बिलकिस बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से गुजरात सरकार को झटका दिया है। इसने कहा है कि उसके द्वारा की गई राज्य सरकार की आलोचना वाली टिप्पणी नहीं हटेगी। बिलकिस बानो केस के दोषी 11 लोगों को दी गई छूट को लेकर शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार पर तीखी टिप्पणी की थी। राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पिछली कुछ टिप्पणियाँ हटाने की मांग वाली याचिका दायर की थी। इसे अदालत ने गुरुवार को खारिज कर दिया।
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा, ‘समीक्षा याचिकाओं, चुनौती दिए गए आदेश और उनके साथ संलग्न दस्तावेजों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि रिकॉर्ड में कोई ऐसी गड़बड़ी नहीं है या समीक्षा याचिकाओं में कोई ऐसा गुण नहीं है जिसके कारण आदेश पर पुनर्विचार किया जाए।’
अपनी याचिका में गुजरात सरकार ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में राज्य को ‘सत्ता के हड़पने’ और ‘विवेक के दुरुपयोग’ का दोषी ठहराकर रिकॉर्ड के मद्देनज़र साफ़ तौर पर त्रुटि की है, क्योंकि उसने शीर्ष अदालत की एक अन्य पीठ के आदेश का अनुपालन किया है।
हालाँकि, जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने इस पर असहमति जताई। इसने कहा की समीक्षा याचिकाओं, चुनौती दिए गए आदेश और अन्य दस्तावेजों का ध्यानपूर्वक देखने के बाद हम इस बात से संतुष्ट हैं कि रिकॉर्ड में कोई त्रुटि नहीं है।
बिलकिस बानो के साथ 3 मार्च, 2002 को भीड़ द्वारा सामूहिक दुष्कर्म किया गया था। उनके परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी गई थी। हमले के दौरान मारे गए परिवार के सात सदस्यों में उसकी तीन वर्षीय बेटी भी शामिल थी। यह घटना दाहोद जिले के लिमखेड़ा तालुका में हुई थी। उस समय बिलकिस गर्भवती थीं। बिलकिस की उम्र उस समय 21 साल थी।
बिलकिस बानो मामले में उम्र कैद की सजा काट रहे 11 दोषियों को 2022 में 15 अगस्त को रिहा कर दिया गया था।
बिलकिस बानो के साथ हुए सामूहिक बलात्कार मामले में 11 दोषी जब गुजरात सरकार की छूट नीति के तहत जेल से बाहर आए थे तो उन्हें रिहाई के बाद माला पहनाई गई थी और मिठाई खिलाई गई थी। इसी रिहाई मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
सुप्रीम कोर्ट ने 11 दोषियों को रिहा करने के गुजरात सरकार के फ़ैसले को इस साल जनवरी में रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सभी 11 दोषी कोर्ट में 15 दिनों में सरेंडर करेंगे और वहां से इन्हें जेल भेजा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि गुजरात सरकार इन लोगों को रिहा करने में सक्षम नहीं है और यह निर्णय महाराष्ट्र सरकार पर निर्भर है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘छूट आदेश वैध नहीं है।’
तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि छूट आदेश में योग्यता नहीं है। उसने गुजरात सरकार को ‘बिना सोचे-समझे’ ऐसा आदेश पारित करने के लिए फटकार लगाई। कोर्ट ने यह भी कहा कि दोषियों को केवल उसी राज्य द्वारा रिहा किया जा सकता है जिसने उन पर पहली बार मुकदमा चलाया था; इस मामले में वह राज्य महाराष्ट्र था। कोर्ट ने कहा था, ‘गुजरात द्वारा सत्ता का प्रयोग सत्ता के दुरुपयोग का उदाहरण है।’
इस आदेश को पारित करते हुए कोर्ट ने मई 2022 में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी (सेवानिवृत्त) द्वारा दिए गए फैसले की भी कड़ी आलोचना की, जिसमें दोषियों को अपनी जल्दी छूट के लिए गुजरात सरकार से अपील करने की अनुमति दी गई थी। जजों ने कहा कि दोषियों ने ‘धोखाधड़ी के माध्यम से’ आदेश प्राप्त किया था। उन्होंने यह भी कहा कि गुजरात सरकार को 2022 के आदेश की समीक्षा की मांग करनी चाहिए थी।
इस साल जुलाई में भी सुप्रीम कोर्ट ने दो दोषियों- राधेश्याम भगवानदास और राजूभाई बाबूलाल- की अंतरिम जमानत याचिकाओं को खारिज कर दिया था। उन्होंने दावा किया था कि एक असामान्य स्थिति पैदा हो गई थी; यानी शीर्ष अदालत की दो अलग-अलग पीठों ने राज्य की शीघ्र रिहाई नीति पर विपरीत विचार रखे थे।
बता दें कि गुजरात ने दोषियों को 1992 की पुरानी छूट नीति के आधार पर रिहा किया था। इसे 2014 में एक कानून द्वारा बदल दिया गया जो मृत्युदंड के मामलों में दोषियों की रिहाई पर रोक लगाता है। उम्रक़ैद की सज़ा पाए लोगों को छूट देने के बारे में जो नीति गुजरात में 1992 से चल रही थी, उसमें बलात्कारियों और हत्यारों तक को 14 साल के बाद रिहा करने का प्रावधान था लेकिन 2014 के बाद जो नीति बनी, उसमें ऐसे क़ैदियों की सज़ा में छूट देने का प्रावधान हटा दिया गया।
2014 में बदलाव के बाद यह हो गया कि अगर दो लोग हैं जिनको हत्या या बलात्कार के अपराध में उम्रक़ैद की सज़ा मिली है और दोनों ने 14 साल क़ैद में गुज़ार लिए हैं तो जिसको सज़ा 2014 से पहले मिली है, वह रिहा हो सकता है और जिसको सज़ा 2014 या उसके बाद हुई है, उसे रिहाई नहीं मिलेगी।