलाश में कोलकोता (तब कलकत्ता), रंगून आदि चले जाते थे। कुछ तो एग्रीमेंट लेबर, स्थानीय बोलियों में गिरमिटिया मज़दूर, बन के फिजी-गायना भी चले जाते थे। इन सबको ही भोजपुरी में बिदेसिया कहा जाता था। `बिदेसिया’ नाटक में एक ऐसे परिवार की कथा है जिसका पुरुष बिदेसिया हो गया है। बिदेसिया के घर पर पत्नी होती है, अकेली। पति कई बरस बाद वापस लौटता है। कुछ बार दूसरी पत्नी के साथ। इसलिए `बिदेसिया’ नाटक में भारत मे पीड़ित पत्नी (या ये कहें कि पत्नियों की गाथा) है।
    बेशक ये एक बेहतर प्रस्तुति है और संजय उपाध्याय खुद भी संगीत प्रधान नाटक करने के लिए मशहूर हैं, इसलिए नाटक की कहानी के अतिरिक्त गायन और नाच वाला पक्ष भी बहुत अच्छे रूप से उभरा। पर कई बार होता ये है कि गायन और नृत्य के आलोक में दर्शक ये भूल जाता है कि जिस बात की अभिव्यक्ति यहां हो रही है उसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य क्या है। उस परिप्रेक्ष्य को जानने के बाद ही ये समझ में आता है कि भिखारी ठाकुर के नाटकों का ऐतिहासिक सच और अर्थ क्या है और क्यों उनको आधुनिक नाटककार मानना चाहिए न कि लोक नाटककार। उनके द्वारा तैयार या रचे गए सभी नाटकों में उनकी सहानुभूति औरतों के पक्ष मैं है। संजय उपाध्याय द्वारा निर्देशित इस नाटक में भी ये मौजूद है।

    अब बात करें `अंकल वान्या’ की। चेखव के नाटकों ने बीसवीं सदी के विश्व रंगमंच को आधुनिक भावबोध में ढाला। चेखव रूसी थे लेकिन उनके नाटक इंग्लैंड सहित यूरोप के दूसरे देशों में पहुँचे और फिर भारत में भी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब इंग्लैंड का रंगमंच रूढ़िग्रस्त हो गया था तब स्तालिनवाद के मारे कुछ रूसी निर्देशक इंग्लैंड और अमेरिका में सक्रिय हुए जिनका विश्वव्यापी प्रभाव पड़ा। वही निर्देशक चेखव को रूस के आगे भी ले गए।

     - Satya Hindi

    बहरहाल, `अंकल वान्या’ तक बात सीमित रखें तो ये उदासी, अकेलेपन और अतृप्ति का नाटक है। प्रकृति को बचाने की चिंता करनेवाला भी। भारंगम हुई इसकी प्रस्तुति हैदराबाद विश्वविद्यालय के नाटक विभाग के छात्रों की थी। ये एक बहुभाषी प्रस्तुति थी जिसमें हिंदी के अलावा अंग्रेजी, तमिल, तेलगु आदि भाषाओं का भी प्रयोग हुआ। पर लगभग अस्सी फ़ीसदी संवाद हिंदी में थे इसलिए दिल्ली के दर्शकों को समझने में परेशानी नहीं हुई।

    इस नाटक का नाम वान्या नाम के जिस चरित्र पर रखा गया है, वह तत्कालीन रूस के एक गांव में प्रोफेसर अलेक्सांद्र सेरब्रीकोफ की जमीन-जायदाद की देखभाल करता है। वान्या की बहन की शादी प्रोफेसर से हुई थी। लेकिन बहन का निधन हो गया। प्रोफेसर ने पहली पत्नी के निधन के बाद येलेना नाम की लड़की से दूसरी शादी कर ली। येलेना से वान्या मन ही मन प्यार करता था लेकिन कभी प्रेम- निवेदन नहीं कर पाया। प्रोफेसर की पहली पत्नी से जो बेटी है उसका नाम सोन्या है और वो अपने मामा यानी वान्या के साथ ही गांव में रहती है। गाँव के क़रीब एस्तोफ नाम का एक युवा डॉक्टर रहता है जिसे सोन्या मन ही मन चाहती है। लेकिन वो सोन्या को नहीं चाहता और उसके आकर्षण के केंद्र मे प्रोफेसर की दूसरी पत्नी येलेना है जिसके दिल में भी डॉक्टर के लिए यही भावना है। प्रोफेसर चाहता है कि गांव की अपनी जमीन-दायदाद बेच दे क्योंकि खेती से लाभ नहीं हो रहा है। पर वान्या ये नहीं चाहता और फिर दोनों में झगड़ा भी होता है। झगड़े के बाद प्रोफेसर अपनी दूसरी पत्नी के साथ वापस शहर चला जाता है।

    जैसा कि पहले कहा गया `अंकल वान्या’ में कई तरह की अतृप्तियां है। वान्या अतृप्त है क्योंकि एक तो उसे लगता है कि उसकी बहन की संपत्ति को प्रोफेसर हड़पना चाहता है और दूसरे इस कारण को वो येलेना को अपनी पत्नी नहीं बना सका। येलेना भी अतृप्त है क्योंकि वो खुद भी डॉक्टर के प्रति आकर्षित है। डॉक्टर का भी यही हाल है और सोन्या आखिर में अपने मामा यानी वान्या से कुछ आशा भरे वाक्य बोलती है पर वो भी भीतर आशा खो चुकी है।

    चेखव के चरित्र बिल्कुल व्यावहारिक जीवन के उठाए गए हैं और उनके भीतर अकेलापन पसरा हुआ है। उनकी ज़िंदगी में कोई उत्साह और उमंग नहीं है। अपने समय की रूसी ज़िंदगी को जिस तरीक़े से चेखव ने पेश किया वो य़थार्थवादी अभिनय का एक बड़ा माध्यम बन गया। चेखव में एक खास तरह का हास्य भी है जिसमें वेदना भी मिली होती है और वो `अंकल वान्या’ की इस प्रस्तुति में भी है। निर्देशक ने इस नाटक में भारतीयता के पुट भी डाल दिए हैं। उदाहरण के लिए वान्या और प्रोफ़ेसर जब आपस में झगड़ते हैं तो दोनों अपनी अपनी कमीजें पूरी तरह खोल देते हैं। एक तरह से उस वक़्त उनका सलमानखानीकरण हो जाता है। कमीजें उतारकर भिड़ने का। ये भारत जैसे गर्म इलाके में संभव है लेकिन रूस के बेहद ठंडे इलाके में नहीं।

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