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    Home » मेडिकल साइंस में एआई के कमाल, डॉक्टर न जो कर पाए वो कर दिखाए!
    भारत

    मेडिकल साइंस में एआई के कमाल, डॉक्टर न जो कर पाए वो कर दिखाए!

    By January 7, 2025No Comments7 Mins Read
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    इस साल आर्टिफिशल इंटेलिजेंस यानी एआई कुछ वैज्ञानिक करिश्मों का सबब बन सकती है। इसकी झलक 2024 के नोबेल पुरस्कारों में देखने को मिल गई थी, जब भौतिकी का नोबेल अमेरिकी और कनाडाई भौतिकशास्त्रियों जॉन जे. हॉपफील्ड और ज्यॉफ्री हिंटन को एआई और आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (एएनएन ) में बुनियादी काम के लिए हासिल हुआ। रसायनशास्त्र का हाल भी वैसा ही रहा। वहाँ नोबेल का आधा हिस्सा अमेरिकी वैज्ञानिक डेविड बेकर को मिला, कंप्यूटेशनल मॉडलिंग के ज़रिए ऐसे प्रोटीन तैयार करने के लिए, जो प्रकृति में नहीं पाए जाते। बाकी आधा गूगल डीपमाइंड से जुड़े दो ब्रिटिश वैज्ञानिकों डेनिस हैसबिस और जॉन जंपर में बराबर-बराबर बँटा, जिन्होंने एआई के ही इस्तेमाल से 20 करोड़, यानी लगभग सारे ही ज्ञात जैविक प्रोटीनों की पूरी बनावट उधेड़ कर रख दी थी।

    आम आदमी की ज़िंदगी में कृत्रिम बुद्धि का दखल सर्च इंजनों और मोबाइल फोनों के ज़रिये पिछले दस-पंद्रह सालों से होता आ रहा है, लेकिन चैटजीपीटी, बिंगचैट, गूगल जेमिनी आदि के रूप में इंसानी भाषा के दायरे में सक्रिय इसके रूप का विश्वव्यापी प्रभाव पहली बार 2023 में महसूस किया गया। इस जलजले की शुरुआत अमेरिका में थोड़ा पहले हो गई थी। लार्ज लैंग्वेज मॉडल (एलएलएम) पर कुछ समय तक अकेले ही काम करने वाली कंपनी ओपेन एआई ने अपने पहले प्रोडक्ट चैटजीपीटी को नवंबर 2022 में बाजार में उतारा था और उस साल के बीतने तक, यानी सिर्फ दो महीने के अंदर कुल दस करोड़ लोग इसे काम की चीज मानकर इसपर हाथ आजमाने लगे थे। 

    सैकड़ों शक्तिशाली संस्थाएं और लाखों आला दिमाग न जाने कितनी दिशाओं से ऐसे न जाने कितने उपकरण तैयार करने में जुटे हैं, जिन्हें कृत्रिम बुद्धि के दायरे में रखा जा सकता है। इसके लिए बहुत ताकतवर सुपरकंप्यूटर की ज़रूरत पड़ती है, जिसको ज़रूरत के मुताबिक किराये पर भी लिया जा सकता है। मशीन लर्निंग का शास्त्र डेटा के विशाल पैटर्न्स पर काम करने की सुविधा देता है। इससे किस क्षेत्र में क्या किया जा सकता है, यह अभी आजमाइश की बात है। लेकिन जैसी ख़बरें आ रही हैं, उनके मुताबिक़ जीवन को सीधे प्रभावित करने वाले मेडिकल साइंस और मटीरियल साइंस जैसे क्षेत्रों में एआई की मेहरबानी से दस साल में हो सकने वाले काम एक साल में पूरे हो सकते हैं। 

    फिलहाल, मेडिकल साइंस पर फोकस करें तो यहां सबसे बड़ा कमाल डायग्नॉस्टिक्स, यानी बीमारी के ब्यौरे जानने के मामले में घटित हो रहा है। एक्स-रे, एमआरआई, और सीटी स्कैन जैसी मेडिकल इमेजिंग का विश्लेषण एआई एल्गोरिद्म बहुत सटीक ढंग से कर सकते हैं। हाल में ऐसी कई ख़बरें आईं, जिनमें डॉक्टरों ने रीढ़ में कोई परेशानी नहीं देखी थी, लेकिन एआई की एमआरआई-एनालिसिस में स्लिप डिस्क बताई गई और उसकी बात सही निकली।

    कैंसर, हृदय रोग और नर्व्स से जुड़ी गंभीर बीमारियों में खासकर अमेरिका और यूरोप के डॉक्टर एआई की राय लेना अब ज़रूरी मानने लगे हैं। ईसीजी की डेटा एनालिसिस से अरिद्मिया जैसी हृदय संबंधी समस्याओं का पता एआई आसानी से लगा लेती है, जो दिल के दौरे का संकेत हो सकती हैं। भारत में भी कुछ स्टार्टअप्स इस दिशा में काम कर रहे हैं। समय से स्तन कैंसर की पहचान में भी एआई जादुई भूमिका निभा रहा है। रेडियोलॉजिस्टों की नजर से अक्सर छूट जाने वाले मैमोग्राम के बहुत मामूली बदलाव एआई-संचालित सिस्टम तत्काल पकड़ लेते हैं।

    थोड़ा फ्यूचरिस्टिक होकर देखें तो पेशेंट के बुनियादी डेटा- जेनेटिक्स, जीवनशैली और मेडिकल हिस्ट्री- का गहन विश्लेषण करके उसपर किसी भी तरह के ट्रीटमेंट के प्रभाव का पूर्वानुमान एआई लगा सकती है।

    यह और बात है कि ये सारे डेटा विकासशील देशों के आम मरीज अभी शायद ही मुहैया करा सकें। फिर भी भारतीय मरीजों की जो भी मेडिकल हिस्ट्री उपलब्ध हो, उसके मुताबिक़ एक कारगर उपचार योजना बनाने में एआई की मदद ली जा सकती है। जैसे, किसी खास कैंसर पेशेंट के लिए सबसे असरदार कीमोथेरेपी क्या होगी, यह एक बारीक सवाल है, जिसका जवाब अक्सर उसी तरह दिया जाता है, जैसे मच्छर मारने के लिए तोप का गोला दाग दिया जाए। बीमारी से ज्यादा इलाज ही शरीर के लिए घातक सिद्ध हो, एआई इस विडंबना से मुक्ति दिला सकती है, और दिला भी रही है।

    दवाओं की खोज और विकास की प्रक्रिया विज्ञान का बहुत कठिन क्षेत्र है। ज़रूरी केमिकल की पहचान, प्रयोगशाला में उसके संश्लेषण से लेकर अलग-अलग इंसानी बनावटों पर उसके प्रभाव के अध्ययन तक इसमें काफी वक्त लगता है। एआई का कमाल यही है कि इसका काम बहुत बड़े डेटा बेस पर बड़ी तेजी से आगे बढ़ता है और दवा को अमल में उतारने की अवधि कम हो जाती है। एल्जाइमर्स जैसी बीमारियों के लिए यह बड़ी राहत की बात है।

    एड्स के साथ समस्या यह है कि कोई दवा जबतक उसके लिए सटीक साबित होती है, तबतक उसका वायरस ही बदलकर कुछ का कुछ हो चुका होता है। ऐसा खौफ एक समय कोविड-19 के साथ भी जुड़ा था, लेकिन उसका इलाज खोजने में जुटे लोग वायरस को आगे से घेरने में कामयाब रहे तो एआई की भी इसमें एक बड़ी भूमिका थी।

    रोबॉटिक सर्जरी महंगी है और लोगों में अभी इसको लेकर खौफ भी देखा जाता है। लेकिन इसमें एआई के उपयोग ने सर्जरी को ज्यादा सटीक बना दिया है। जितनी नर्व्स और गैरजरूरी मसल्स अच्छे से अच्छे डॉक्टर की सर्जरी के दौरान भी कटकर रिकवरी को मुश्किल बना देती हैं, एआई-बेस्ड रोबोटिक सर्जरी में उनकी तादाद बहुत कम हो जाती है। इन्फेक्शन का ख़तरा तो कम रहता ही है। 

    न केवल निदान और उपचार में बल्कि पेशेंट्स को उनके स्वाभाविक जीवन में वापस लौटाने में भी एआई महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जो इलाज का असल मुद्दा है।

    दुनिया भर के मेडिकल ढांचों में एआई की अलग-अलग भूमिका पर नज़र डालनी हो तो अमेरिका में अभी नई दवाओं की खोज और कैंसर रिसर्च में इसे लेकर सबसे ज्यादा चर्चा है। चीन में इसका दखल डायग्नॉस्टिक्स और टेलीमेडिसिन में ज्यादा है। बीमारियों की पहचान और दूर-दराज के इलाकों में इलाज की अद्यतन सुविधाएं पहुंचाने में। खासकर फेफड़ों के कैंसर और आँखों की बीमारियों में एआई के चीनी उपयोग पर अभी बहुत बात हो रही है। 

    जीनॉमिक्स से जुड़ी रिसर्च में ब्रिटेन का पहले से काफी ऊंचा मुकाम रहा है। अपनी इस क्षमता को आगे बढ़ाते हुए एआई का उपयोग उसने व्यक्ति-विशेष के लिए इलाज की अलग प्रणाली विकसित करने में किया है। इसके अलावा मानसिक बीमारियों के ट्रीटमेंट में एआई के इस्तेमाल से जुड़ी उसकी एक और खासियत उभरकर आ रही है। मेडिकल इमेजिंग में एआई के उपयोग में जर्मनी ने लीड ले रखी है। इसके अलावा हृदय रोगों के निदान और उपचार, कार्डियॉलजी में भी एआई के इस्तेमाल से जुड़े पर्चे सबसे ज्यादा जर्मन डॉक्टरों के ही छप रहे हैं।

    रोबॉटिक्स में जापान की ख्याति शुरू से ज्यादा रही है और अभी एआई-बेस्ड रोबॉटिक सर्जरी में भी उसने झंडे गाड़ रखे हैं। लगभग हर तरह की रोबॉटिक सर्जरी में उसने एआई का इस्तेमाल सफलता पूर्वक किया है और मरीजों की जिंदगी आसान बनाई है। इसके अलावा जापान से उसकी बुढ़ाती आबादी और लोगों के दीर्घायु होने से जुड़ी खबरें भी खूब आती हैं। स्वभावतः जापानी मेडिकल साइंस ओल्ड-एज केयर में एआई का अच्छा इस्तेमाल कर रहा है।

    दरअसल, एआई एक डेटा-ड्रिवेन टेक्नॉलजी है। इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए सुपरकंप्यूटर और मशीन लर्निंग की विशेषज्ञता तो जरूरी है ही, लेकिन एआई का असाधारण काम उसी क्षेत्र में निकल कर आएगा, जिसमें बड़े पैमाने का और स्पष्ट डेटा उपलब्ध होगा। इसीलिए जिन देशों की मेडिकल एक्सपर्टाइज जिन क्षेत्रों में रही है, उन क्षेत्रों में एआई ने उनका मुकाम और भी ऊंचा कर दिया है। 

    तकनीकी के इस नए युग का फायदा उठाने के लिए, बल्कि इससे जुड़कर पूरी दुनिया को कुछ नया देने के लिए भरोसेमंद सरकारी नीतियां जरूरी हैं। ऐसी नीतियां, जिनसे महत्वपूर्ण एआई रिसर्च इंस्टीट्यूट्स को कंपनियों के स्तर पर भी और सरकार के स्तर पर भी बढ़ावा मिल सके।

    भारत में डिजिटल इंडिया की पहल के तहत स्वास्थ्य क्षेत्र में एआई का दखल बढ़ाने के बयान सुनने में आ रहे हैं, लेकिन इस दिशा में होने वाले ठोस कामों का चर्चा में आना अभी बाकी है। चिकित्सा व्यवस्था हमारे यहां बहुत महंगी और विषमतापूर्ण है। मेडिकल इंश्योरेंस का उपयोग इसे और भयावह बनाने में किया जा रहा है। ऐसे में आशंका यही है कि इस क्षेत्र में एआई का फायदा बड़ी हेल्थकेयर कंपनियां सिर्फ अपनी कॉस्ट-कटिंग में उठाएंगी। सरकार ने जल्दी कुछ प्रो-एक्टिव कदम नहीं उठाए तो एआई के फायदों से ज्यादा नुकसान ही आम लोगों के हिस्से आएंगे।

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