“अब कांग्रेस का शाही परिवार फिर आरक्षण ख़त्म करने पर अड़ रहा है। लेकिन मेरी बात कांग्रेस कान खोल कर सुन ले। जब तक मोदी है, तब तक बाबा साहेब आंबेडकर के दिये आरक्षण में रत्ती भर भी लूट नहीं करने दूँगा। हटाने नहीं दूँगा” – कुरुक्षेत्र में रैली को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी
“राहुल गाँधी ने देश से आरक्षण को समाप्त करने की बात कह कर कांग्रेस का आरक्षण विरोधी चेहरा एक बार फिर से देश के सामने लाने का काम किया है। मन में पड़े विचार और सोच किसी न किसी माध्यम से बाहर आ ही जाते हैं। मैं राहुल गाँधी को बताना चाहता हूँ कि जब तक भाजपा है, आरक्षण को कोई छू भी नहीं सकता”- अमित शाह का ट्वीट
“आज वह देश से आरक्षण खत्म करने की भाषा बोल रहे हैं और उन्होंने कांग्रेस का असली चेहरा दिखा दिया है। जो कोई भी राहुल गांधी की जीभ काटेगा, उसे मैं 11 लाख रुपये का इनाम दूँगा”- संजय गायकवाड़, विधायक, शिवसेना (शिंदे)
“राहुल गांधी की जुबान दाग दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने आरक्षण के बारे में जो कहा है वह खतरनाक है”- अनिल बोड़े, बीजेपी राज्यसभा सदस्य और पूर्व मंत्री
इन चार बयानों एक स्पष्ट रिश्ता नज़र आता है। पहले दो बयान प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के हैं, जो देश को बता रहे हैं कि नेता विपक्ष राहुल गाँधी ‘आरक्षण ख़त्म करना चाहते हैं’ जिसे वे हर हाल में रोकेंगे। और दूसरे दो बयान बता रहे हैं कि राहुल को रोकने के लिए ‘क्या किया जाएगा!’ जीभ काटने से लेकर जीभ जला देने तक का आह्वान करने वाले लोग सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने संविधान की शपथ ली है। हालाँकि संविधान की शपथ तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने भी ली है लेकिन लोकसभा में नेता विपक्ष के संवैधानिक पद पर बैठे राहुल गाँधी को दी जा रही धमकियों पर उनकी चुप्पी बता रही है कि केंद्र में सरकार जैसी चीज़ नहीं है। दुनिया का किसी लोकतंत्र में ऐसा संभव नहीं है कि नेता प्रतिपक्ष को इस तरह खुलेआम धमकी दी जाये और सरकार की ओर से कोई क़ानूनी क़दम न उठाया जाये। सरकार की चुप्पी बताती है कि सब कुछ उसकी योजना के अनुसार हो रहा है। यह सरकार के माफ़िया होने की मुनादी है।
यह पूरा प्रकरण बता रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी हिटलर के प्रचारमंत्री गोयबल्स का प्रबल अनुयायी है जो विरोधियों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने और ‘एक झूठ को सौ बार बोलकर उसे सच बना देने’ में माहिर था। हिटलर ने अपने तमाम प्रतिद्वंद्वियों को ऐसे ही दुष्प्रचार के ज़रिए अपने रास्ते से हटाया था। यहाँ तक कि उसके समर्थकों ने ख़ुद 27 फरवरी, 1933 को जर्मन संसद की इमारत में आग लगा दी थी और इसे हिटलर की हत्या का प्रयास बताकर प्रचारित किया था। हिटलर ने इस बहाने विपक्ष को कुचलने के लिए आपातकालीन क़ानूनों को पास कराके नाज़ी तानाशाही की बुनियाद डाली थी।
राहुल गाँधी ने अपनी अमेरिका यात्रा में आरक्षण हटाने की कोई बात नहीं की थी। उन्होंने कहा था कि जब भारत एक ‘फ़ेयर प्लेस’ ( न्यापूर्ण या समान अवसर वाली जगह) हो जायेगा तो ही आरक्षण हटाया जाएगा और भारत न्यायपूर्ण जगह नहीं है। लेकिन बीजेपी ने राहुल गाँधी के बयान को बिल्कुल ही उलटे अर्थ में प्रचारित करने की रणनीति बनायी ताकि कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया जा सके। राहुल जिस तरह से जाति जनगणना और आरक्षण की सीमा बढ़ाने पर ज़ोर दे रहे हैं, उससे उपजी घबराहट का तोड़ निकालने में जुटी सरकार ने नेता प्रतिपक्ष के प्रति हिंसक भावना तैयार करने का यह ‘आपराधिक रास्ता’ चुना है।
इतिहास बताता है कि राहुल गाँधी ने बिल्कुल वही कहा है जो संविधान सभा के सदस्यों की मंशा थी।
मई 1949 में हुई बहस के दौरान अनुसूचित जाति से आये संविधान सभा के सदस्य एस.नागप्पा ने आरक्षण के समर्थन में तर्क देते हुए कहा था, “ यहाँ और अभी, मैं आरक्षण के समाप्ति के लिए तैयार हूँ, बशर्ते हर हरिजन परिवार को दस एकड़ सिंचित भूमि, बीस एकड़ गैर-सिंचित भूमि मिले, और हरिजन के सभी बच्चों को विश्वविद्यालय तक मुफ्त शिक्षा मिले और उन्हें नागरिक या सैन्य विभागों में प्रमुख पदों का एक-पाँचवाँ हिस्सा दिया जाए।” इस पर हस्तक्षेप करते हुए संयुक्त प्रांत से आये मोहन लाल गौतम ने कहा कि ऐसे में हर ब्राह्मण एक ‘हरिजन’ के साथ स्थान बदलने को तैयार होगा यदि उन्हें ऐसा भूमि मिल सके। लेकिन नागप्पा के जवाब ने सभी आरक्षण विरोधियों को निरुत्तर कर दिया था। उन्होंने कहा- “एक ‘हिंदू’ केवल तभी ‘हरिजन’ बन सकता है जब वह दूसरों के लिए ‘सफाई और झाड़ू’ करने को तैयार हो।” ज़ाहिर है, संविधान सभा के लिए आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक रूप से वंचित-उत्पीड़ित तबक़ों के लिए प्रतिनिधित्व की व्यवस्था करना था। यह संवैधानिक सभा की बहसों की एक बुनियादी धारा थी।
नागप्पा का बयान और राहुल गाँधी की मुहिम में बड़ी समानता है। राहुल गाँधी भी जाति जनगणना के ज़रिए प्राप्त आँकड़ों का इस्तेमाल करके वंचित तबकों की तरक़्क़ी के लिए विशेष प्रावधान करने की बात कर रहे हैं।
समता की स्थिति आने पर वह नागप्पा की तरह आरक्षण की समाप्ति के पक्षधर हैं। यही नहीं, डॉ.आंबेडकर ने भी संविधान सभा में संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की अवधि दस साल रखने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन यह भी तय किया गया था कि इसे समाप्त करने के पहले यह देखा जायेगा कि इस प्रावधान का कितना असर पड़ा है। इसी का नतीजा है कि हर दस साल में इसकी समीक्षा होती है और जब यह पाया जाता है कि समतावादी समाज बनाने का लक्ष्य अभी दूर है तो दस साल के लिए यह राजनीतिक आरक्षण बढ़ा दिया जाता है।
यानी एस. नागप्पा से लेकर डॉ. आंबेडकर तक मानते थे कि एक दिन ऐसा आयेगा जब आरक्षण की ज़रूरत नहीं रह जाएगी। राहुल गाँधी ने बिल्कुल यही बात कही थी जिसके जवाब में उनकी जीभ काटने से लेकर जीभ जलाने तक की धमकी दी जा रही है।
इस संदर्भ में केंद्रीय रेल राज्यमंत्री रवनीत सिंह बिट्टू के बयान को भी ध्यान में रखना चाहिए जिसमें उन्होंने राहुल गाँधी को देश का सबसे बड़ा आतंकवादी क़रार दिया है। एक केंद्रीय मंत्री का बयान पूरी सरकार का बयान माना जाता है। रवनीत सिंह बिट्टू पर कोई कार्रवाई न होना बताता है कि मोदी और अमित शाह को इससे कोई परेशानी नहीं है। यही नहीं, इस संदर्भ में पूछे गये एक सवाल पर पत्रकार को झिड़कते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने ‘राजनीतिक’ सवाल पूछने का आरोप भी लगा दिया। माना जा सकता है कि राहुल की जान को ख़तरे में डालना भी ‘राजनीति’ का हिस्सा है। लेकिन राहुल गाँधी की भाव भंगिमा बताती है कि वे ऐसी राजनीति से डरने वाले नहीं हैं और न ही अपने अभियान से पीछे हटेंगे।
पीएम मोदी और उनके मंत्रियों को राहुल गाँधी से असहमति का पूरा अधिकार है लेकिन नेता प्रतिपक्ष की हिफ़ाज़त भी उनकी संवैधानिक ज़िम्मेदारी है। गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों दावा किया कि उनकी सरकार आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर बड़ी क़ामयाब है लेकिन अगर नेता प्रतिपक्ष को खुलेआम धमकियाँ दी जा रही हों तो यह दावा हास्यास्पद ही कहा जाएगा। किसी देश में प्रभावी सरकार के रहते ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। और अगर सरकार प्रभावशाली है तो फिर नेता प्रतिपक्ष को धमकियाँ सिर्फ़ उसके संरक्षण में संभव हैं। यानी वह सरकार नहीं माफ़िया है।
कांग्रेस ने राहुल गाँधी को दी गयी धमकियों के जवाब में देश भर में प्रदर्शन आयोजित किये। ऐसी नौबत आना लोकतंत्र पर बड़ा धब्बा है। क़ायदे से राहुल गाँधी को धमकाने वालों के ख़िलाफ़ प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को ख़ुद ही कार्रवाई का आदेश देना चाहिए था। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को व्यक्तिगत दुश्मनी में बदलना देश को गृहयुद्ध की ओर धकेलने की कोशिश है। पाकिस्तान और बांग्लादेश इसका ख़ामियाज़ा भुगत चुका है। डर है कि कहीं भारत भी उसी राह पर न चल पड़े।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)