
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने एक सार्वजानिक-सभा में भाषण दे रहे थे. बीच में अचानक भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता नारे लगाने लगे. यह बात राज्य के इस सबसे बड़े जन-प्रतिनिधि को इतनी नागवार गुज़री कि तत्काल आदेश दिया कि जो भी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मौजूद हैं, फ़ौरन मंच पर आयें. सुरक्षा के लिए तैनात एक एसीपी पूरी संजीदगी के साथ मंच पर आ कर सीएम साहेब को सैल्यूट किया लेकिन सैल्यूट का जबाव सीएम ने अपना दाहिना हाथ खींच कर थप्पड़ मारने के भाव से दिया.
अधिकारी को प्रशासनिक सेवा की ट्रेनिंग में कानून-व्यवस्था के इस अध्याय से परिचित नहीं कराया गया था लिहाज़ा थोडा पीछे हुआ. मुख्यमंत्री की भावभंगिमा के प्रतिकार की आशंका से उनका सिक्यूरिटी अफसर अचानक बगल में आया तब इस “जननेता” को अहसास हुआ कि कैमरा लगा है और हजारों की भीड़ उनके उग्र भाव को देख रही है. हाथ पीछे आया. लेकिन लौटने के बाद मुख्यमंत्री उस अधिकारी की “अक्षमता” पर क्या प्रतिक्रिया देंगे यह अभी पता नहीं चला है.
स्थाई कार्यपालिका की नियति में हीं इसकी दुर्गति है. जरा सोचें. इस वर्ग से (जिसे ब्रिटिश काल में आईसीएस) कहा जाता था, सन 1922 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉर्ज लोयेड इनकी “क्षमता” से इतने खुश थे कि ब्रिटिश संसद में बोलते हुए इन्हें “स्टीलफ्रेम” की संज्ञा से नवाजा. यह वह काल था जब गांधी अंग्रेजों के खिलाफ जनाक्रोश सडकों पर लाने में अद्भुद रूप से सफल हो रहे थे. याने शोषणकारी औपनिवेशिक व्यवस्था में भी “आकाओं” को खुश करना इनकी भी मौलिक फितरत हो चुकी थी.
भारतीय आईसीएस का एक बड़ा वर्ग भी आजादी की लड़ाई को दबाने में उसी शिद्दत से लगा था. आजादी की औपचारिक घोषणा के पूर्व की अंतरिम सरकार में नेहरु इन आईसीएस अधिकारियों से छुटकारा चाहते थे. संविधानसभा में भी इनके खिलाफ माहौल था. लेकिन पटेल इस छोटे से काल इनकी साथ काम करने का अनुभव संविधानसभा में साझा करते हुए कहा “जिन यंत्रों के साथ काम करना हो उन्हें बिगाड़ते नहीं हैं”. जाहिर है उनको भी उतना भरोसा नहीं था.
लेकिन ढाई साल इनके साथ काम करने के बाद पटेल ने एक सवाल के जवाब में उसी सभा में 10 अक्टूबर, 1949 को कहा, “मैं पिछले कुछ समय से इनके साथ काम कर रहा हूँ. मैं अपने अनुभव के आधार पर पूरी संजीदगी से कह सकता हूँ कि “लॉयल्टी” की बात हो या “देशभक्ति” की, या फिर जिम्मेदारी की, यह अधिकारी वर्ग हम राजनीतिक लोगों से कहीं कम नहीं हैं. सच पूछिए तो इन तीन वर्षों में मैंने पाया कि इनका विकल्प नहीं है और अगर इन्होने निष्ठा और प्रतिबद्धता से काम न किया होता तो यह यूनियन ढह चुका होता”.
पटेल के कार्यकाल में हीं आल इंडिया सर्विस की अवधारणा के तहत आइएएस और आईपीस कैडर्स तैयार किया गया. इन सेवा में तीसरा वर्ग है इंडियन फारेस्ट सर्विस का. बाकि सारी सेवाएं यहाँ तक कि इंडियन फॉरेन सर्विस (आईएफएस) भी सेंट्रल सर्विसेज में आती हैं.
लोयड से पटेल से मोदी तक
अगर किसी संस्था की तारीफ औपनिवेशिक शासन के ब्रिटिश पीम से लेकर आजाद नए भारत का एचएम करे तो इससे एक बात तो साफ़ है— अफसरों को “अक्काओं” के हुक्म बजा लाने में महारथ हासिल है. ईडी से लेकर आईटी तक और सीबीआई से लेकर थाने के दरोगा तक अपनी रीढ़ गिरवी रख चुके हैं किसी नेता के घर ताकि पोस्टिंग अच्छे मिले और ट्रान्सफर मन माफिक हो.
कर्नाटक की उपरोक्त छोटी सी घटना बताती है कि देश के प्रशासनिक ढांचे को शक्ति-असंतुलन के दीमक ने कितना खोखला कर दिया है. लेकिन इसमें एक पक्ष –राजनीतिक कार्यपालिका – हीं दोषी नहीं है. इन आकाओं को खुश करने के लिए ये अधिकारी बुलडोजर से गिरे मकान और आर्तनाद करती महिलाओं-बच्चों की फोटो अपने सीएम के साइट पर अपलोड करते हैं. बच्चों को स्कूल में मिड-डे मील में चावल और नमक खिलाये जाने की फोटो और खबर प्रकाशित करने वाले पत्रकार को यही अफसर सत्तादल को खुश करने के लिए संगीन दफाओं में महीनों जेल में रखते हैं.
अफसरों को ज्वाइन करने के समय संविधान और कानून के अनुरूप काम करने की शपथ लेनी होती है लेकिन 75 सालों में अच्छी पोस्टिंग का लालच और ट्रान्सफर का डर इनकी नैतिक रीढ़ तोड़ चुका है. नतीजतन उत्तर प्रदेश में एक एसपी मीडिया बुलाकर एक कांवड़ यात्री के पैर धोता है और विडियो को सीएम ऑफिस को भेज देता है. होड़ में एक डीएसपी होली पर मुसलमानों को आदेश देता है कि रंग से ऐतराज है तो घर में बैठें लेकिन उस राज्य का सीएम ईद के अवसर ऐलान करता है कि सड़क नमाज पढ़ने की जगह नहीं है. अगले दिन एसपी/डीएसपी को शाबासी मिलती है. तो थप्पड़ को जलालत क्यों मानें?


