भारत और हिंदी भाषी समाज में रंगमंच के इतिहास के बारे में जब बात की जाती है तो अमूमन ये पढ़ने और सुनने में आता है कि हमारे समाज में रंगमंच की कोई अबाधित परंपरा नहीं रही है और संस्कृत नाटकों को छोड़ दें तो देसी भाषाओं में वैसा रंगमंच विकसित नहीं हुआ जैसा कि कुछ और देशों में हुआ। मुद्दा काफी बड़ा है और इसकी संक्षेप में चर्चा भी एक पुस्तक का रूप ले लेगी। इसलिए यहां इस बारे में सिर्फ एक बिंदु पर बात की जा रही है और वो ये कि रामलीला को हम नाटक मानते हैं या नहीं वैसे ये भी अपने में एक बड़ा मसला है क्योंकि अगर हमारे विश्वविद्यालयों और दूसरे अकादमिक संस्थानों की रामलीला को अलग माना जाता है और नाटक को अलग। यानी रामलीला के अस्तित्व को तो स्वीकार किया जाता है लेकिन विद्वान, सिद्धांतकार और अकादमिक अध्येता उसे नाटक की श्रेणी में नहीं रखते हैं।
अब जब दशहरा का त्योहार ख़त्म हो गया है और देश भर में रामलीलाओं के मंचन का दौर भी थम गया है तो इस बारे में सोचा जा सकता है। यहां मेरी मूल प्रस्तावना ये है कि रामलीला सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं है, जैसा कि आम तौर पर प्रचारित है। लेकिन जिस तरीके़े से इसका विकास हुआ और जो आज भी लगातार हो रहा है, उस लिहाज से रामलीला पर विमर्श इस नज़रिए से भी होना चाहिए कि वह एक नाटक भी है और नाट्यकला के कई तत्व और बारीकियां उसमें मौजूद हैं। आज के जो रंगमंचीय और अभिनय संबंधी सिद्धांत हैं इसके मूल में स्तानिस्लावस्की या उनके बाद के सिद्धांतकारों, माईकेल चेखव आदि की धारणाएं हैं। बेशक वे भी महत्वपूर्ण हैं और आज के वैश्विक रंगमंच को निर्मित करने में उनकी बड़ी भूमिका है। लेकिन इन सिद्धांतों के आने के पहले और बाद में भी रामलीलाओं में अभिनय के कई पक्ष विद्यमान रहे जो इसे एक विशिष्ट नाट्य् और अभिनय शैली बनाते रहे हैं।
रामलीला की एक बड़ी खूबी है इंप्रोवाइजेशन। आधुनिक रंगमंच में भी इंप्रोवाइजेशन का बहुत महत्व रहा है। लेकिन रामलीला में जितना इंप्रोवाइजेशन होता है उतना किसी और आधुनिक नाट्य शैली में नहीं है। जो कि रामलीला में मुख्य रूप में राम की ही कथा होती है। लेकिन हर रामलीला में नई उद्भावनाएँ होती हैं– संवादों में भी और कहानी में भी। जैसे एक रामलीला में अंतिम दृश्य में रावण इसलिए मरने से इनकार कर देता है क्योंकि जिस दिहाड़ी में उसे अभिनय करने के लिए बुलाया गया था उतने से काम नहीं चलेगा क्योंकि महंगाई बढ़ गई है। तो रावण का किरदार निभानेवाला अभिनेता मंच पर ही रामलीला कमिटी के प्रबंधक से अपनी दैनिक मजदूरी बढ़ाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर देता है। ये भी रामलीला का ही हिस्सा होता है और दर्शक इसे स्वीकार करते हैं और इस दौरान खूब हंसते हैं। ऐसी चीजों रामलीलाओं में अक्सर होती हैं और दर्शक इसे स्वीकार करते हैं।
दिल्ली के एक वरिष्ठ रामलीला निर्देशक रमेश खन्ना, जो कई बरसों से दिल्ली और देश के अलग हिस्सों में रामलीलाओं का निर्देशन कर रहे हैं और इस साल भी दिल्ली के डेरावल नगर (गुजरावाला टाउन) में इस साल एक रामलीला की, का कहना है कि हर निर्देशक के सामने एक चुनौती रहती है वो अपनी रामलीला दूसरों से अलग कैसे करे। इसके लिए वो कई बार रामकथा के विभिन्न स्रोतों की तलाश करता है। उन्होंने खुद एक बार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्ध रचना `राम की शक्तिपूजा’ का प्रयोग किया था जिसमें जब राम रावण पर अपनी जीत के लिए देवी की आराधना करते हैं और देवी परीक्षा के लिए लाए गए कमल का एक फूल छिपा देती है ताकि देखें कि राम अब क्या करते हैं। ये प्रसंग तुलसीदास के `राम चरित मानस’ में नहीं है और न वाल्मीकि रामायण में।
`राम की शक्तिपूजा’ शाक्त परंपरा से प्ररित है, वैष्णव परंपरा से नहीं। लेकिन आज इसका प्रयोग किया जा रहा है और किसी को कोई आपत्ति नहीं है। पारसी रंगमंच के दौरान राधेश्याम कथावाचक औऱ पंडित नारायण प्रसाद बेताब जैसों ने भी अपनी रचनाओं में कई नवीन उद्भावनाएँ कीं। उनकी भाषा भी बदलती रहती थी यानी दो प्रस्तुतियों में कहीं उर्दूपन अधिक हो जाता था तो कहीं कम। यशवंत सिंह टोहानवी तो खुद आर्यसमाजी थे लेकिन उनकी लिखी राम कथा भी मंचित होती रही और आज भी होती रहती है।
रामानंद सागर के `रामायण’ धारावाहिक के आने के बाद रामलीलाओं पर उसका प्रभाव पड़ा और कई निर्देशक उसके दृश्यों के आधार पर अपनी अपनी रामलीलाएं करने लगे। लेकिन सब ऐसा करते हैं, ये भी नहीं है।
कई बार स्थानीय परंपराएं और बोलियाँ/भाषाएं भी रामलीलाओं में अधिक दिखती हैं। एक जमाने में कानपुर के आसपास `परशुरामी’ होते थे जिनमें परशुराम ही मुख्य किरदार होते थे। ये भी एक प्रकार की रामलीला ही थी। अब तो फिल्म और टेवीविजन के स्टार भी रामलीलाओं में आते हैं।
ऐसा नहीं है कि रामलीला की परंपरा अकादमिक अध्ययन की नजरों से ओझल रही। कई विद्वानों के अलावा हिंदी रंगमंच की विदुषी इंदुजा अवस्थी ने रामलीलाओं का गहरा अध्ययन किया। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पूर्व निदेशक अनुराधा कपूर ने वाराणसी के राम नगर की रामलीला पर अंग्रेजी में पुस्तक लिखी है। वैसे रामलीला का उत्स वाराणसी ही माना जाता है और ये मान्यता रही है संत कवि और `रामचरित मानस” के रचतिया तुलसी दास ने रामलीला का चलन शुरू किया।
ये सब लिखने का आशय यही है कि रामलीला की जो कम से कम पांच सौ साल से अधिक की जो परंपरा है वो भी यही दिखाती है हिंदी नाटकों का इतिहास भी इतना ही पुराना है। रामलीलाओं में हजारों -लाखों दर्शक होते हैं। आज के आधुनिक रंगमंच को ये भी याद रखने की ज़रूरत है। हालाँकि इस सबका ये अर्थ भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि आधुनिक रंगमंच का महत्त्व कम है। समाज में परंपराएं और आधुनिकताएं साथ साथ चलती हैं और दोनों में कोई बेहतर या कमतर नहीं होता।