मध्य प्रदेश राजधानी से 360 किलो मीटर दूर छतरपुर (Chhatarpur) जिले का धरमपुरा गांव। यहां एक घर में अर्चना सेंगर (40) एक बच्चे को पोलियो की दवा पिला रही हैं। गांव में आशा कार्यकर्ता के रूप में काम करने वाली अर्चना पिछले महीने ही मच्छरों से फैलने वाली बीमारी फाइलेरिया की दवा खिलाकर फ्री हुई हैं। उनके घर के ठीक सामने हमारी मुलाक़ात उनके पति हाकिम सिंह से होती है। वह हमें गांव की साफ़-सफाई के बदहाल होने की बात कहते हुए सरपंच के घर का रास्ता बताते हैं। इस गांव में घुसते ही हमारा सामना कच्ची नाली से बहते गंदे काले रंग के पानी से होता है। वहीं गांव के दूसरी ओर सूखा कचड़ा पड़ा दिखाई देता है।
कुछ ऐसा ही हाल तिंदनी गांव का भी है। यह गांव बुंदेली लोक गायक देशराज पटेरिया के जन्मस्थान के रूप में जाना जाता है। गांव में एक घर के सामने सीमेंट की आयताकार चौपाल दिखाई देती है। यह वो जगह है जहां पंच बैठकर ग्रामसभा में गांव के विकास पर बात करते हैं। मगर इस चौपाल के ही किनारे कूड़े का ढेर लगा हुआ है।
यह दोनों गांव छतरपुर जिले की नौगांव जनपद पंचायत के अंतर्गत आते हैं। इस जनपद पंचायत के अंतर्गत 75 ग्राम पंचायतों के कुल 124 गांव आते हैं। हमने इनमें से कुछ गांव का दौरा करके यह जानने की कोशिश की कि गांव में कचरे का निपटारण होता कैसे है, क्या यह निपटारा सही से होता भी है? पंचायतों के लिए यह करना कितना चुनौतीपूर्ण है।
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रूरल वेस्ट मैनेजमेंट: गाइडलाइन और असल हालात
2 अक्टूबर 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की गई थी। जिस तरह शहरों में घर से कचरा इकठ्ठा करने के लिए ‘कचरा गाड़ियों’ का प्रावधान है वैसे ही गांव में कचरे को घरों से ही अलग-अलग इकठ्ठा करने (source waste segrigation) के लिए ई-रिक्शा उपलब्ध कराने का प्रावधान है। प्रावधान के अनुसार इन ई-रिक्शों से कचरा इकठ्ठा किया जाता है इसे सेग्रिगेशन शेड में भेजा जाता है। यहां गीला और सूखा कचरा अलग-अलग किया जाता है।
गीले कचरे की कम्पोस्ट खाद बनाई जाती है वहीं सूखे कचरे से हैवी प्लास्टिक, धातुओं को अलग-अलग किया जाता है।राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान (NIRDPR) भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक स्वायत्त संस्था है, जो पंचायती विकास कार्यक्रमों पर रिसर्च और ट्रेनिंग से जुड़े कामों में मदद करती है। इसी संस्थान ने मई 2016 में ठोस कचरे से निपटने के लिए एक गाइडबुक बनाई थी जिसमें ग्रामीण इलाकों में कचरे के निपटारे के तरीके को बताया गया था।
मगर यह सारी बातें कागज़ी हैं। असल में नौगांव की ज़्यादातर पंचायतों में ठोस कचरे का निपटान (solid waste management in villages) नहीं किया जा रहा। इसे मऊ साहनिया पंचायत के उदाहरण से समझ लेते हैं। यहां जैविक कचरे के निपटान के लिए 21 कम्यूनिटी कम्पोस्ट पिट्स बनाए गए हैं। होना तो यह था कि इसमें बायोडिग्रेडेबल कचरा डाला जाए और फिर उसे खाद में बदला जाए। मगर इस गांव में यह पिट एक ऐसी कचरा पेटी में बदल गया है जिसमें बायोडिग्रेडेबल कचरे के साथ में पन्नियां और तमाम तरह का कचरा मिलाकर डाल दिया गया है।
स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के डैशबोर्ड के अनुसार इस पंचायत के पास कचरे के डोर-टू-डोर कलेक्शन के लिए कुल 6 वाहन दिए गए हैं। इनमें से 2 ई-रिक्शे 2020 में मंज़ूर हुए स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) फेज 2 (Swachh Bharat Mission Gramin) के तहत दिए गए हैं। लेकिन मौजूदा स्थिती में केवल दो ई-रिक्शे ही उपलब्ध हैं। उसमें भी एक खराब हालत में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार मऊ सहानिया पंचायत की जनसंख्या 6 हजार के करीब है. जबकि पंचायत की सरपंच साक्षी सोनी बताती हैं कि अब इस गांव की जनसंख्या 10 हजार के आस-पास हो चुकी है. इस पूरी जनसंख्या के लिए अभी केवल एक ई-रिक्शा ही मौजूद है.
सोनी पंचायत द्वारा गांव में कचरे के प्रबंधन के बारे में बताते हुए कहती हैं,
“कम्पोस्ट पिटों में कचड़ा इकट्ठा किया जाता है। जब वह भर जाते हैं तो उन्हे ट्रॉली में भरकर गांव के बाहर के एक बिल्कुल कोने वाली जगह में डम्प कर आते हैं। कई बार ज्यादा हो जाता है तो वहां आग भी लगवा देते हैं।”
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वहीं ग्राम पंचायत के सचिव अरविंद तिवारी कहते हैं कि गांव में कोई स्थाई सफाई कर्मचारी नहीं है इसलिए सफाई रूक जाती है। वह बताते हैं कि गांव में केवल एक आदमी है जिससे वह कभी-कभी सफाई करवा लेते हैंं।
इस गांव में कचरा अलग-अलग करने के लिए सेग्रिगेशन शेड तो बनाया गया है मगर फिर भी वहां कचरा नहीं पहुंच रहा। हालत ये हैं कि जहां कचरा अलग होना था वहां अब पशु बंधे हुए हैं। इस पर पंचायत सचिव का तर्क है-
“शुरु-शुरू में तो भेजा था, तब मजदूर लगाकर कचड़ा अलग करवाया लेकिन 10 दिन में ही बंद करवा दिया था। हमें शेड बनाने के लिए बोला तो बनवा दिए फिर कचड़े को कंपनियों से एमओयू साइन कर कचड़ा भिजवाना था, लेकिन जिले ने करवाया ही नहीं।”
स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण (SBMG) फेज 1 (2014-19) में पंचायतों को ओडीफ यानि खुले में शौच मुक्त बनाने पर ध्यान दिया गया था। इस दौरान पंचायतों द्वारा शौचालयों का निर्माण किया जा रहा था। इसके बाद एसबीएमजी फेज 2 की शुरुआत साल 2020 में की गई। इसमें सरकार का लक्ष्य 6 लाख गांवो को ओडीएफ प्लस बनाना था यानि की खुले में शौच मुक्त के साथ-साथ ठोस (SWM) और तरल (LWM) अपशिष्ट का भी प्रबंधन किया जाना है। इसके लिए वर्ष 2021-22 से 2025-26 तक के लिए 1.4 लाख करोड़ की अनुमानित राशि रखी गई है।
फंड की कमी से जूझती पंचायतें
मगर फिर भी गांव में कचरे के निपटारे का हाल बेहद बुरा है। तिंदनी की सरपंच अहिल्या देवी के अनुसार ग्राम पंचायतों में सबसे बड़ी समस्या फंड की कमी है। वह बताती हैं कि यहां 5000 से कम राशि का भुगतान सरपंच सीधे ही कर सकता है। यदि यह राशि 5000 से अधिक है तो इसका भुगतान जनपद पंचायत की मदद से किया जाता है। उनके अनुसार पंचायत में कोई भी स्थाई सफाई कर्मचारी नहीं होते हैं।
अहिल्या देवी कहती हैं,
“पंचायत को 15 अगस्त के कार्यक्रमों के लिए भी पैसा नहीं मिलता है, सफाई के लिए तो क्या ही कहें। सरपंच बने हैं तो जेब से ही भरना पड़ता है नहीं तो लोग कहने लगते हैं कि क्या कर रहे हैं?”
नौगांव जनपद पंचायत में ही आने वाले ग्राम पुतरया की सरपंच चंपा अहिरवार भी फंड से जुड़ी समस्याओं का सामना कर रही हैं। वह उदहारण देते हुए कहती हैं कि साल 2024 में 15वें वित्त का पैसा कुछ घटकर आया था इसलिए नाली निर्माण का काम अटक गया था। इसके अलावा सफाई कराने में भी दिक्कत होती है।
चंपा कहती हैं कि साफ़ सफाई का काम मनरेगा के तहत भी करवाना मुश्किल है,
“मनरेगा का पैसा लोकल की दैनिक मजदूरी से कम है, इसलिए लोग काम करने को तैयार नहीं होते। अगर काम करवा भी लो तो जनपद पंचायत में लंबे समय तक पैसा अटका रहता है। इससे काम पर असर पड़ता है।”
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पुतरिया गांव के निवासी और पंचायत के कामों की जानकारी रखने वाले राकेश राजपूत मानते हैं कि सरकारें अपनी योजनाएं पंचायतों पर थोप रहीं हैं। पंचायतों को टैक्स के ज़रिए अपना वित्तीय प्रबंधन करना होता है मगर वह भी कठिन है।
“पहले पंचायतों में पहले काम कराना आसान होता था, अब 2021 के बाद से काम ही फंसे रहते हैं। लोग गांव में टैक्स देने को तैयार नहीं है। कर्मचारी होते नहीं हैं, तो पानी सप्लाई, सफाई कुछ सही से नहीं होता।”
ऐसे में ग्राम पंचायत में स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण फेज 2 के संचालन में सरपंच खासी दिक्कतों का सामना करते हैं।
गंभीर है गांव में सफाई का मुद्दा
साल 2022 में गैर लाभकारी प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय गांवों में कचरे से निपटने के लिए कोई बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। भारत के 15 राज्यों के 700 गांवों में किए गए इस शोध के हिसाब से सिर्फ 36% गांवो में ही सार्वजनिक कूड़ेदान हैं। अगर डोर-टू-डोर वेस्ट कलेक्शन की बात करें तो केवल 29% गांवों में ही कचरा इकट्ठा करने वाली गाड़ियां हैं।
प्रथम की ही रिपोर्ट से पता चलता है कि 67% ग्रामीण परिवार नियमित रूप से कचड़ा जलाते हैं। जिसमें प्लास्टिक अधिक मात्रा में शामिल होता है। गांवों के 74% लोगों को प्लास्टिक कचड़ा जलाने से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में पता भी नहीं है।
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भारत के पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में रोज़ाना 3 लाख से 4 लाख मैट्रिक टन कचरे का उत्पादन हो रहा है। इसे आप दिल्ली जैसे तीस शहरों के रोज़ाना के कचरे के बराबर समझ सकते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक गांव में एक से 14 साल के बच्चों को होने वाली 10 में से 5 सबसे जानलेवा बिमारियों के केंद्र में गंदा पानी और गंदगी है। गांव में स्थिति कितनी खरतनाक है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइए कि दुनिया भर में हर साल लगभग 5 लाख बच्चे डायरिया से मरते हैं। इनमें से तकरीबन 1 लाख 20 हज़ार बच्चे भारत के होते हैं।
इन आंकड़ों को पढ़ते हुए हमें फिर से धरमपुरा गांव की अर्चना सेंगर याद आती हैं। सेंगर जो हाल ही में फाइलेरिया की दावा खिला कर फ्री हुई हैं। जो एक बच्चे को पोलियो की दवा पिला रही हैं। जिनके गांव में एक ओर कच्ची नाली का गंदा पानी बह रहा है और दूसरी ओर कूड़ा फैला हुआ है।
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