
Temples where eating Prasad is prohibited: अनोखी मान्यताओं और रहस्यों से भरी परंपराओं का गढ़ भारत धार्मिक विविधताओं और आध्यात्मिक आस्थाओं का अद्भुत संगम माना जाता है। यहां लाखों मंदिर हैं, जहां अलग-अलग देवताओं की पूजा और उनसे जुड़ी अनगिनत परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं। यूं तो मंदिरों में इन देवी देवताओं को अर्पित किया गया प्रसाद भक्तों के लिए अमूल्य होता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में कुछ मंदिर ऐसे भी हैं, जहां भक्तों को प्रसाद खाने या घर ले जाने की मनाही है? यह सुनकर भले ही अजीब लगे, लेकिन इसके पीछे गहरी आध्यात्मिक मान्यताएं और रहस्यमय परंपराएं जुड़ी हुई हैं। आइए जानते हैं भारत के उन विशेष मंदिरों के बारे में, जहां प्रसाद केवल प्रतीकात्मक रूप से स्वीकार किया जाता है। न उसे खाया जाता है और न ही घर ले जाया जाता है –
कोलार का कोटिलिंगेश्वर मंदिर यहां शिवलिंग पर चढ़ा प्रसाद नहीं खाते
कर्नाटक के कोलार जिले में स्थित कोटिलिंगेश्वर मंदिर अपनी अनोखी पहचान के लिए दुनियाभर में जाना जाता है। यहां भगवान शिव के एक या दो नहीं, बल्कि करीब एक करोड़ शिवलिंग स्थापित हैं। इसी कारण मंदिर का नाम ‘कोटिलिंगेश्वर’ पड़ा। मंदिर में पूजा के बाद मिलने वाला प्रसाद भक्तों को दिया तो जाता है, लेकिन इसे सिर्फ हाथ से स्पर्श कर आशीर्वाद के रूप में स्वीकार करना होता है।
इसे खाना या घर ले जाना सख्त मना है।
मान्यता के अनुसार, शिवलिंग पर अर्पित प्रसाद भगवान शिव के गण चंडेश्वर को समर्पित माना जाता है। चंडेश्वर की पूजा ऊर्जा और तांत्रिक परंपराओं से जुड़ी है। इसलिए उनके लिए चढ़ाया गया प्रसाद इंसानों द्वारा भोग लगाने योग्य नहीं होता।
भक्त इसे केवल प्रतीकात्मक रूप से सिर से लगाते हैं और वहीं छोड़ देते हैं।
मेहंदीपुर बालाजी मंदिर की नकारात्मक शक्तियों से जुड़ी मान्यता
राजस्थान के दौसा जिले में स्थित मेहंदीपुर बालाजी मंदिर हनुमान जी के उन मंदिरों में से एक है, जहां भूत-प्रेत बाधा और नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्ति के लिए लोग आते हैं। यहां हनुमान जी को बूंदी के लड्डू और भैरव बाबा को उड़द-चावल का भोग लगाया जाता है। लेकिन यहां सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मंदिर का कोई भी प्रसाद न तो खाया जाता है और न ही घर ले जाया जाता है।
मान्यता है कि मंदिर परिसर में ऐसे लोग आते हैं जो किसी अदृश्य बंधन या नकारात्मक ऊर्जा से पीड़ित होते हैं। प्रसाद के माध्यम से इन ऊर्जाओं के असर के फैलने की संभावना होती है, इसलिए इसे घर ले जाना या खाना अशुभ माना जाता है।
मंदिर के पुजारियों का भी कहना है कि प्रसाद केवल भगवान को अर्पित किया जाता है, न कि भक्तों को ग्रहण करने के लिए।
कामाख्या देवी मंदिर में तीन दिनों तक प्रसाद चढ़ावा है वर्जित
असम की राजधानी गुवाहाटी में स्थित कामाख्या देवी मंदिर 52 शक्तिपीठों में से एक प्रमुख शक्ति स्थल है। यहां माता के मासिक धर्म (अंबुवासी पर्व) के दौरान मंदिर तीन दिनों के लिए बंद रहता है। इन तीन दिनों में न तो पूजा होती है और न ही किसी भक्त को प्रसाद दिया जाता है। मान्यता है कि इन दिनों माता को विश्राम की आवश्यकता होती है। इस दौरान ऊर्जा की विशेष स्थिति के चलते मंदिर परिसर में प्रवेश वर्जित होता है। साथ ही प्रसाद ग्रहण वर्जित, कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं किया जाता। माता के शुद्धिकरण के बाद चौथे दिन से ही प्रसाद वितरण शुरू होता है।
उज्जैन का काल भैरव मंदिर जहां शराब के प्रसाद की है अनोखी परंपरा
मध्य प्रदेश स्थित उज्जैन का काल भैरव मंदिर भारत के उन गिने-चुने मंदिरों में से है, जहां भगवान भैरव को शराब का प्रसाद अर्पित किया जाता है। यहां एक विशेष पात्र के माध्यम से शराब भैरव बाबा को समर्पित की जाती है। लेकिन भक्तों के लिए इसे ग्रहण करना पूरी तरह वर्जित है।
तांत्रिक परंपराओं के अनुसार, शराब भैरव शक्ति का विशेष भोग माना जाता है। यह तांत्रिक साधना से जुड़ा प्रसाद है, जिसे केवल देवता स्वीकार करते हैं।
मान्यता यह भी है कि यदि कोई व्यक्ति शराब-प्रसाद को चखने की कोशिश करे, तो जीवन में बाधाएं और संकट आ सकते हैं।
नैना देवी मंदिर, हिमाचल जहां प्रसाद को बाहर ले जाने पर है मनाही
हिमाचल प्रदेश का नैना देवी मंदिर भी 52 शक्तिपीठों में से एक है। यहां माता नैना देवी को फल, फूल और मिठाई अर्पित की जाती है। भक्तों को प्रसाद तो मिलता है, लेकिन इसे मंदिर परिसर में ही ग्रहण करने का नियम है।
यहां मान्यता है कि माता का आशीर्वाद मंदिर की पवित्र सीमा के भीतर ही संपूर्ण फल देता है। इसलिए प्रसाद को घर ले जाना शुभ नहीं माना जाता।
भक्त इसे वहीं बैठकर ग्रहण करते हैं और घर ले जाने से बचते हैं।
इन सभी मंदिरों में प्रसाद से जुड़े नियम केवल आस्था नहीं, बल्कि विशेष धार्मिक परंपराओं और तांत्रिक ऊर्जा बिंदुओं पर आधारित हैं। यहां की परंपराएं केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक विज्ञान से भी जुड़ी हैं। प्रसाद न खाने की परंपरा श्रद्धा, ऊर्जा और सुरक्षा तीनों पहलुओं पर आधारित है। यहां आने वाले भक्त इन नियमों का सम्मान करते हुए भगवान की कृपा और मंदिर की पवित्रता को बनाए रखते हैं। इन हर परंपरा के पीछे कोई गहरा रहस्य और आस्था की अनोखी कहानी छिपी हुई है।
अगर आप भी इन मंदिरों में कभी जाएं, तो वहां के नियमों का पालन जरूर करें।
डिस्क्लेमर: इस लेख में दी गई जानकारी विभिन्न धार्मिक मान्यताओं, परंपराओं और लोकविश्वासों पर आधारित है। इनका उद्देश्य किसी भी प्रकार की अंधविश्वास बढ़ावा देना नहीं है। पाठकों से निवेदन है कि इन मान्यताओं को सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ में समझें।


