हुसैन साहब से जब बात करते हैं तो वे लगने ही नहीं देते हैं कि आप दुनिया के किसी बहुत बड़े पेंटर से मुखातिब हैं ! ऐसा महसूस कराते हैं जैसे किसी पहुँचे हुए मिस्टिक, सूफ़ी-संत की रूहानी तक़रीर में आप खोए हुए हैं ! या फिर यूरोप के किसी बड़े फ़िल्म मेकर से उसकी नई फ़िल्म की स्क्रिप्ट सुन रहे हैं ! या कोई बड़ा लातानी अमेरिकी कवि कंदील की लौ में अपनी नई रचना का धीमे-धीमे स्वरों में पाठ कर रहा है। तभी अचानक से बताने लगते हैं कैसे दोस्तों ने उन्हें मरा हुआ समझ लिया था और वे पुनर्जीवित हो गए ! हुसैन साहब बोलते रहते हैं ,आप चुपचाप रहते हैं। वे सवाल पूछने वाले की तरफ़ देखते ही नहीं!
अपने ही भीतर डूबे स्मृतियों के घने जंगल में नंगे पांव टहलते-टहलते कुछ नया टटोलने गुम हो जाते हैं ! कुछ लम्हों के लिए कमरे में सन्नाटा छा जाता है। तभी सफ़ेद दाढ़ी के बीच समाए कोमल चेहरे पर उनकी ही किसी पेंटिंग की लकीर की तरह उभरने वाली मुस्कुराहट राज़ खोल देती है कि वे अब कुछ नया बताने वाले हैं ! प्रस्तुत है हुसैन साहब के साथ हुई लंबी बातचीत की दूसरी किश्त, तीसरी किश्त गुरुवार को आएगी:
‘’ क्रिएशन और रिएक्शन का प्रोसेस भीतर ही भीतर लगातार चलता रहता है। सामने रखे जग में चाय, कॉफ़ी या शरबत है तो यह सिर्फ़ इतना ही नहीं है ! इसके अलावा भी बहुत कुछ है। चीजों को रिटेन करने का मैकेनिज्म भगवान ने दिया है। किसी बात को उसी वक्त एक्सप्रेस करना तो जर्नलिज्म होता है। अपनी आब्जर्वेशन को अंदर ही अंदर फ़िल्टर होने दीजिए। अंदर सेल्स डायनामिक हैं। आप इस्तेमाल नहीं करते ! तपस्या एक दिन में पूरी नहीं होती। क्रिएटर के रूप में आपका डेडिकेशन लगातार ज़रूरी है।
यूनिवर्सिटी से निकलकर कोई म्यूजिशियन स्टार नहीं बन जाता। मेरे पास जो लड़के कामयाबी का राज़ पूछने आते हैं मैं उनसे 40 साल बाद आने का कहता हूँ। मैं कहता हूँ आपका मक़सद सिर्फ़ पैसा कमाना ही है तो आप पेंटिंग मत कीजिए, आलू बेचिए ! ये तमाम गड़बड़ वेस्ट-ओरिएंटेड एजुकेशन सिस्टम की वजह से हो रही है ! यह एजुकेशन सिस्टम हमारे लिए नहीं है ।
मैं चालीस साल से तनहा हूँ। चंद ही लोग होते हैं जिनसे आप मन की बात कह सकते हैं। गिनती के लोग होते हैं जो आपको ज़िंदा रखते हैं। मगर पेंट करके आप हज़ारों लोगों के सामने ले जाते हैं। भारत के कल्चर का एसेंस है सेलिब्रेशन ! यहाँ मौत भी सेलिब्रेट की जाती है । पश्चिम के कल्चर का एसेंस है एलिनेशन ! यह वाजिब भी है क्योंकि दो विश्वयुद्ध उन्होंने झेले हैं। एलिनेशन वहाँ के लिये वेलिड है, हमारे लिए नहीं !
मुंबई जैसे शहर में भी आपके पास कोई भी आ जाता है। हमारे यहाँ गाँवों में अस्सी फ़ीसदी कल्चर अभी तक ज़िंदा है। दुनिया के दूसरे हिस्सों में वह ग़ायब हो चुका है। पश्चिम में अगर माँ-बाप के पास बेटा भी आ जाए तो वे फ्रीज़ से फलों के दो टुकड़े निकालकर बेटे के सामने ही खा लेंगे, उससे पूछेंगे तक नहीं ! नाचना-गाना हमारे कल्चर में बसा है।1960 के दशक में पेंटिंग की एक आगार्ड शैली चलन मेंआई थी। इस शैली की मान्यता थी कि पेंटिंग में ह्यूमन फॉर्म बिलकुल भी नहीं आनी चाहिए। मैं अपनी शैली पर टिका रहा। मेरे दोस्तों ने तब कहा था पेंटर के रूप में हुसैन मर चुका है !
मैंने 1967 में एक शॉर्ट फ़िल्म ‘Through the Eyes of a Painter’ बनाई थी। फ़िल्म जगत के कई बड़े-बड़े लोगों ने मुझे माना किया ।फ़िल्म देखने के बाद सभी ने आलोचना की। बाद में वही फ़िल्म बर्लिन फ़िल्म फेस्टिवल के लिए चुनी गई। ‘नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ मॉडर्न आर्ट’ ने कहा हम फ़िल्म म्यूज़ियम में ‘कम्युनिकेशन ऑफ़ पेंटिंग’ के तौर पर रखना चाहेंगे ! लोग कहते हैं आपके पेंटिंग्स ज़्यादा बिकते हैं : You are Playing to the Gallery’.
मैं बहुत ही चुनिंदा विचारकों को पढ़ता हूँ। Octavio Paz ने जितना गहरा असर डाला पिछली सदी के किसी दूसरे लेखक ने नहीं डाला। Paz आठ साल भारत में रहे थे। मुझे उनके साथ रहने का मौक़ा भी मिला। मैंने उन्हें खूब पढ़ा। उन्होंने ‘The Monkey Grammarian’ लिखी थी। इससे प्रभावित होकर मैंने ‘दस हनुमान’ बनाए। John Kenneth Galbraith भी मेरे पसंदीदा लेखक हैं। स्विट्ज़रलैंड में मैं उस जगह भी गया जहां वो लिखते थे। हालाँकि मैं कोई बड़ा थिंकर नहीं था मगर उनके दरवाज़े मेरे लिये हमेशा खुले रहते थे।’’
मैं अपनी जो ऑटोबायोग्राफी लिख रहा था वह माधुरी से मिलने के बाद पाँच-छह साल पीछे चली गई। ‘अबाउट टर्न’ हो गई ! माधुरी में पॉपुलर फ़िल्म के सुपर स्टार वाली बात थी ! (तीसरी और अंतिम किश्त में कल)