दूसरी कलाओं की तरह नाटक का एक काम ये भी है कि वो हमें इतिहास के उन
गलियारों में ले जाए और उन लोगों या वाकयों की याद दिलाए जिन्होंने अपने वक्त में
तहजीब, भाषा या मनोवृत्तियों को संवारा। ऐतिहासिक नाटकों को लेकर एक आम धारणा है
कि उसमे राजाओं या रणबाकुंरों को जीवन की झांकिया मिलती है और साथ ही उस युग की जिसमें वे होते हैं। लेकिन
ये धारणा अधूरी है। लेखकों, कलाकारों या
संस्कृतिकर्मियों पर लिखे गए नाटक भी
ऐतिहासिक के दायरे मे आने चाहिए। एक ऐसा ही नाटक इस हफ्ते श्री राम सेंटर में
उर्दू अकादमी की तरफ से हुए नाटक समारोह
में हुआ जिसका नाम `है हंगामा
क्यूं है बरपा’। ये उर्दू के शायर अकबर इलाहाबादी की शायरी और जिंदगी पर
आधारित था। निर्देशक हैं अहद खान। ये एजाज
हुसैन का लिखा हुआ है हालांकि निर्देशक ने इसमें अपनी तरफ से कुछ जोड़ा भी है।
अकबर इलाहाबादी (16 नवंबर 1846- 9
सितंबर 1921), जिनका मूल नाम सैयद अकबर हुसैन रिजवी था, उन्नीसवीं -बीसवीं सदी के
उन शायरों में थे जिनका प्रभाव अर्दू की तत्कालीन शायरी पर तो पड़ा ही साथ ही हिंदी भाषी समाज के दैनिक जीवन
में भी उनके कई शेर इस तरह घुलमिल गए कि ये फर्क करना कठिन हो जाता है कि उर्दू और
हिंदी में फर्क कहां और कितना है
जैसे इन अशआर को लीजिए जो हिंदी भाषी इलाके की गली गली में लोगों की जुबान से बैठकों और मजलिसों में सुनाई देते है-
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो कत्ल भी करते है तो चर्चा नहीं होता
या फिर इसे देखिये-
क़ौम के गम में डिनर खातें है हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
इसी कड़ी में ये शेर देखिये-
क़द्रदानों की तबीयत का अलग रंग है आज
बुलबुलों को ये हसरत, कि वो उल्लू न हुए
अकबर इलाहाबादी कानून के पेश से जुड़े थे।
पहले वकील बने औऱ फिर जज। वे अपने दौर के लोकप्रिय और सम्मानित शायरों में
थे। उनके बारे में ये धारणा भी फैली है कि वे कई आधुनिक चीजों के विरोधी भी थे। मगर ये एक धारणा भर है
वास्तविकता नहीं। जिस दौर में वे शायरी कर रहे थे उसके शुरुआती दौर में भारत में
रानी विक्टोरिया का राज स्थापित हुआ ही था ( 1857 की क्रांति के पहले ईस्टइंडिया
कंपनी राज करती थी) और अंग्रेजों या पश्चिम से आए आधुनिक तकनीक को भारतीय समाज के
एक बड़े हिस्से में संदेह की नजर से भी देखा जाता था और कुछ हद तक आज भी देखा जाता
है। इस सबकी अभिव्यक्ति अकबर इलाहाबादी की शायरी में हुई। हालांकि अकबर इलाहाबादी ने खुद अपने बेटे इशरती को पढ़ने के
लिए इंग्लैंड भेजा लेकिन उस पर ये पंक्तियां भी लिख मारी-
इशरती घर की मोहब्बत का मज़ा भूल गए
खाके लंदन की हवा अहद-ए वफ़ा भूल गए
पहुंचे होटल में तो फिर ईद की पर्वा न रही
केक को चख के सेवइयों का मज़ा भूल गए
उनकी शायरी की एक बड़ी खूबी ये थी कि जितना सेंस ऑफ ह्यूमर उनके यहां है उतना
उनके दौर के किसी और शायर में नहीं। उनके यहां कई ऐसे भी अशआर हैं जिनके बारे मे
कुछ लोगों ने ये समझा कि ये उनपर यानी उन लोगों पर लिखे गए हैं या उनका माखौल
उड़ाया गया है। नाटक में एक दृश्य भी ऐसा आता है कि जिसमें कुछ पड़ोसी उनके यहां
जूलूस की शक्ल में ये शिकायत लेकर पहुंचते हैं कि आपने तो हमारे ऊपर तंज कसते हुए
शायरी लिख मारी। ये नाटक का मज़ेदार
बदृश्य है। निर्देशक अहद खान ने इसे इतने शानदार तरीके से पेश किया है दर्शक को जम
के हंसी भी आती है और शायरी के मतलब भी निकलते हैं। इस दृश्य में एक शेख साहब हैं जिनका अभिनय सूफियान खान ने
उम्दा तरीके से निभाया है (हालांकि सूफियान ने एक और शायर क़ैसर का भी
किरदार निभाया है लेकिन शेख के किरदार में वो जबर्दस्त हैं)। शेख साहब नाराजगी के लहजे में कहते हैं कि आप बार बार
मेरा नाम (शेख नाम) अपनी शायरी में लेते हैं और मजाक उड़ाते हैं। फिर कुछ शेर
सुनाते हैं। उसी कड़ी में अकबर इलाहाबादी भी कुछ शेर सुनाते हैं और उनके मायने
बताते हैं। शेख को लेकर अकबर इलाबाबादी का
एक शेर इस तरह है-
शेख जी घर से न निकले और लिख कर दे दिया
आप बीए पास हैं तो बंदा बीवी पास है
नाटक मे अकबर इलाहाबादी का किरदार फहदखान ने निभाया जो खुद भी एक बहुत अच्छे निर्देशक हैं। फहद ने जिस किरदार को निभाया है उसे उन्होंनेप्रामाणिकता दी है। नाटक में दिया नागपाल का संगीत भी बहुत अच्छा है।
वैसे तो ये नाटक उर्दू का है लेकिन इसे देखते हुए हिंदी के दर्शको को ये खयाल
जरूर आएगा कि बुनियादी स्तर पर हिंदी और ऊर्दू में कोई ज़्यादा फर्क नहीं है। जो
लोग हिंदी की अकादमिक दुनिया से जुड़े रहे है उनके मन में ये बात भी आएगी कि हिंदी
के इतिहास में कुछ बहसे गलत ढंग से चलीं और आज भी चल रही है। इनमें एक बहस ये है
कि भारतेंदु युग के दौर में ये माना गया कि खड़ी बोली में कविता संभव नहीं है।
लेकिन आप अकबर इलाहाबादी और उस जमाने के कुछ दूसरे शायरों में देखें तो उनकी शायरी
खड़ी बोली में ही थी बस लिपि देवनागरी नहीं थी। पर विश्वविद्यालयों के हिंदी
विभागों ने इसे स्वीकार नहीं किया और आज भी नहीं कर रहे हैं। इतिहास में पूर्वग्रह
शताब्दियों तक चलते हैं।
इसी कड़ी में अकबर इलाहाबादी के कुछ और अशआर पेश हैं जिनमें हिंदी और ऊर्दू का
फर्क नहीं दिखता-
मजहबी बहस मैंने की ही नहीं
फालतू अक़्ल मुझमें थी ही नहीं
और ये भी देखिये-
हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है
एक और शेर-
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल ए ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं
और अंत ये कुछ और पंक्तियां जो आम का स्वाद भी बताती है और खड़ी बोली का भी-
नामा न कोई यार का पैगाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूं
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए
मालूम ही है आपको बंदे का एडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए
ऐसा न हो कि ये आप लिक्खे जवाब में
तामील होगी पहले दाम भेजिए।