“हमारा संविधान हमारे वर्तमान और भविष्य का मार्गदर्शक है. मैने उस मर्यादा का पालन करने की कोशिश की जो संविधान ने मुझसे माँगी थी; मैंने उसका अतिक्रमण करने की कोशिश नहीं की. संविधान से मिली शक्ति के तहत की पहली बार आज जम्मू-कश्मीर में संविधान दिवस मनाया जा रहा है”, यह कहते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर संविधान की मूल प्रति को माथे लगाया. याद कीजिये जब सन 2014 में पहली बार पीएम के रूप में संसद में प्रवेश किये तो भी मोदी ने संसद की चौखट पर शाष्टांग दंडवत किया था.
मोदी ऑप्टिक्स के एक्सपर्ट हैं. जब टीवी चैनल्स और अखबरों ने उनका संसद की चौखट पर लमलेट होना दिखाया तो जनता ने सोचा “यह नेता न तो गलत करेगा, न होने देगा”. दस साल में सब कुछ उल्टा हो गया. अडानी गलत करता रहा, मोदी सरकार और उसकी संस्थाएं उसे बचाती रही. आर्थिक नीतियाँ ऐसे बनी कि गरीब गरीब होता गया और अमीर अमीर.
उसी संसद में जिसमे मोदी लमलेट हुए थे, अनुच्छेद 370 का चीरहरण “संवैधानिक चालाकी” से होता रहा. विपक्ष को उठा कर बाहर फेंक “किसानों के हित” का कानून बना. इन दस सालों में वह सब कुछ हुआ जो संविधान के स्पष्ट मंतव्य के खिलाफ था. “ईडी, सीबीआई और आईटी नयी भूमिका में कानून के लम्बे हाथों को इस्तेमाल कर सरकारें बनाने-गिराने के धंधे में मुब्तला हो गयीं.
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दस साल बाद जब से कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने “संविधान खतरे में है” को मुद्दा बनाया, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर संविधान को माथे लगा कर अपनी “श्रद्धा” का मुजाहरा किया है. अब डर यह है कि आगे क्या होगा.
लेकिन डरें नहीं, समझें. एजेंडा साफ़ है. मस्जिदों के नीचे मंदिर तलाशे जायेंगें. सर्वे रिपोर्ट्स आयेंगीं और उनमें फिर से “आरती” शुरू की जायेगी. मुसलमान विरोध करेगा तो उसके घर गिराए जायेंगें, पत्थर चलाएगा तो गैर-पुलिस बोर की गोली कहीं से आ कर उसका सीना चीर जायेगी और इसे “आपसी झगडा” बता कर कुछ और मुसलमानों को “भीतर” कर दिया जाएगा. और यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा जबतक मुसलमान अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल करने की जुर्रत भी करेगा.
राजतंत्र के जंगल न्याय को बताने के लिए एक किस्सा है. जंगल में तय हुआ कि राजा शेर के भोजन के लिए रोज एक जानवर भेजा जाएगा ताकि अन्य शाश्वत डर में न जाएँ. शेर एक दिन झरने से पानी पीने गया तो देखा कि एक मुलायम मेमना पानी पी रहा है. खाने के लालच में उसने कहा “तूने मेरा पानी जूठा किया”. मेमने ने बचाव में तर्क दिया, “महाराज, झरना तो ऊपर से नीचे बह रहा है जबकि आप पानी के प्रवाह में ऊपर खड़े हैं. तो मैंने जूठा कैसे किया”. शेर तो जंगल का राजा था. तर्क का गुलाम नहीं. उसने कहा “तूने नहीं तो तेरे बाप ने जूठा किया होगा”. और वह मेमने को खा गया.
एससी में पिछले दो साल से याचिकाएं, जिसमें धर्मस्थल कानून, 1991, की वैधानिकता को चुनौती दी गयी थी, लंबित हैं. इसी कोर्ट के एक आदेश में कहा गया था कि किसी धर्मस्थल का धार्मिक चरित्र वैज्ञानिक सर्वे के आधार पर सुनिश्चित करना, इसके चरित्र को बदलना नहीं होगा. इसके बाद निचली कोर्ट्स में लगातार अनेक मस्जिदों को हिन्दू मंदिरों के भग्नावशेष पर खड़ा होने के दावे वाले वाद आने लगे. सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगा.
संभल (यूपी) में प्रशासन और मुस्लिम समुदाय के बीच झड़प के बाद अब पूरी दुनिया में विख्यात अजमेर शरीफ (सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह) को शिव मंदिर के मलवे से बनाये जाने के दावे वाली याचिका पर कोर्ट ने एएसआई, अल्पसंख्यक मंत्रालय और दरगाह के इंतेजामिया को नोटिस भेजा है. विश्व हिन्दू परिषद् मानता है कि 40 हज़ार मंदिरों को तोड़ कर मस्जिद बनाये गए हैं. याने यह सिलसिला लगातार चलता रहेगा. यह समय है कि एससी धर्मस्थल कानून, 1991 की वैधानिकता और उसके प्रावधान 3 और 4 की स्पष्ट व्याख्या करे. कोर्ट को यह भी देखना होगा कि क्या सामजिक-धार्मिक आयाम पर की गयी ऐतिहासिक गलतियों को वर्तमान में दुरुस्त किया जा सकता है और ऐसा करना प्रतिकार और वह भी उस पीढ़ी से जिसका उस गलती से कोई रिश्ता न हो, नहीं होगा
संसद ने इस कानून के जरिये अन्य धार्मिक स्थलों में संभावित विवाद पर हमेशा के लिए एक रोक लगायी. प्रावधान कहता है कि 15 अगस्त, 1947 के दिन तक जिस धार्मिक स्थल का जो चरित्र था वह न तो बदला जाएगा ना हीं कोई कोर्ट इससे संबंधित कोई वाद सुनेगी. अब एससी को तय करना है कि यह कानून जो भारतीय समाज में स्थाई शांति ला सकता है, संविधान-सम्मत है या नहीं. जाहिर है अगर कानून को सही ठहराया गया तो देश भर में सर्वे पर भी लगाम लगेगा क्योंकि उसके परिणाम तनाव पैदा करेंगे. अगर कानून गलत माना गया तो सांप्रदायिक तनाव का यह नासूर कैंसर बन जाएगा और भारत पश्चिम एशिया के कई अशांत देशों से होड़ कर रहा होगा.
(लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए)) के पूर्व महासचिव हैं)