मध्य प्रदेश का पातालकोट 1200 से 1500 फीट गहरी घाटी है। यहां से गुज़र रही पक्की सड़क के ठीक किनारे गुलवती उइके का पक्का मकान दिखाई देता है। उइके के गांव तक सड़क तो पहुंच चुकी है मगर एम्बुलेंस आज भी नहीं पहुंचती। इसका खामियाज़ा उइके के परिवार को उठाना पड़ा।
दरअसल बीते बरसात गंदा पानी पीने के कारण उनकी मां बिमार हो गई थीं। हालत बिगड़ी तो परिवार उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए निकला। मगर घर से अस्पताल तक का सफ़र उनकी मां के लिए लंबा पड़ गया।
उइके गोंड जनजाति से ताल्लुक रखती हैं। मगर पातालकोट की पहचान यहां रहने वाली भारिया जनजाति से होती है। यह समुदाय विशेष पिछड़ी जनजातियों यानि पर्टिकुलरली वलनरेबल ट्राईब ग्रुप्स (PVTG) की श्रेणी में आता है।
पातालकोट तेज़ी से विकसित हो रहा है। यहां पक्की सड़क, पक्के घर और कंक्रीट वाला विकास तेज़ी फ़ैल रहा है। मगर यह लोगों की जान बचाने के लिए अब तक काफी नहीं है। बरसात के दौरान गंदे पानी से बीमार पड़ने और मरने वाले लोगों का सिलसिला जस का तस बना हुआ है।
पातालकोट की हकीकत-डायरिया
पातालकोट छिंदवाड़ा जिले में ऊंचे-ऊंचे पहाड़ की घाटियों में बसा है। यहां कुल 12 गांव हैं। इन गांवों में मुख्यतः भारिया और गोंड जनजाति के लोगों का बसेरा हैं। ये दोनों जनजातियां भारत की पीवीटीजी श्रेणी में आती हैं, जिनकी यहां आबादी तकरीबन 2,000 के आस-पास है।
गोंड जनजाति तो मध्य प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी पाई जाती है, लेकिन भारिया का पूरी दुनिया में एक ही निवास है, पातालकोट। आज पातालकोट और भारिया जनजाति एक-दूसरे के पूरक हैं। भारियाओं को लेकर लोकमानस में कई तरह की किवदंतियां आज भी प्रचलित है। मसलन ये अभी भी आदिम तौर-तरीके से रहते हैं, बौने होते हैं, इत्यादि। इन किंवदंतियों की पराकष्ठा तो मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग की वेबसाइट में देखने को मिलती है। वेबसाइट में 1981 की जनगणना के हवाले से भारिया जनजाति को “जंगलियों के भी जंगली” की उपमा दी गई है।
मगर आज भारियाओं के पक्के मकान बन रहे हैं, उनके पहनावे भी किसी आम भारतीय व्यक्ति की तरह ही हैं। पातालकोट का एक और स्याह पहलु है जिसके बारे में बात कम ही होती है। यहां का जनजातीय समुदाय बरसात में मैला पानी पीने के लिए मजबूर है। हर साल यहां के आदिवासी डायरिया के शिकार होते हैं। स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी सीमित हैं कि अक्सर बीमार व्यक्ति मौत की भेंट चढ़ जाता है।
पातालकोट का पानी
दूधी नदी पातालकोट का प्राथमिक जलस्त्रोत है। इन पहाड़ों से झर कर यह नदी नीचे बसे गांवों में अपना जल बांटती है। इन ऊंचे पहाड़ों से झर कर आया जल एक चट्टान पर इकठ्ठा होता है जिसे गांव के लोग ‘झिरिया’ बोलते हैं। यह झिरिया पूरी तरह से प्राकृतिक संरचनाएं हैं।
यूं तो ये झिरिया साल भर गांव वालों को साफ़ पानी उपलब्ध कराती हैं। मगर बरसात के दौरान स्थिति बिगड़ जाती है। बरसात के दौरान झरने वाला पानी अपने साथ ढेर गंदगी और कीचड़ लेकर नीचे उतरता है। पानी का दूसरा विकल्प न होने से गांव के लोग इसी मैले जल को इस्तेमाल करने पर मजबूर होते हैं।
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जुलाई 2024 में दैनिक भास्कर ने रिपोर्ट किया था कि 8 दिनों के भीतर 2 लोगों की मौत हो गई थी। चिमटीपुर की 50 वर्षीय अमरावती भारती और रातेड़ की 2 वर्षीय शारदा भारती की दस्त के कारण मौत हो गई।
पातालकोट के चिमटीपुर गांव में रहने वाली गुलवती की मां को दूषित जल पीने की वजह से डायरिया हो गया था। गुलवती बताती हैं कि इस बरसात उनकी मां को बड़ी मात्रा में दस्त और शरीर पर चकत्ते पड़ने लगे। इलाज के लिए शहर ले जाते वक्त रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई।
गुलवती के ठीक पीछे खड़ी एक महिला भी इस घटना को याद करते हुई उदास हो जाती हैं और कहती हैं,
उनकी मृत्यु छिंदवाड़ा में ही हो गई थी। आखिरी समय में मैं उन्हें देख भी नहीं पाई।
हालांकि यह घटना पातालकोट के गांवों के लिए कोई नई बात नहीं है। गुलवती बरसात के दौरान खराब पानी के अनुभवों को लेकर कहती हैं कि,
क्या बताएं, बरसात में बहुत लोग बीमार पड़ते हैं साब।
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चिमटीपुर से थोड़ा आगे जाने पर ही एक गांव पड़ता है, कारेआंम। यहां हमें ऐसी ही एक झिरिया दिखाई दी जहां धीमे-धीमे लगातार पानी झरकर इकठ्ठा हो रहा था। यहां कुछ लोग बरतन में पानी भर भी रहे थे। झिरिया से थोड़ी दूर ही अपने अधूरे पक्के मकान पर विनीता बैठी हुई थीं। विनीता बताती हैं कि बरसात में गंदे पानी की समस्या उनके लिए आम बात है। विनीता आगे कहती हैं,
बारिश में पूरे पानी में कांदौ (कीचड़) मिला रहता है। पूरा पानी मटमैला रहता है। हम इसको छानते हैं, कई बार गर्म करते हैं, लेकिन शायद ही यह पूरा साफ हो।
कारेआम में रहने वाले 45 वर्षीय सोहन भारती बताते हैं कि जब तेज और लगातार वर्षा होती है तब स्थिति और भी विकट हो जाती है। ऐसी स्थिति में गांव वाले ताजा पानी भी नहीं ले पाते है। वे पुराने, मैले पानी को ही कई दिनों तक उपयोग करने के लिए विवश होते हैं।
आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले डॉ. विकास शर्मा इस की गंभीरता बताते हुए कहते हैं कि,
इस साल बरसात के दौरान एक ही समय में तामिया अस्पताल में 25-30 आदिवासी भर्ती हुए थे। वहीं छिंदवाड़ा अस्पताल में भर्ती हुए आदिवासियों की संख्या भी 15-20 थी।
हालांकि मीडिया की खबरों की मानें तो स्थिति बिगड़ने के बाद पीएचई विभाग ने भी चिमटीपुर में डोर-टू-डोर सर्वे किया था। इसके अलावा, दूषित जल स्रोत को ग्रीन मैट से ढक दिया गया था।
पातालकोट के विषय में क्या कहता है जल जीवन मिशन
जल जीवन मिशन डैशबोर्ड में चिमटीपुर गांव से संबंधित कुछ जानकारियां मौजूद हैं। डैशबोर्ड के मुताबिक चिमटीपुर में कुल 48 घर हैं। जल जीवन मिशन के सरकारी आंकड़ों में इन सभी 48 घरों में नल का कनेक्शन उपलब्ध है।
डैशबोर्ड में चिमटीपुर के अलावा कई अन्य गांव भी हैं जहां शत-प्रतिशत नल कनेक्शन दिखाया गया है। लेकिन यहां डुंडीशिखर और कुमड़ी जैसे गांव भी हैं जहां मात्र 22 और 7 फीसदी घरों में ही नल कनेक्शन उपलब्ध हैं।
ग्राउंड रिपोर्ट की टीम ने भी इन गांवों का दौरा किया। खुद चिमटीपुर में ही कई ऐसे घर हमें देखने को मिले जहां नल नहीं लगा था। हालांकि हमें कुछ बोरवेल ज़रुर देखने को मिले जिनमें चापाकल नहीं लगाया गया है। स्थानीय लोग बताते हैं कि प्रशासन ने बोरवेल कराया लेकिन पानी नहीं निकला।
दरअसल पातालकोट की भू-संरचना जल आपूर्ति के उपायों को मुश्किल बनाती है। यहां की भूमि में मौजूद चट्टानें आर्कियन युग की ग्रेनाइट चट्टान हैं, इसके साथ ही पातालकोट का रास्ता भी दुर्गम है। ऐसे में न सिर्फ बोरवेल करने वाली मशीन का यहां तक पहुंचना मुश्किल है बल्कि चट्टानों को चीरना भी एक अन्य समस्या है।
पातालकोट में भूजल के ज़रिये पेयजल की व्यवस्था सुनिश्चित करना मुश्किल नज़र आता है। साथ ही बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता स्थिति को और गंभीर बना देती है।
सड़क मौजूद मगर एम्बुलेंस नहीं
गंदे पानी की वजह से हुई महिला की मृत्यु पर बात करते हुए, चिमटीपुर निवासी ऋषि कुमार भारती स्वास्थ्य सुविधाओं की गैर मौजूदगी की ओर इशारा करते हैं। पातालकोट, तहसील तामिया से तकरीबन 36 किलोमीटर दूर है। यहां एक अस्पताल भी स्थित है। लेकिन ये 36 किलोमीटर का सफ़र पहाड़ में बने घुमावदार रास्ते, कई अंधे मोड़ और कच्ची सड़क की वजह से बड़ी चुनौती बन जाते हैं।
ऋषि कुमार कहते हैं,
यहां एम्बुलेंस भी आने से मना कर देती है। हमें मरीज़ को कई बार बांध कर, टांग कर या मोटर साईकिल से ऊपर की ओर लेकर जाना होता है।
मगर मरीज़ के अधिक बीमार होने पर अस्पताल पहुंचने तक में ही उसकी हालत और बिगड़ जाती है। इसके चलते कभी-कभी मरीज़ की मौत भी हो जाती है।
छिंदवाड़ा के डॉ. विकास शर्मा यूं तो पेशे से एक प्राध्यापक हैं, लेकिन मिज़ाज से प्रकृति प्रेमी। विकास ने अपना लंबा समय पातालकोट के जंगलों और आदिवासियों के बीच बिताया है। विकास कहते हैं कि एम्बुलेंस की सुविधा न होने पर कई बार गांव वाले खुद से प्रयास कर तामिया के अस्पताल तक आते हैं। लेकिन वहां भी स्वास्थ्य सुविधाएं अपर्याप्त हैं।
कई बार मरीज़ को तामिया से छिंदवाड़ा के लिए रेफर किया जाता है। तामिया से छिंदवाड़ा तकरीबन 56 किलोमीटर दूर है। एम्बुलेंस न मिल पाने और मरीज़ को तामिया से छिंदवाड़ा ले जाने के लिए पर्याप्त पैसे न होने की वजह से अक्सर मरीज़ अधूरे इलाज के साथ ही वापस लौट जाता है।
विकास कुछ घटनाओं का जिक्र करते हैं,
कई बार मेरे पास फोन आया कि मरीज़ को किसी निजी अस्पताल में रेफर किया गया है लेकिन एम्बुलेंस के लिए पैसे नहीं। मैंने कई बार खुद और अपने परिचितों की मदद से एम्बुलेंस की व्यवस्था करने का प्रयास किया है।
दैनिक भास्कर की ही रिपोर्ट के मुताबिक, चिमटीपुर के 20 लोग डायरिया से पीड़ित होकर इलाज के लिए तामिया अस्पताल गए थे, जिनमें से 13 लोगों को तामिया अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। वहीं, छिंदवाड़ा जिला अस्पताल के मेडिकल वार्ड में उल्टी और दस्त के मरीज़ों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। स्थिति इस हद तक बिगड़ गई कि 48 बिस्तरों वाले वार्ड में 80 से अधिक मरीज़ भर्ती थे। ऐसे में मरीज़ों का इलाज जमीन पर ही करना पड़ता था।
एक घटना दोपहर के तकरीबन ढाई बजे ग्राउंड रिपोर्ट की टीम के सामने घटी, जहां एक कार पेड़ में टकराने की वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इस दुर्घटना में एक व्यक्ति बुरी तरह घायल भी हो गया था। उसने एम्बुलेंस बुलाने का प्रयास किया लेकिन एम्बुलेंस नहीं आई। अंततः हमने अपनी रेंटेड कार से घायल व्यक्ति को तामिया तक पहुंचाया।
इन उदाहरणों के बाद प्रश्न उठता है कि, क्या यह जरूरी नहीं है कि गंदे पानी से होने वाली बीमारियों के लिए पहले से ही पर्याप्त व्यवस्थाएं की जाएं? ताकि मरीज़ों को तामिया या उनके गांव के नजदीक ही अच्छा इलाज मिल सके।
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गौरतलब है कि पातालकोट के इन गांवों में प्रधानमंत्री जन मन योजना के तहत विकास कार्य किये जा रहे हैं। इस योजना के उद्देश्यों में सड़क और आवास के साथ ही हर घर जल उपलब्धता, मोबाइल हॉस्पिटल और दवाएं देना भी शामिल हैं। हमें इन गांवों में सड़क और आवास बनते तो दिखे लेकिन मोबाइल हॉस्पिटल और दवाओं की सुविधा पूरी तरह से नदारद दिखी।
चिमटीपुर गांव सड़क के किनारे मौजूद है। लेकिन पातालकोट में कई ऐसे गांव हैं जहां तक सड़क नहीं पहुंच पाई है। यहां एक गांव से दूसरे गांव ट्रेक कर जाना पड़ता है, जिसमें कई घंटे लग जाते हैं। इन गांवों में मरीज़ की अस्पताल तक तक यात्रा कितनी कठिन होती होगी। वहीं जहां सड़क हैं वहां पर्यटकों की गाड़ियां बेधड़क आ रहीं हैं, मगर एम्बुलेंस यहां का सफर नहीं तय कर पा रही है।
आज पातालकोट में विकास तो स्पष्ट रूप से दिखता है, फिर चाहे वह गाँव के आखिरी छोर तक पहुंची सड़के और उनमें दौड़ती शहरी गाड़िया हों, पक्के मकान हों, या फिर होम स्टे। लेकिन उस सड़क का क्या फायदा जहां मरीज़ को खाट में बांधकर 35 किलोमीटर दूर ले जाना पड़ रहा हो? उस विकास के मॉडल की क्या प्रासंगिकता जो, निश्चित समय में होने वाली स्वाभाविक बिमारी के लिए तैयार न हो? और अंततः जहां के स्थानीय निवासियों को बरसात भर साफ़ पानी न मिल पाता हो वहां ईको टूरिज़्म का शोर-शराबा भी बेमानी लगता है।
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