
Chirag Paswan election 2025
Chirag Paswan election 2025
Chirag Paswan Bihar Election 2025: जब मंच पर कोई युवा नेता चमकते हुए चेहरे, दमकती मुस्कान और आत्मविश्वास से लबरेज शब्दों के साथ “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” का नारा लगाता है, तो जनता चौंकती है ये नेता कौन है? कोई अभिनेता? कोई वक्ता? नहीं, ये हैं चिराग पासवान रामविलास पासवान के बेटे और एलजेपी (रामविलास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष। जो कभी बॉलीवुड में किस्मत आजमाने मुंबई गए थे, अब बिहार की राजनीति में सत्ता की कुर्सी के सबसे करीब खड़े दिखाई दे रहे हैं। इस बार चर्चा है उनकी विधानसभा चुनाव लड़ने की। रायपुर में उन्होंने जब मीडिया से कहा, “अगर पार्टी को फ़ायदा होगा तो मैं ये चुनाव ज़रूर लड़ूंगा,” तो सियासी गलियारों में एक बार फिर से चर्चाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि चिराग चुनाव लड़ेंगे या नहीं, असली बात है कि क्या बीजेपी-आरएसएस अब बिहार की सत्ता को दलित नेतृत्व की ओर शिफ्ट करना चाहती है? क्या चिराग ‘मोदी के हनुमान’ की भूमिका से बाहर निकलकर बिहार के मुख्यमंत्री पद के असली दावेदार बनना चाहते हैं?
OBC से दलित नेतृत्व की ओर सत्ता का झुकाव?
बिहार की राजनीति बीते तीन दशकों से ओबीसी और सवर्ण नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती रही है—लालू यादव, नीतीश कुमार, जीतन राम मांझी जैसे नाम सत्ता में तो आए, लेकिन दलित नेतृत्व का स्थायी प्रभाव अब भी अधूरा रहा। रामविलास पासवान खुद हमेशा दिल्ली की राजनीति को प्राथमिकता देते रहे। अब उनके बेटे चिराग पासवान उसी अधूरे मिशन को आगे बढ़ाने की ओर संकेत दे रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक अरविंद शर्मा के अनुसार, “बीजेपी और आरएसएस बिहार में एक नए दलित चेहरे की तलाश में हैं जो तेजस्वी यादव के मुकाबले युवा और तेज़तर्रार हो। चिराग उस खांचे में फिट बैठते हैं। वो आज भी मोदी के सबसे वफादार नेताओं में गिने जाते हैं, भले ही उन्हें घर, पार्टी और बंगला सब कुछ गंवाना पड़ा हो।”
सामान्य सीट से चुनाव: एक बड़ा दांव
चिराग पासवान की पार्टी के बिहार प्रभारी और सांसद अरुण भारती ने हाल ही में एक्स (पूर्व ट्विटर) पर लिखा, “चिराग जी को अब आरक्षित नहीं, सामान्य सीट से चुनाव लड़ना चाहिए।” यही बात पार्टी की प्रदेश कार्यकारिणी ने भी प्रस्ताव के रूप में पारित की थी। यानी इरादा साफ है—चिराग अब सिर्फ दलित नेता नहीं, पूरे बिहार के प्रतिनिधि बनना चाहते हैं। वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय इसे चिराग के “समावेशी संगठनात्मक ढांचे” से जोड़कर देखते हैं। “चिराग का संसदीय बोर्ड सिर्फ दलितों से नहीं बना है। उसमें शमीम जैसे मुस्लिम चेहरे हैं, राजू तिवारी जैसे ओबीसी नेता हैं। यानी उनकी राजनीति जाति आधारित नहीं, बल्कि हर तबके को छूने वाली है।”
राजनीति की बिसात पर तेजस्वी बनाम चिराग
तेजस्वी यादव पहले से ही बिहार में युवा चेहरा बन चुके हैं। ऐसे में एनडीए को अगर बराबरी का जवाब चाहिए तो चिराग पासवान से बेहतर चेहरा शायद उनके पास नहीं है। लेकिन चिराग चुनाव लड़ते हैं या नहीं, यह अब भी संशय में है। राजद सांसद मीसा भारती ने कहा, “अगर हिम्मत है तो लोकसभा सीट छोड़ें और विधानसभा चुनाव लड़ें।” वहीं जेडीयू प्रवक्ता अंजुम आरा ने चुटकी ली, “मुख्यमंत्री पद पर कोई वैकेंसी नहीं है। एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगा।” चिराग के चाचा और महागठबंधन की ओर झुक चुके पशुपति पारस ने चिराग की चुनावी संभावनाओं पर चुप्पी साधते हुए कहा, “ये उनका अधिकार है। इस पर मेरी टिप्पणी नहीं हो सकती।”
क्या चुनाव सिर्फ ‘बारगेनिंग चिप’ है?
चिराग चुनाव लड़ेंगे या नहीं इस पर विश्लेषकों की राय बंटी हुई है। रवि उपाध्याय मानते हैं कि चिराग हाजीपुर, नवादा या वैशाली जैसी सामान्य सीट से उतर सकते हैं, जबकि अरविंद शर्मा इसे सिर्फ ‘प्रेसर पॉलिटिक्स’ बताते हैं। “ये खुद को चर्चा में बनाए रखने और बीजेपी से बेहतर सीट डील पाने की रणनीति हो सकती है,” शर्मा कहते हैं। “अगर एनडीए भविष्य में मुख्यमंत्री बदलने पर विचार करेगा, तो वो चिराग को नामित कर सकते हैं। उसके लिए विधानसभा चुनाव लड़ना जरूरी नहीं है।”
रामविलास बनाम चिराग: दो पीढ़ियों की सोच में फर्क
रामविलास पासवान 2005 में 29 सीटें जीतकर किंगमेकर बने, लेकिन फिर भी मुख्यमंत्री बनने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। उनकी पहली पत्नी के दामाद अनिल साधु कहते हैं, “तब वाजपेयी और नीतीश दोनों ने उन्हें सीएम बनने को कहा था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। पर चिराग का लक्ष्य बिहार है, और यहां राजनीति का मतलब ही मुख्यमंत्री की कुर्सी होता है।” बीजेपी पर लोजपा के विलय को लेकर दबाव के सवाल पर भी सियासत गरम है। बीजेपी प्रवक्ता विनोद शर्मा ने इससे इनकार करते हुए कहा, “लोजपा का स्वतंत्र अस्तित्व है। हम उसका सम्मान करते हैं।”
क्यों चिराग को दलित नेता नहीं मानते कई लोग?
सामाजिक कार्यकर्ता कहती हैं, “चिराग में दलित नेता वाली स्वीकार्यता नहीं है। वो दलित मुद्दों से नहीं जुड़ते। उनकी राजनीति में ग्लैमर, बॉडी लैंग्वेज और बॉलीवुड का ज़्यादा असर है। जिन दलितों ने आंदोलन झेले हैं, वे चिराग को अपना नेता नहीं मानते।” 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग की लोजपा ने 137 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन सिर्फ एक मटिहानी सीट ही जीती। और वो विधायक भी बाद में जेडीयू में शामिल हो गया। लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि लोजपा ने जेडीयू के वोटबैंक में सेंध लगाकर उसे भारी नुकसान पहुँचाया।
नीतीश से तल्खी, फिर मेल-मिलाप की पटकथा
हालांकि आज लोजपा और जेडीयू के बीच समीकरण सुधरते दिख रहे हैं। नीतीश सरकार ने चिराग के जीजा धनंजय मृणाल पासवान को अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बना दिया है। ये बदलाव संकेत देता है कि रिश्तों की बर्फ पिघल रही है और चिराग पासवान की ‘नीतीश विकल्प’ बनने की रणनीति ज़ोर पकड़ रही है। वरिष्ठ पत्रकार मानते हैं, “रामविलास के समय पार्टी मजबूत थी फिर भी वो सीएम नहीं बने। चिराग अभी उस स्तर पर नहीं हैं। बिहार उत्तर पूर्व या झारखंड जैसा राज्य नहीं है जहां कोई भी मुख्यमंत्री बन जाए।”
चुनाव लड़ेंगे या नहीं, चिराग चर्चा में हैं
फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि चिराग पासवान आगामी बिहार विधानसभा चुनाव लड़ेंगे या नहीं, लेकिन एक बात तय है—वो बिहार की राजनीति के केंद्र में हैं। वो नीतीश के उत्तराधिकारी बनेंगे या तेजस्वी के प्रतिद्वंदी, यह भविष्य के गर्भ में है। पर इतना ज़रूर है कि “मोदी का हनुमान” अब अपने लिए लंका की सत्ता चाहता है। और जब किसी नेता के पास विरासत हो, महत्वाकांक्षा हो और रणनीति भी तो वो बिहार जैसे राज्य में कभी भी गेमचेंजर बन सकता है। क्या चिराग पासवान वही चेहरा हैं जो बिहार की राजनीति को फिर से परिभाषित करेंगे? जवाब जल्द मिलेगा, शायद इसी चुनाव में।