आधुनिक भारत में संस्थाओं के इतिहास को देखें तो एक बड़ी समस्या उनके लंबे समय तक प्रासंगिक और रचनात्मक बने रहने की रही है। आकस्मिक नहीं कि सरकारी से लेकर ऐसी कई गैर-सरकारी संस्थाएं रही हैं जो अपने वक़्त में बहुत रचनात्मक रहीं पर आगे चलकर अपनी चमक खोती गईं। जो संस्थाएं स्वायत्त की धारणा के तहत बनीं उनकी स्वायत्तता छीजती गईं। कई कारण रहे पर फिलहाल यहां उसके विश्लेषण का वक्त नहीं है। अभी तो इतना समझने की बात है कि इस दौरान कुछ ऐसी संस्थाएं भी रहीं जो हाल के वर्षों में कुछ कारणों से हताहत अवश्य हुईं, या जिनकी स्वायत्तता कुचलने के प्रयास भी हुए फिर भी काफी हद तक वे अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता बनाए रख सकीं। इनमें एक है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) और उसका रंगमंडल।
रंगमंडल साठ साल पहले यानी 1964 में अस्तित्व में आया। तब रानावि के निर्देशक थे इब्राहीम अल्काजी। उनकी पहल से ही रंगमंडल अस्तित्व में आया और रानावि से प्रशिक्षित स्नातक उसमें बतौर पेशेवर कलाकार शामिल। बाद के बरसों में रानावि स्नातकों के इतर रंगकर्मी भी उसमें गए। अभी रंगमंडल ने अपने साठ साल पूरे होने पर एक बड़ा आयोजन किया है जिसमें नाटक तो हो ही रहे हैं, पुराने नाटकों की एक बड़ी प्रदर्शनी लगाई है जिसमें इन नाटकों को फोटोग्राफ प्रदर्शित हैं। साथ ही इनमें उन नाटकों के निर्देशक, अभिनेता और लेखकों के भी नाम हैं। वरिष्ठ रंगकर्मी और नाट्य निर्देशक रोबिन दास ने इसको परिकल्पित किया है।
हिंदी और भारतीय रंगमंच के इतिहास को जानने और समझने के लिए ये फोटो-प्रदर्शनी एक ज़रूरी स्रोत है। रानावि रंगमंडल ने अभी तक 201 नाटक किए और 84 निर्देशकों ने इस नाटकों को निर्देशित किया। इनमें अल्काजी के अलावा, बव कारंत, हबीब तनवीर, बीएम शाह, मोहन महर्षि, ओम शिवपुरी, राम गोपाल बजाज, भानु भारती, प्रसन्ना, अमाल अल्लाना, कीर्तिजैन, अनुराधा कपूर, सुरेश शर्मा, चित्तरंजन त्रिपाठी जैसे भारतीय निर्देशकों के अलावा फ्रिट्ज बेनिविट्स, रिचर्ड शेकनर जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के निर्देशक भी हैं।
इन सभी नाटकों के कुल मिलाकर लगभग चार हजार शो हुए। देश के विभिन्न भागों में। और देश विदेश के 84 नाटककारों के नाटक रंगमंडल ने मंचित किए जिसमें शेक्सपीयर, मोलियर ब्रेख्त से लेकर गिरीश कर्नाड, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती जैसे कालजयी नाटककार हैं। सूची बड़ी लंबी है पर कुल मिलाकर रंगमंडल का एक बड़ा योगदान ये भी है कि यह हिंदी में रंगमंच का ऐसा प्रामाणिक व्याकरण तो अंतरराष्ट्रीय स्तर का है। इस व्याकरण में सेट डिजाइन, प्रकाश परिकल्पना, वेशभूषा सज्जा, रंगसंगीत सम्मिलित है।
जब आप इन फोटोग्राफों को देखते हैं तो लगता है कि आजादी के बाद के हिंदी रंगमंच का कई युग सामने आंखों के सामने मूर्तिमान हो गए हैं।
पर इस फोटोग्राफी- दस्तावेजीकरण के अलावा कुछ ऐसी बातें हैं जिनका भी संकलन किया जाना चाहिए। मिसाल के लिए, हर नाटक या प्रस्तुति से जुड़े कुछ क़िस्से होते हैं और जो लोग रानावि से लंबे समय से जुड़े हैं उनको ऐसे कई क़िस्से मालूम हैं। एक यहां दे रहा हूं।
तब रंगमंडल का आरंभिक दौर था और मनोहर सिह सिंह रंगमंडल प्रमुख हुआ करते थे। वे एक बहुत अच्छे अभिनेता थे। जर्मन मूल के निर्देशक फ्रिट्ज बेनेविट्ज बर्टोल्ट ब्रेख्त का लिखा नाटक मिस्टर `पुंटिला एंड हिज मैन मट्टी’ निर्देशित करने रंगमंडल आए थे। हिंदी रूपांतरण में इस नाटक का नाम था `चोपड़ा कमाल नौकर जमाल’। तब होता ये था कि चूंकि मनोहर सिंह रंगमंडल प्रमुख थे तो पुरुष- केंद्रित मुख्य किरदार वही निभाते थे। हालांकि ये कोई नियम नहीं था , सिर्फ चलन में था।
हुआ ये कि जिन दिनों इस नाटक को खेलने की आरंभिक तैयारी चल रही थी उन दिनों मनोहर सिंह चार-पांच दिनों के लिए दिल्ली के बाहर गए हुए थे। तब आज के चर्चित फिल्म अभिनेता पंकज कपूर भी रंगमंडल में अभिनेता थे। पता नहीं क्या हुआ, यानी पंकज कपूर ने फ्रिट्ज से पटाया या फ्रिट्ज ने अपने आप ऐसा किया- मिस्टर पुंटिला वाली मुख्य भूमिका मनोहर सिंह को न देकर पंकज कपूर को दे दी। और जब मनोहर सिंह लौटकर आए तो फ्रिट्ज बेनिविट्ज ने रंगमंडल के सभी कलाकारों की मौजूदगी में मनोहर सिंह की भूरि भूरि तारीफ करते हुए कहा कि चोपड़ा यानी मिस्टर पुंटिला की भूमिका पंकज कपूर करेंगे। फिट्ज ने सभी अभिनेताओं को कहा इस पर आप सब ताली बजाओ। मनोहर सिंह को भी विवश होकर ताली बजानी पड़ी। जो कुछ हुआ वो अपने में एक नाटक था और पंकज कपूर मिस्टर पुंटिला के किरदार में जम गए। नाटकों के नेपथ्य में रोचक खेल हुआ करते हैं। ऐसे किस्सों को भी सहेजने की ज़रूरत है क्योंकि इनके बिना पूरा इतिहास नहीं लिखा जा सकता है।
जब रंगमंडल के इतिहास में जाते हैं तो ये भी पता चलता है कि गिरीश कर्नाड का नाटक `तुगलक’ हिंदी में पहली बार रंगमंडल ने ही खेला था। निर्देशक थे ओम शिवपुरी। अल्काजी ने उसका सेट डिजाइन किया था। पर गिरीश के उस नाटक को हिंदी में लानेवाले थे बव कारंत। कारंत को हिंदी पर पूरा अधिकार नहीं था इसलिए जेएन कौशल के साथ मिलकर उन्होंने ये अनुवाद किया और आज भी जो `तुगलक’ करता है उसी अनुवाद का इस्तेमाल करता है। इस तरह दूसरी भारतीय भाषाओं के नाटकों के हिंदी अनुवाद कराने और फिर उनको खेलने में भी रंगमंडल की भूमिका रही। यानी रंगमंडल हिंदी में नाटक करता रहा लेकिन उसने कई भारतीय भाषाओं के नाटकों को राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिष्ठित किया। इस तरह ये रंगमंडल एक भारतीय रंगमंडल भी रहा।