Close Menu
    Facebook X (Twitter) Instagram
    Trending
    • Raj Thackeray News: राज ठाकरे को ‘खुला छोड़ना खतरनाक, इस नेता ने कर दी ऐसी कार्रवाई की मंग
    • Bihar Politics: ‘एक्टर हैं, उनकी कोई विचारधारा नहीं, ऊल-जुलूल बयान देने में माहिर…’ तेजस्वी ने चिराग पासवान पर कसा तंज
    • ‘सन ऑफ बिहार’ मनीष कश्यप हुये जन सुराज में शामिल, प्रशांत किशोर की मौजूदगी में हुई एंट्री
    • विदेश राज्यमंत्री कीर्तिवर्धन सिंह के पिता आनंद सिंह का निधन, टाइगर ऑफ UP से थे मशहूर, परिवार में छाया मातम
    • Lucknow news: …तो इस लिए बीजेपी नहीं चुन पा रही प्रदेश अध्यक्ष
    • Bajrang Manohar Sonawane Wikipedia: संघर्ष, सेवा और सफलता का प्रतीक, बीड से लोकतंत्र की आवाज़-बजरंग मनोहर सोनवाने
    • Bihar Elections 2025: PM मोदी के ‘हनुमान’ चिराग ने BJP की पीठ में घोंपा छुरा, सभी सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का किया ऐलान
    • Bhakt Pundalik Story: माँ-बाप की सेवा ने भगवान को रुकने पर मजबूर कर दिया, जानिए पुंडलिक की कहानी
    • About Us
    • Get In Touch
    Facebook X (Twitter) LinkedIn VKontakte
    Janta YojanaJanta Yojana
    Banner
    • HOME
    • ताज़ा खबरें
    • दुनिया
    • ग्राउंड रिपोर्ट
    • अंतराष्ट्रीय
    • मनोरंजन
    • बॉलीवुड
    • क्रिकेट
    • पेरिस ओलंपिक 2024
    Home » युद्ध विराम की पेशकश करने वाले माओवादी आये कहाँ से?
    भारत

    युद्ध विराम की पेशकश करने वाले माओवादी आये कहाँ से?

    Janta YojanaBy Janta YojanaApril 4, 2025No Comments11 Mins Read
    Facebook Twitter Pinterest LinkedIn Tumblr Email
    Share
    Facebook Twitter LinkedIn Pinterest Email

    हिंसक गतिविधियों के लिए देश के कई हिस्से में चर्चा में रहने वाली पीसीआई (माओवादी) सरकार के साथ शांति वार्ता के लिए तैयार है। उसने कहा है कि अगर सरकार की ओर से हमले बंद हो जायें तो वह भी युद्ध विराम के लिए तैयार है। उधर, सरकार की ओर से हथियार डालने की शर्त रखी गयी है। आख़िर, माओवादी पार्टी को यह ताक़त कहाँ से मिली कि वह सरकार के साथ युद्ध छेड़े इस पार्टी का इतिहास क्या है

    लेकिन पहले बात शांति प्रस्ताव की। दरअसल, 24 मार्च को हैदराबाद में हुई शांति वार्ता समिति की एक बैठक के बाद माओवादियों और सरकार से माओवादियों से मध्यभारत में जारी युद्ध को तत्काल रोकने की अपील की गयी थी। 28 मार्च को माओवादी पार्टी के प्रवक्ता अभय की ओर से जारी एक पत्र में कहा गया है कि अगर सरकार की ओर से छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा जैसे राज्यों में हमला बंद होता है तो वह भी युद्ध विराम के लिए तैयार है। पिछले 15 महीनों में बस्तर में 400 से ज़्यादा लोग मारे गये हैं। उधर, छत्तीसगढ़ सरकार के गृहमंत्री विजय शर्मा ने कहा है कि बातचीत का रास्ता खुला है, लेकिन हिंसा स्वीकार नहीं है। यानी जब तक माओवादी हथियार नहीं रख देते हैं, बातचीत संभव नहीं है।

    केंद्र सरकार ने 2026 तक देश को वामपंथी उग्रवाद, नक्सलवाद या माओवाद से देश को मुक्त करने का ऐलान किया है। हाल के दिनों में सुरक्षा बलों ने माओवादियों के ख़िलाफ़ काफ़ी आक्रामक अभियान छेड़ा हुआ है। ज़ाहिर है, माओवादी दबाव में हैं और हो सकता है कि शांति वार्ता के ज़रिए अपने लिए कुछ राहत चाहते हों।

    लेकिन ये माओवादी हैं कौन क्या चीन से आये हैं जहाँ माओ के नेतृत्व में कभी क्रांति हुई थी और ये नक्सलवाद क्या है और माओवाद से उसका रिश्ता क्या है क्या दोनों एक ही चीज़ हैं। नक्सलियों को अक्सर वामपंथी उग्रवादी भी कहा जाता है। सवाल है कि क्यों और वे भारत में कैसी क्रांति करना चाहते हैं इन सवालों के जवाब के लिए इतिहास के कुछ अध्याय पलटने पड़ेंगे।

    दुनिया की क्रांतियों के इतिहास में 1789 की फ्रांस की क्रांति का शायद सबसे ज़्यादा महत्व है। ‘समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ को सभ्यता की कसौटी बना देने वाली इस क्रांति का प्रवाह रोकने के लिए फ्रांसीसी सम्राट लुई 16वें ने एस्टेट्स जनरल की बैठक बुलाई। इसमें दायीं तरफ़ वे सामंत बैठे जो अपने वर्ग के विशेषाधिकारों को बनाये रखना चाहते थे और बायीं तरफ़ वे लोग बैठे जो विशेषाधिकारों को ख़त्म करना चाहते थे। यहीं से वामपंथी और दक्षिणपंथी शब्द वजूद में आया। फ़्रांस की क्रांति की कामयाबी ने दुनिया भर में समता और स्वतंत्रता का झंडा बुलंद कर दिया। ग़रीबों की आर्थिक दशा के पीछे सामंती शोषण को ज़िम्मेदार ठहराया गया। लेकिन इस दौर में औद्योगिक क्रांति भी तेज़ हो रही थी जिसकी वजह से एक नये मज़दूर वर्ग का जन्म हो रहा था। तब उनके लिए न काम के घंटे तय थे और न मज़दूरी। 

    इस दौर में एक ऐसा शख़्स सामने आया जिसने मज़दूरों के शोषण और पूँजीपतियों के मुनाफ़े का पूरा अर्थशास्त्र खोलकर रख दिया। ये थे कार्ल मार्क्स।

    जर्मनी में पैदा हुए कार्ल मार्क्स शुरुआत में एक पत्रकार थे। उन्होंने अपने मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर 1848 में ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ लिखा जिसकी पहली लाइन है कि दुनिया का इतिहास दरअसल वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। उन्होंने बताया कि पूँजीपति वर्ग मज़दूरों के श्रम का पूरा मूल्य नहीं देता, उसका मुनाफ़ा दरअसल, मज़दूरों के श्रम की लूट है जिसके ज़रिये वह अपनी पूँजी बढ़ता जाता है। मार्क्स ने कहा कि मज़दूर वर्ग के पास खोने के लिए ‘ज़ंजीरों के सिवाय कुछ नहीं है।’ ज़ंजीर से मतलब उसके शोषण की स्थिति। मार्क्स ने साम्यवाद की कल्पना की जिसमें राज्य का लोप हो जाएगा यानी किसी सरकार की ज़रूरत नहीं रहेगी। लोगों को उनकी ज़रूरत की चीज़ें उपलब्ध होंगी और वे अपनी क्षमता और योग्यता के हिसाब से मन का काम करेंगे। इस सिद्धांत को एक यूटोपिया माना गया। यानी एक काल्पनिक स्थिति। बहरहाल, मार्क्स से प्रेरणा लेकर दुनिया के कई देशों में वामपंथी आंदोलन तेज़ हुआ जिसका लक्ष्य समाजवाद लाना था। यानी एक ऐसी व्यवस्था जिसमें उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण हो। मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणापत्र से प्रेरणा लेकर कम्युनिस्ट पार्टियाँ बनीं जिन्होंने सामंतों और पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ जनता को गोलबंद करना शुरू किया।

    मार्क्स के सिद्धांतों को मूल मानते हुए पहली सबसे सफल क्रांति रूस में हुई। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने जारशाही को उखाड़ फेंका और समाजवादी सोवियत व्यवस्था लागू की। इस कामयाब क्रांति ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया। ख़ासतौर पर उपनिवेशवाद से संघर्ष कर रहे देशों में इसका व्यापक प्रभाव पड़ा। बाद में 1948 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन में भी क्रांति हुई।

    इन क्रांतियों का दुनिया भर में प्रभाव पड़ा। रूस की क्रांति का भारत पर ख़ासतौर पर प्रभाव पड़ा। भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। शहीदे आज़म भगत सिंह और उनके साथी भी समाजवादी क्रांति करना चाहते थे। भगत सिंह की कोशिशों से क्रांतिकारियों के संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी यानी एचआरए में सोशलिस्ट शब्द जोड़ा गया और संगठन का नाम ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ हो गया। रूसी क्रांति के नायक लेनिन से बेतरह प्रभावित भगत सिंह दरअसल भारत में बोल्शेविक टाइप की क्रांति ही करना चाहते थे। फाँसी का फंदा चूमने के पहले उनका आख़िरी संदेश था- ‘इन्कलाब ज़िंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो। भगत सिंह के तमाम साथी बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये।

    भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में हुआ था और अंग्रेज़ी राज में वह लंबे समय तक भूमिगत और प्रतिबंधित रही। 15 अगस्त 1947 की आज़ादी को उसने सरमायेदारों की आज़ादी बताते हुए ‘ये आज़ादी झूठी है’ का नारा दिया और मज़दूरों-किसानों के राज के लिए सशस्त्र क्रांति का आह्वान किया। ख़ासतौर पर तेलंगाना में सशस्त्र किसान आंदोलन की लहर उठी लेकिन जल्दी ही पार्टी को समझ आ गया कि यह रास्ता भारत के हिसाब से ठीक नहीं है। लिहाज़ा सीपीआई ने संसदीय रास्ते को स्वीकार करते हुए 1952 में चुनाव लड़ा और देश के पहले चुनाव में मुख्य विपक्षी दल की हैसियत पाई।

    1957 में तो कमाल ही हो गया जब ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में दुनिया की पहली चुनी हुई सरकार केरल में बनी।

    पार्टी “कम्युनिस्ट” है तो उसे ‘सर्वहारा राज’ के लिए क्रांति का रास्ता बताना ही पड़ेगा और विद्वानों के बीच ‘रास्ता’ बड़ा मसला होता है और ‘लाइन’ को लेकर वाद-विवाद इतना बढ़ा कि 1964 में सीपीआई टूट गई। एक नए दल सी.पी.आई (एम) का जन्म हुआ। यहाँ ‘एम’ का मतलब ‘मार्क्सवादी’ था। ज़ाहिर है, इस नई पार्टी में जो लोग सीपीआई छोड़कर आए, वे मज़दूरों-किसानों के बल पर ‘पूँजीवादी राजसत्ता’ को उखाड़ फेंकने का सपना देख रहे थे। इस नई पार्टी के नेताओं में उत्साह भी काफ़ी था और जल्दी ही उन्हें एक प्रयोग का मौक़ा मिल गया। पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग ज़िले में सिलीगुड़ी के पास एक गाँव है नक्सलबाड़ी। यहीं पर सीपीएम के कुछ उत्साही नेताओं के नेतृत्व में किसानों ने सशस्त्र संघर्ष किया। इसका नेतृत्व एक दुबले-पतले शख़्स ने किया। नाम था चारू मजूमदार।

    यह 1967 के बसंत की बात है। सीपीएम नेता चारू मजूमदार के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी में किसान विद्रोह फूट पड़ा। यह एक स्थानीय ज़मींदार के शोषण के ख़िलाफ़ सशस्त्र कार्रवाई थी। ‘ज़मीन जोतने वाली की’-यह नारा पहले से लोकप्रिय था। पुलिस ने गोलीबारी की जिसमें 11 लोग मारे गए। इनमें  दो बच्चे भी थे। ज़मींदार और एक दारोगा भी मारा गया। इस तरह इसी नक्सलबाड़ी गाँव से उपजे आंदोलन का नाम पड़ा- ‘नक्सलवाद।’ और जिन लोगों ने किसानों की इस सशस्त्र गोलबंदी को सही माना, वे कहलाए नक्सलवादी।

     - Satya Hindi

    सीपीएम के तत्कालीन नेतृत्व को चारू मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में हुई यह कार्रवाई बचकानी लगी। आख़िरकार इन लोगों ने पार्टी से निकल कर एक ‘अखिल भारतीय क्रांतिकारी समन्वय समिति’ बनाई और 22 अप्रैल 1969 को यानी लेनिन के जन्मदिन पर एक नई पार्टी सीपीआई (एम.एल) का जन्म हुआ। इस बार कोष्ठक में ‘एम’ के साथ ‘एल’ भी जुड़ गया यानी यह पार्टी हुई -सीपीआई( मार्क्सवादी-लेनिनवादी)।

    चारु मजूमदार भारत में चीन जैसी क्रांति की कल्पना करते थे जहाँ 20 साल पहले माओ ने गाँव-गाँव किसानों को गोलबंद करके शहरों को घेरने की योजना बनाई थी और अंतत: राजसत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया था। चारू मजूमदार का सपना भी कुछ ऐसा ही था। क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए पार्टी ने ‘वर्गशत्रुओं के सफ़ाए’ का आह्वान किया जिसकी परिणति व्यक्तिगत हत्याओं में हुई। यहाँ तक कि तमाम ‘बुर्जुआ नेताओं’ और विचारकों की चौराहे पर खड़ी मूर्तियाँ भी तोड़ डाली गईं। अगले दो तीन साल तक यह सब चलता रहा। यूँ तो इसका असर पूरे देश के नौजवानों पर हुआ पर पश्चिम बंगाल ख़ासतौर पर इसकी चपेट में आया। तमाम प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों तथा मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों के छात्रों को इस आंदोलन ने आकर्षित किया। उधर,  सरकार ने भी भरपूर दमनचक्र चलाया। नक्सली होने के शक मात्र पर तमाम नौजवानों को गोली से उड़ा दिया गया। महाश्वेता देवी का उपन्यास – ‘1084वें की माँ’ इसी का जीवंत दस्तावेज़ है।

    1972 में चारू मजूमदार समेत तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी हिरासत में ही मौत हो गई। चारू मजूमदार की मौत के बाद सीपीआई (एमएल जल्दी ही कई ग्रुपों में बँट गयी। इनमें दो गुट मज़बूत होकर सामने आये। एक बिहार में लिबरेशन ग्रुप और दूसरा आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप। लिबरेशन और पीपुल्स वार इन ग्रुपों के मुखपत्रों का नाम था जिनसे वे पहचाने गये।

    पहले बात बिहार की करते हैं। बिहार के ग्रामीण इलाक़ों में लिबरेशन ग्रुप का असर था। दलितों के सम्मान और अधिकार के लिए लंबे समय तक यह सशस्त्र संघर्ष करता रहा। विनोद मिश्र इसके चर्चित नेता हुए। बहरहाल, पिछली सदी में अस्सी का दशक आते-आते लिबरेशन ग्रुप को भारतीय परिस्थिति में सशस्त्र क्रांति के विचार की सीमाएँ समझ में आ गयी थीं। उसने 1982 में इंडियन पीपुल्स फ़्रंट नाम का एक जनसंगठन बनाया जिसमें गैर कम्युनिस्ट ताक़तों को अपने साथ जोड़ा। इस आईपीएफ ने चुनाव लड़ना शुरू किया। 1989 में बिहार के आरा से पार्टी का सांसद भी चुना गया। बाद में 1992 में सीपीआई (एमएल) भूमिगत स्थिति से बाहर आ गयी। उसने संसदीय व्यवस्था को स्वीकार करते हुए सशस्त्र संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया। अब वह एक पंजीकृत राजनीतिक दल है। 2024 के चुनाव में बिहार से उसके दो सांसद चुने गये और बिहार विधानसभा में उसके क़रीब एक दर्जन विधायक हैं। जनसंघर्षों और सेक्युलर राजनीति के लिहाज़ से सीपीआई (एमएल) आज विपक्षी गठबंधन इंडिया का एक विश्वसनीय घटक है।

    पीपुल्स वार ग्रुप का सबसे ज़्यादा असर आंध्र प्रदेश में रहा और 2002 में दिवंगत हुए कोंडापल्ली सीतारमैया उनके सबसे बड़े नेता थे जो सीपीआई के ज़माने से कम्युनिस्ट आंदोलन में सक्रिय थे। ये ग्रुप भूमिगत रहा और इसने संसदीय रास्ते को स्वीकार नहीं किया।

    सितंबर 2004 में इसका और बिहार में सक्रिय माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एम.सी.सी) नाम के एक अन्य नक्सली संगठन के साथ विलय हो गया। एक नई पार्टी बनी जिसका नाम हुआ सीपीआई (माओवादी)। यह पार्टी चुनाव नहीं लड़ती। इसे विश्वास है कि बंदूकों के बल पर वह राजसत्ता को उखाड़ फेंकेगी। आंध्रप्रदेश के अलावा झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी इसका असर देखा जाता है, ख़ासतौर पर घने वनक्षेत्र वाले आदिवासी बहुल इलाक़ों में। इसकी अपनी आर्मी है जिसे ‘पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी’ कहा जाता है। इसका सुरक्षाबलों के साथ संघर्ष चलता रहता है। 2009 में भारत सरकार ने सीपीआई (माओवादी) को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया।

    भारतीय राजसत्ता की ताक़त को देखते हुए यह नहीं माना जा सकता कि बीती सदी के शुरुआती दशकों की तरह भारत में कभी कोई सशस्त्र संघर्ष राजसत्ता में दखल कर सकता है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद वैचारिक विरोधियों को ‘अर्बन नक्सल’ या माओवादी कहने का रिवाज बढ़ा है। न जाने कितने बुद्धिजीवी इसके शिकार हुए हैं। प्रख्यात नाटककार और फ़िल्मकार दिवंगत गिरीश कर्नाड ने 5 सितंबर 2018 को ‘मैं भी अर्बन नक्सल’ लिखा पोस्टर गले में लटकाकर बेंगलुरु की सड़क पर प्रदर्शन किया था। दरअसल, सरकार ने सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरवर राव जैसे बुद्धिजीवियों को ‘अर्बन नक्सल’ कह भीमा कोरेगाँव मामले में गिरफ़्तार किया था जिसका गिरीश बर्नाड विरोध कर रहे थे। तब उन्होंने कहा था – ‘सच बोलना नक्सल होना है, तो मैं नक्सल हूँ।’ मानवाधिकार हनन का सरकार का यह रवैया दरअसल, नक्सली शब्द की अहमियत बढ़ाने वाला है। वैसे भी अगर किसी देश में अहिंसक आंदोलन के लिए जगह नहीं बचती तो हिंसक आंदोलन को वैधता मिलती है। आलोचक ये भी कहते हैं कि सरकार दरअसल, पूँजीपतियों की मदद के लिए आदिवासी इलाक़ों में क़ब्ज़ा चाहती है जहाँ बड़ी तादाद में खनिज हैं। इसके लिए पेसा क़ानून का भी उल्लंघन किया जाता है जो ग्राम समाज को फ़ैसला करने का अधिकार देता है। जो भी इसका विरोध करता है, सरकार की नज़र में नक्सली या माओवादी हो जाता है।

    Share. Facebook Twitter Pinterest LinkedIn Tumblr Email
    Previous Articleसंकट से जूझती खरगोन की जीनिंग इंडस्ट्री, कैसे बनेगा मप्र टैक्सटाइल हब
    Next Article Sonbhadra News: शिवशक्ति धाम.. गिरिजाशंकर धाम जहां एक शिवलिंग में हैं शिव-पार्वती
    Janta Yojana

    Janta Yojana is a Leading News Website Reporting All The Central Government & State Government New & Old Schemes.

    Related Posts

    ट्रंप की तकरीर से NATO में दरार!

    June 25, 2025

    ईरान ने माना- उसके परमाणु ठिकानों को काफी नुकसान हुआ, आकलन हो रहा है

    June 25, 2025

    Satya Hindi News Bulletin। 25 जून, शाम तक की ख़बरें

    June 25, 2025
    Leave A Reply Cancel Reply

    ग्रामीण भारत

    गांवों तक आधारभूत संरचनाओं को मज़बूत करने की जरूरत

    December 26, 2024

    बिहार में “हर घर शौचालय’ का लक्ष्य अभी नहीं हुआ है पूरा

    November 19, 2024

    क्यों किसानों के लिए पशुपालन बोझ बनता जा रहा है?

    August 2, 2024

    स्वच्छ भारत के नक़्शे में क्यों नज़र नहीं आती स्लम बस्तियां?

    July 20, 2024

    शहर भी तरस रहा है पानी के लिए

    June 25, 2024
    • Facebook
    • Twitter
    • Instagram
    • Pinterest
    ग्राउंड रिपोर्ट

    मूंग की फसल पर लगा रसायनिक होने का दाग एमपी के किसानों के लिए बनेगा मुसीबत?

    June 22, 2025

    केरल की जमींदार बेटी से छिंदवाड़ा की मदर टेरेसा तक: दयाबाई की कहानी

    June 12, 2025

    जाल में उलझा जीवन: बदहाली, बेरोज़गारी और पहचान के संकट से जूझता फाका

    June 2, 2025

    धूल में दबी जिंदगियां: पन्ना की सिलिकोसिस त्रासदी और जूझते मज़दूर

    May 31, 2025

    मध्य प्रदेश में वनग्रामों को कब मिलेगी कागज़ों की कै़द से आज़ादी?

    May 25, 2025
    About
    About

    Janta Yojana is a Leading News Website Reporting All The Central Government & State Government New & Old Schemes.

    We're social, connect with us:

    Facebook X (Twitter) Pinterest LinkedIn VKontakte
    अंतराष्ट्रीय

    पाकिस्तान में भीख मांगना बना व्यवसाय, भिखारियों के पास हवेली, स्वीमिंग पुल और SUV, जानें कैसे चलता है ये कारोबार

    May 20, 2025

    गाजा में इजरायल का सबसे बड़ा ऑपरेशन, 1 दिन में 151 की मौत, अस्पतालों में फंसे कई

    May 19, 2025

    गाजा पट्टी में तत्काल और स्थायी युद्धविराम का किया आग्रह, फिलिस्तीन और मिस्र की इजरायल से अपील

    May 18, 2025
    एजुकेशन

    MECL में निकली भर्ती, उम्मीवार ऐसे करें आवेदन, जानें क्या है योग्यता

    June 13, 2025

    ISRO में इन पदों पर निकली वैकेंसी, जानें कैसे करें आवेदन ?

    May 28, 2025

    पंजाब बोर्ड ने जारी किया 12वीं का रिजल्ट, ऐसे करें चेक

    May 14, 2025
    Copyright © 2017. Janta Yojana
    • Home
    • Privacy Policy
    • About Us
    • Disclaimer
    • Feedback & Complaint
    • Terms & Conditions

    Type above and press Enter to search. Press Esc to cancel.