सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे एक साल के भीतर सभी डायवर्टेड रिजर्व फॉरेस्ट लैंड को वापस लें। यह आदेश पर्यावरण संरक्षण और वन संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। कोर्ट ने यह भी कहा कि वन भूमि को गैर-वानिकी उद्देश्यों (यानी हार्टीकल्चर के अलावा) के लिए डायवर्ट करने की प्रक्रिया की निगरानी के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और पर्यावरण संरक्षण के तहत अपनी प्रतिबद्धता को दोहराते हुए दिया। कोर्ट ने टिप्पणी की कि वन भूमि का डायवर्जन, जो अक्सर खनन, बुनियादी ढांचा परियोजनाओं या रियल एस्टेट के लिए किया जाता है, पर्यावरण और जैव विविधता के लिए गंभीर खतरा है। कोर्ट ने कहा, “हम पर्यावरण की रक्षा के लिए हर संभव कदम उठाएंगे।” यह आदेश हाल ही में तेलंगाना के कंचा गाचीबावली जंगल में बड़े पैमाने पर पेड़ कटाई के मामले के बाद और भी प्रासंगिक हो गया, जहां कोर्ट ने पहले ही डायवर्जन पर रोक लगा दी थी।
आदेश की मुख्य बातें
वन भूमि की वापसी: सभी डायवर्टेड रिजर्व फॉरेस्ट लैंड को एक साल के भीतर वापस लिया जाए।
एसआईटी का गठन: एक विशेष जांच दल का गठन किया जाए जो डायवर्जन की प्रक्रिया की निगरानी करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि गैर-कानूनी तरीके से डायवर्ट की गई भूमि को पुनर्स्थापित किया जाए।
मुआवजा और पुनर्वनीकरण: जिन परियोजनाओं के लिए वन भूमि डायवर्ट की गई थी, उन्हें मुआवजा वृक्षारोपण (कंपेंसेटरी एफोरेस्टेशन) के नियमों का सख्ती से पालन करना होगा।
राज्य सरकारों की जवाबदेही: कोर्ट ने चेतावनी दी कि अगर आदेशों का पालन नहीं किया गया तो संबंधित अधिकारियों को जेल भेजा जा सकता है।
इस आदेश का एक ताजा उदाहरण तेलंगाना के कंचा गाचीबावली में देखा जा सकता है, जहां 400 एकड़ वन भूमि को आईटी पार्क के लिए डायवर्ट करने की कोशिश की गई। इस कदम के खिलाफ छात्रों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया। सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत इस पर रोक लगाई और तेलंगाना सरकार को पुनर्स्थापन योजना प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस क्षेत्र में हिरण, मोर और अन्य वन्यजीवों की मौजूदगी इसे एक संरक्षित वन क्षेत्र बनाती है, भले ही इसे आधिकारिक तौर पर वन के रूप में अधिसूचित न किया गया हो।
पर्यावरणविदों ने इस फैसले का स्वागत किया है। उनका कहना है कि यह आदेश न केवल वन संरक्षण को मजबूत करेगा बल्कि सरकारों को विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने से भी रोकेगा। एक कार्यकर्ता ने कहा, “विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन जरूरी है। यह फैसला उस दिशा में एक बड़ा कदम है।”
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों से कहा है कि वे वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और 1996 के टी.एन. गोदावर्मन मामले में दिए गए फैसले का पालन करें, जिसमें ‘वन’ की परिभाषा को व्यापक किया गया था। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि कोई भी भूमि, जिसमें वन जैसी विशेषताएं हों, उसे वन माना जाएगा, भले ही वह सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज न हो।
यह आदेश भारत के पर्यावरण संरक्षण के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है, बशर्ते इसका सख्ती से पालन किया जाए। सवाल यह है कि क्या सरकारें इस समयसीमा के भीतर वन भूमि को वापस ले पाएंगी और जैव विविधता को सुरक्षित रखने में सफल होंगी।