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    Home » भारत की आजादी का श्रेय किसी एक को नहींः RSS, लेकिन क्या इससे सच बदल जाएगा
    भारत

    भारत की आजादी का श्रेय किसी एक को नहींः RSS, लेकिन क्या इससे सच बदल जाएगा

    Janta YojanaBy Janta YojanaJune 8, 2025No Comments4 Mins Read
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    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि अंग्रेजों से भारत की आजादी की “उपलब्धि” के लिए “कोई भी एक इकाई” “विशेष श्रेय” का दावा नहीं कर सकती है, उन्होंने रेखांकित किया कि यह असंख्य व्यक्तियों और समूहों के कार्यों का परिणाम है। भारत में आजादी की लड़ाई में आरएसएस की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में संघ प्रमुख भागवत का यह बयान इस बहस को तेज करेगा। 
    भागवत ने नागपुर में एक पुस्तक विमोचन के अवसर पर शुक्रवार रात को इस बात पर जोर दिया था कि स्वतंत्रता आंदोलन 1857 के विद्रोह से शुरू हुआ, जिसने एक संघर्ष को जन्म दिया, जिसके कारण भारत को आजादी मिली। उन्होंने कहा, “देश को अपनी आजादी कैसे मिली, इस बारे में चर्चा में अक्सर एक महत्वपूर्ण सच्चाई को नजरअंदाज कर दिया जाता है। यह किसी एक व्यक्ति के कारण नहीं हुआ। 1857 के बाद पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम की लपटें भड़क उठीं…”
    भागवत ने स्वतंत्रता में अनगिनत व्यक्तियों और समूहों के योगदान का हवाला दिया तथा किसी का नाम लिए बिना इस धारणा को खारिज कर दिया कि कोई एक इकाई इस उपलब्धि का “विशेष श्रेय” ले सकती है।
    बीजेपी और आरएसएस स्वतंत्रता आंदोलन में आरएसएस की भूमिका की आलोचना का मुकाबला करने के लिए ऐसे बयान जब तब देते ही रहते हैं। इससे हर बार बहस छिड़ जाती है। कई बार नेता विपक्ष और कांग्रेस के कई नेताओं ने इस बहस को इतनी धार दी कि संघ के नेता उन तर्कों को काट नहीं सके। संघ प्रमुख के ताजा बयान ने फिर से इस बहस को छेड़ दिया है। 
    इतिहास इन तथ्यों से भरा हुआ है कि आरएसएस पूरे स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहा। हालांकि अब संघ वाले दावा करने लगे हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में संघ संस्थापक केबी हेडगेवार जैसे नेताओं ने लोकमान्य तिलक के प्रभाव में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में भाग लिया था। 1921 में ब्रिटिश विरोधी भाषण के लिए एक साल की सजा पाने वाले हेगडेवार को ब्रिटिश नमक एकाधिकार के खिलाफ 1930 के आंदोलन में शामिल होने के लिए भी जेल भेजा गया था। लेकिन सच्चाई यह नहीं है जो आरएसएस के लोग बताते फिर रहे हैं।
    दरअसल, आरएसएस नेता एमएस गोलवलकर ने अपने लेखों में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन को प्रतिक्रियावादी और अस्थायी कहा था। उन्होंने कहा था कि अंग्रेजों से लड़ने की बजाय आंतरिक दुश्मनों से लड़ने की जरूरत है। उन्होंने अपने लेखों में लिखा कि आरएसएस का मकसद ब्रिटिश शासन का अंत नहीं बल्कि एक ‘हिंदू राष्ट्र’ की स्थापना करना है। 
    RSS की स्थापना 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। इतिहासकारों और आलोचकों के बीच यह आम सहमति है कि संगठन ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी नहीं की। इस पर कई कारणों से सवाल उठते हैं:

    कांग्रेस और गांधी के आंदोलनों से दूरी

    RSS ने महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाले प्रमुख स्वतंत्रता आंदोलनों, जैसे सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942), में भाग नहीं लिया। हेडगेवार, जो पहले कांग्रेस के कार्यकर्ता थे, ने 1925 के बाद कांग्रेस के छुआछूत उन्मूलन और जातीय एकता के एजेंडे से असहमति के कारण RSS की स्थापना की। RSS ने ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों से दूरी बनाए रखी और अपने प्रयासों को हिंदू संगठन और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर केंद्रित किया।

    गांधी का हत्यारा कौन था

    1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद RSS पर प्रतिबंध लगाया गया था, क्योंकि हत्यारा नाथूराम गोडसे RSS से जुड़ा हुआ था। हालांकि, RSS ने हमेशा इस घटना में अपनी संलिप्तता से इनकार किया है, लेकिन इसने संगठन की छवि को प्रभावित किया और स्वतंत्रता संग्राम में इसकी भूमिका पर सवाल उठाए। तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने RSS पर प्रतिबंध लगाते समय इसके सांप्रदायिक नजरिए की आलोचना की थी।

    स्वतंत्रता संग्राम में योगदान की कमी

    ऐतिहासिक दस्तावेजों में RSS के स्वयंसेवकों के जेल जाने, शहीद होने, या ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रदर्शन करने के कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते। 1930 का गांधी का सत्याग्रह आंदोलन एकमात्र ऐसा अवसर था जिसमें RSS दावा करता है कि उसने सीमित भागीदारी की थी। लेकिन उसके सबूत वो नहीं दे पाया। इस कमी ने RSS की देशभक्ति पर सवाल उठाए हैं। गांधी का 1930 का सत्याग्रह आंदोलन ऐसा आंदोलन था, जिसमें पूरे भारत के तमाम संगठन शामिल हुए थे। सिर्फ आरएसएस ने उससे दूरी बना ली थी।
    RSS की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा और सांप्रदायिक बयानों ने इसे अल्पसंख्यक समुदायों खासकर मुस्लिम-ईसाई और स्वतंत्रता संग्राम के समावेशी नेताओं के बीच विवादास्पद बना दिया। इसके कुछ नेताओं के बयान, जैसे सावरकर और गोलवलकर के, ब्रिटिश शासन के प्रति नरम रुख और अल्पसंख्यकों के खिलाफ टिप्पणियों के लिए आलोचना के शिकार हुए।
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