भारत और पाकिस्तान के बीच ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद बढ़ा तनाव पूरी दुनिया में चिंता का विषय बन गया है। भारत ने 7 मई को पाकिस्तान और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकी ठिकानों पर हमले किए। दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश युद्ध की कगार पर हैं। ईरान, सऊदी अरब और अमेरिका सक्रिय रूप से तनाव कम करने और युद्ध को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। ये देश क्यों नहीं चाहते कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो, इसके पीछे कूटनीतिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक कारण हैं।
भारत के साथ अच्छे संबंध रखने वाले ईरान और सऊदी अरब के वरिष्ठ मंत्री और अधिकारी गुरुवार को नई दिल्ली में थे। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने नई दिल्ली में अचानक पहुंचे सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री अदेल अल-जुबैर से मुलाकात की। जयशंकर ने एक्स पर लिखा, “आतंकवाद का दृढ़ता से मुकाबला करने के भारत के नजरिए को साझा किया।” अल-जुबैर का यह दौरा सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया गया था, जिससे इसकी कूटनीतिक संवेदनशीलता का पता चलता है।
ईरानी विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराघची हालांकि भारत-ईरान संयुक्त आयोग की बैठक के लिए नई दिल्ली पहुंचे। लेकिन अराघची दिल्ली आने से पहले इस सप्ताह की शुरुआत में पाकिस्तान भी गए थे। ईरान लगातार भारत और पाकिस्तान से तनाव खत्म करने के लिए मध्यस्थता की पेशकश कर रहा है। इस तरह दो मुख्य मुस्लिम देश सऊदी अरब और ईरान स्पष्ट रूप से चाह रहे हैं कि यह संघर्ष आगे न बढ़े। ईरान और भारत के संबंध बहुत अच्छे हैं। सऊदी अरब के संबंध पाकिस्तान से अच्छ हैं लेकिन अब भारत से भी सऊदी अरब ने अपने संबंध अच्छे कर लिए हैं। सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री अदेल अल-जुबैर दरअसल वहां सऊदी किंग एमबीएस (मोहम्मद बिन सलमान) के बहुत नजदीक माने जाते हैं। समझा जाता है कि एमबीएस के निर्देश पर वो अचानक भारत पहुंचे थे।
ईरान और सऊदी अरब, इस इलाके की क्षेत्रीय स्थिरता और ग्लोबल अर्थव्यवस्था पर इसके गहरे प्रभाव को लेकर चिंतित हैं। सऊदी अरब, जो अब भारत का प्रमुख तेल आपूर्तिकर्ता है, और ईरान, जो भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी रखता है, इस संकट को इसीलिए टालना चाहते हैं।
ईरान की भूमिका और मंशा
ईरान के तमाम आर्थिक हित भारत और पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं। ईरान की पाकिस्तान के साथ सीधी सीमा जुड़ी हुई है। जबकि भारत ने ईरान में निवेश कर रखा है। ईरान के युद्ध-विरोधी रुख के पीछे निम्नलिखित कारण हैं:
आर्थिक हित: ईरान का भारत के साथ चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट एक रणनीतिक साझेदारी है, जो उसे मध्य एशिया और यूरोप तक व्यापारिक पहुंच प्रदान करता है। युद्ध इस प्रोजेक्ट को खतरे में डाल सकता है।
पाकिस्तान के साथ सीमा: ईरान की पाकिस्तान के साथ लंबी सीमा है, और बलूचिस्तान में अस्थिरता दोनों देशों के लिए खतरा है। 2017 में जैश-उल-अदल जैसे समूहों द्वारा ईरानी सैनिकों पर हमले इसका उदाहरण हैं।
क्षेत्रीय स्थिरता: ईरान पहले ही इज़रायल और पश्चिमी देशों के साथ तनाव का सामना कर रहा है। दक्षिण एशिया में युद्ध क्षेत्रीय अस्थिरता को बढ़ाएगा, जिससे ईरान की सुरक्षा और आर्थिक स्थिति प्रभावित होगी।
तटस्थ छवि: ईरान ने इस्लामिक एकजुटता के आधार पर पाकिस्तान का समर्थन करने के बजाय तटस्थ रुख अपनाया, ताकि भारत के साथ अपने संबंधों को बनाए रख सके।
सऊदी अरब की चिंता
सऊदी अरब, जो भारत का प्रमुख तेल आपूर्तिकर्ता और आर्थिक साझेदार है, ने भी तनाव कम करने के लिए सक्रिय कदम उठाए। सऊदी विदेश राज्य मंत्री अदेल अल-जुबैर और विदेश मंत्री फैसल बिन फरहान ने भारतीय और पाकिस्तानी विदेश मंत्रियों से बात की। सऊदी अरब के युद्ध-विरोधी रुख के कारण:
आर्थिक निर्भरता: भारत सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा तेल खरीदार है, और सऊदी अरब भारत में बुनियादी ढांचे और ऊर्जा क्षेत्र में भारी निवेश कर रहा है। युद्ध से तेल आपूर्ति और व्यापार बाधित होगा।
पाकिस्तान के साथ संबंध: सऊदी अरब पाकिस्तान को आर्थिक और सैन्य सहायता प्रदान करता है। युद्ध से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था, जो पहले से ही संकट में है, और ढह सकती है, जिससे सऊदी हित प्रभावित होंगे।
क्षेत्रीय प्रभाव: सऊदी अरब दक्षिण एशिया में अपनी कूटनीतिक ताकत बनाए रखना चाहता है। भारत-पाकिस्तान युद्ध से क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ेगी, जिससे सऊदी अरब का प्रभाव कम हो सकता है।
ईरान के साथ सुधरते संबंध: हाल ही में सऊदी अरब और ईरान के बीच चीन की मध्यस्थता से सुलह हुई है। दोनों देश युद्ध को रोककर क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देना चाहते हैं।
अमेरिका को क्यों इतना सक्रिय है
अमेरिका ने भी तनाव कम करने के लिए कदम उठाए हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने दोनों देशों के विदेश मंत्रियों से गुरुवार को बात की थी। हालांकि उप-राष्ट्रपति जेडी वेंस ने कहा कि भारत इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन मार्को रुबियो चूंकि ट्रम्प के नजदीकी हैं और ट्रम्प भी दोनों देशों में युद्ध नहीं चाहते हैं। इसलिए अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण है। अमेरिका के सक्रिय होने की खास वजहेंः
परमाणु युद्ध का खतरा: भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु हथियारों से लैस हैं। युद्ध से परमाणु टकराव का खतरा बढ़ेगा, जो वैश्विक स्थिरता के लिए खतरा है।
आर्थिक प्रभाव: भारत अमेरिका का प्रमुख व्यापारिक साझेदार है, और दक्षिण एशिया में युद्ध वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला, विशेष रूप से तकनीक और विनिर्माण क्षेत्रों को प्रभावित करेगा।
पाकिस्तान पर निर्भरता: अमेरिका पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ सहयोग और अफगानिस्तान में स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण मानता है। युद्ध से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा ढांचा चरमरा सकता है।
चीन का प्रभाव: युद्ध से क्षेत्र में चीन का प्रभाव बढ़ सकता है, जो अमेरिका के लिए रणनीतिक नुकसान होगा। चीन पहले ही पाकिस्तान का समर्थन कर रहा है।
अन्य देशों की भूमिका
कतर और यूएई: ये खाड़ी देश भी तनाव कम करने में सक्रिय हैं। कतर ने मध्यस्थता की पेशकश की, जबकि यूएई ने 2019 के पुलवामा हमले के बाद सऊदी अरब के साथ मिलकर तनाव कम करने में मदद की थी।
रूस और चीन: रूस ने अतीत में भारत-पाकिस्तान तनाव कम करने में भूमिका निभाई है, लेकिन वर्तमान में उसका रुख स्पष्ट नहीं है। चीन ने पाकिस्तान का समर्थन किया, लेकिन युद्ध से बचने की अपील भी की। रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने इसी हफ्ते पीएम मोदी से बात की और हर तरह के सहयोग की पेशकश की। लेकिन रूस भी यही चाहता है कि दोनों देश युद्ध से बचें।
मलेशिया: मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम ने एक्स पर एक पोस्ट में पहलगाम हमले की “स्वतंत्र और पारदर्शी जांच” के लिए पाकिस्तान के आह्वान का समर्थन किया। उन्होंने कहा, “अगर जरूरत पड़ी तो मलेशिया रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए तैयार है।” उन्होंने कहा कि अगर नई दिल्ली और इस्लामाबाद को यह स्वीकार्य हो तो वे मध्यस्थता करने के लिए तैयार हैं।
बहरहाल, भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ता तनाव न केवल क्षेत्रीय, बल्कि वैश्विक चिंता का विषय है। ईरान और सऊदी अरब जैसे देशों की सक्रिय कूटनीति इस संकट को कम करने में महत्वपूर्ण हो सकती है। भारत-पाकिस्तान को संयम बरतने और संवाद के रास्ते अपनाने की जरूरत है, ताकि युद्ध की स्थिति से बचा जा सके।