कुछ दिन पहले चित्रकूट में आयोजित एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अजब घोषणा की। उन्होंने कहा कि ‘संतों और सनातन’ की राह में आने वाली बाधाओं को संघ के स्वयंसेवक अपने डंडे से दूर करेंगे। आरएसएस के सौ साल के इतिहास में गणवेश में शामिल लाठी के इस्तेमाल का ऐसा स्पष्ट ख़ाका शायद ही किसी सरसंघचालक ने खींचा हो। आरएसएस की शाखाओं में लाठी चलाने (दंड संचलन ) की ट्रेनिंग देने के पीछे हमेशा ‘आत्मरक्षा’ को मक़सद बताया जाता रहा है।
पर क्या किसी संत या सनातन की राह की बाधाओं को ‘डंडे’ से दूर किया जा सकता है आख़िर ये बाधाएँ हैं क्या और सबसे बड़ी बात संत और सनातन की परिभाषा क्या है और क्या इन परिभाषाओं पर सभी एकमत हैं
आइये पहले संतों की उस परिभाषा को समझते हैं जिस पर समाज सदियों से एकमत रहा है। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं-
‘तुलसी संत सुअंब तरु, फूलि फलहिं पर हेत। इतते ये पाहन हनत, उठते ये फल देत।।’
यानी ‘संत और रसीले फलदार वृक्ष दूसरों के लिए फलते-फूलते हैं। जो पत्थर मारते हैं उन्हें भी वे फल देते हैं।’ आशय यह बताना है कि संतों से कोई कितना भी बुरा व्यवहार करे, संत हमेशा भला व्यवहार ही करते हैं।
तुलसीदास के समय ही एक और कवि हुए हैं कुंभनदास।अष्टछाप के कवियों में शामिल कृष्णभक्त कुंभनदास लिखते हैं-
संतन को कहाँ सीकरी सों काम।
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गये हरि नाम।।
जाकौ मुख देखैं दुख लागै, ताको करिबे परी सलाम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिन और सबे बैकाम।।
कुंभनदास, सीकरी (अकबर की राजधानी फ़तेहपुर सीकरी) जाने को लेकर परेशान थे। उनका आशय है कि ‘संतों को दरबार से क्या काम आने-जाने में चप्पल टूट जाती है और भगवान का नाम लेना भी भूल जाता है। ऐसे लोगों को सलाम करना पड़ता है जिनका चेहरा देखने से ही दुख होता है। भगवान की भक्ति के अलावा सब बेकार है।’
यानी संत सांसारिकता से विरक्त होता है।काम, क्रोध, मद, लोभ जैसे विकारों से दूर। सभी से प्रेम करने वाले और दुर्व्यवहार का जवाब भी सद्व्यवहार से देने वाले ही संत कहलाने लायक़ हैं। संत दरअसल, एक ‘सुभाव’ है। समस्त संसार के कल्याण की कामना से भरा हुआ। जिसके हृदय में प्रेम और करुणा का सागर लहराता है। इस सागर में कटुता और भेद की कोई लहर नहीं होती।
“
अब ज़रा आरएसएस के सम्मानित संतों में इस ‘सुभाव’ को देखिए! ‘बँटेंगे तो कटेंगे जैसा’ हिंसक नारा देने वाले योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश जैसे विशाल प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर आरएसएस की ही पसंद हैं।
चुनाव में ‘अस्सी-बीस’ का खुला खेल खेलने वाले योगी आदित्यनाथ के पक्ष में आरएसएस के ‘दंडपाणि’ (डंडाधारी) स्वयंसेवक हमेशा मुस्तैद दिखते हैं। योगी आदित्यनाथ की तर्ज़ पर न जाने कितने छोटे-बड़े भगवाधारी इन दिनों शहर-शहर नफ़रत की आग उगल रहे हैं। इन्हें ‘संत’ कहना, संत की परिभाषा का अपमान है। पर आरएसएस की ओर से इन्हें कभी टोका नहीं गया। न हिंदू समाज को ऐसे लोगों से दूर रहने को कहा गया। हरियाणा में जिस तरह बीजेपी सरकार, जेल में बंद बलात्कारी बाबा राम-रहीम की पेरोल की बाधाएँ बार-बार दूर करती है, उसमें आरएसएस के ‘डंडे’ का ज़ोर भी शामिल है।
मोदी सरकार ने 2015 में जगद्गुरु की पदवी से विभूषित रामभद्राचार्य को भारत-रत्न के बाद देश के दूसरे सबसे बड़े सम्मान यानी ‘पद्मविभूषण’ से सम्मानित किया था। पिछले दिनों उनका एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘उपाध्याय, चौबे, त्रिगुणाइत, दीक्षित और पाठक नीच अधम ब्राह्मण होते हैं।’
ब्राह्मणवाद किस तरह से शूद्र जातियों को ही नहीं, ब्राह्मण जातियों को भी अपमानित करता है, उसका यह शास्त्रीय उदाहरण है। लेकिन रामभद्राचार्य आरएसएस के ‘परम-आदरणीय’ हैं। संघ के स्वयंसेवकों के डंडे उनकी राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने में पल भर की देर नहीं करेंगे। वैसे भी आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर की यह घोषणा हर स्वयंसेवक के कानों में सदा गूँजती है कि “वर्णव्यवस्था ईश्वर निर्मित है और मनुष्य कितना भी चाहे उसे नष्ट नहीं कर सकता।”
गोलवलकर की यह घोषणा उनके एक साक्षात्कर में दर्ज है जो मुंबई से प्रकाशित मराठी दैनिक ‘नवा काल’ के 1 जनवरी 1969 के अंक में प्रकाशित हुआ था। यह डॉ.आंबेडकर के ‘जातिप्रथा के उच्छेद’ के ऐतिहासिक संकल्प को नष्ट करने का ऐलान था।
अब ज़रा ‘सनातन’ पर भी बात कर ली जाए। ‘सनातन’ को हिंदू धर्म के पर्याय के रूप में स्थापित करने का प्रयास हो रहा है लेकिन यह संज्ञा नहीं विशेषण है। यानी जो शाश्वत है, हमेशा से मौजूद। लेखक और पौराणिक कथाकार देवदत्त पटनायक ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर कुछ समय पहले पोस्ट किया था कि सनातन शब्द ‘किसी वेद में नहीं है।’
त्रिपिटक के सुत्तनिपात में गौतमबुद्ध का एक सुभाषित है:
सच्चा में अमता वाचा एस धम्मो सनत्तनो। सच्चे हत्थे च धम्मे च पाएँ सन्तों पतिहितो।।
अर्थात्: मेरी वाणी सदा सत्य हो, इससे सत्य, अर्थ, धर्म और शांति की प्रतिष्ठा होती है, यही सनातन धर्म (श्रेष्ठ परंपरा) है।
स्पष्ट है कि संस्कृत के सनातन के मूल में पालि भाषा का ‘सनत्तनो है जो सत्य की परंपरा को श्रेष्ठ बता रहे हैं। लेकिन सत्य तो आज सबसे ज़्यादा प्रताड़ित है। भारत के प्रधानमंत्री से लेकर बीजेपी के आईटी सेल तक जिस तरह झूठ के प्रसारण को राष्ट्रीय उद्मम बना चुके हैं, वह तो ‘सनातन धर्म’ पर ही लाठियाँ भाँजना है।
सनातन धर्म के उत्साही प्रचारक इसे लाखों साल पुराना बता देते हैं। कुछ कम उत्साही भी दसियों हज़ार सा पुराना तो कह ही देते हैं। लेकिन इस काल-खंड में ‘सनातन’ यानी ‘शाश्वत’ और ‘नित्य’ क्या है इस दौर में विचारों से लेकर भौतिक स्थितियों में लगातार बदलाव हुआ है। मनुष्य ने खेती करना बमुश्किल दस हज़ार ईसा पूर्व सीखा। ईश्वर की कल्पना से लेकर धर्मों के प्रारंभिक स्वरूप तक पहुँचने में उसे और पाँच हज़ार साल लगे। तब से लेकर अब तक अगर कोई चीज़ ‘सनातन’ है तो वह है मनुष्य की जिज्ञासा। यही जिज्ञासा उसे सत्य की खोज के लिए प्रेरित करती है। इस प्रक्रिया में न जाने कितनी पुरानी मान्यताओं का ध्वंस होता है।
यानी सत्य की खोज का संघर्ष ही सनातन है। लेकिन यह ‘सनातन’ आज देश के विश्वविद्यालयों में लहूलुहान पड़ा है जहाँ के शिक्षक इस बात से डरे हुए हैं कि कहीं उन्हें ‘हिंदू विरोधी’ साबित करने के लिए उनके लेक्चर के किसी हिस्से का वीडियो बनाकर वायरल न कर दिया जाये। आरएसएस से जुड़े संगठनों की ओर से ऐसा बार-बार किया गया है। संघ के छात्र-संगठन ‘विद्यार्थी परिषद’ के छात्र-नेताओं ने दिल्ली विश्वविद्यालय तक में ऐसा किया है और उन्हें कोई सज़ा नहीं हुई। खुले मन और विचारों की दुनिया लगातार सीमित की जा रही है जो भारत की ‘सनातन प्रक्रिया’ रही है।
हक़ीक़त ये है कि मनुष्य की गरिमा को अपमानित करने वाली ‘वर्ण-व्यवस्था’ और स्त्री को गुलाम बताने वाली ‘स्मृतियों’ के गौरव-गान में जुटे रहने वाले आरएसएस के दंडपाणि (डंडाधारी) ‘संत सुभाव और सनातन’ की राह में बाधा डालने वालों के साथ खड़े हैं। उन्हें चोट पहुँचा रहा है। मोहन भागवत के कहने का आशय भी यही है कि स्वयंसेवक अपनी इस ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए डंडा चलाने से न हिचकें।