हरियाणा में कांग्रेस बहुमत के आंकड़े से नौ सीटों से पीछे रह गई, उसने 90 सदस्यीय विधानसभा में 37 सीटें जीत लीं। हालाँकि, कम से कम 16 सीटों पर निर्दलीय या कांग्रेस के बागियों ने इसकी हार में भूमिका निभाई। 15 सीटों पर एक निर्दलीय उम्मीदवार हार के अंतर से अधिक वोट जीतकर तीसरे स्थान पर रहा। भाजपा ने 15 में से 12 सीटें जीतीं, कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही। कांग्रेस ने इनमें से दो सीटें जीतीं। एक सीट पर इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) ने कांग्रेस को पछाड़ दिया।
इंडिया गठबंधन के सहयोगी दल आम आदमी पार्टी ने भी कुछ हद तक कांग्रेस के चंद नतीजों को प्रभावित किया। आम आदमी पार्टी (आप) के चार उम्मीदवारों और एनसीपी (शरद पवार) के एक उम्मीदवार ने कांग्रेस उम्मीदवारों की हार के अंतर से अधिक वोट हासिल किए। यदि ये उम्मीदवार मैदान में नहीं होते तो भाजपा की सीटें 48 से घटकर 44 पर आ जातीं।
हरियाणा चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी को समान वोट शेयर मिले। कांग्रेस का वोट शेयर 39.09 प्रतिशत और भाजपा का 39.94 प्रतिशत। लेकिन जहां जीत और हार का अंतर बहुत अधिक है, बीजेपी को बढ़त मिली। ऐसा इसलिए हुआ कि या तो वहां कांग्रेस का बागी प्रत्याशी कड़ी टक्कर दे रहा था या फिर कोई निर्दलीय मजबूती से मुकाबले में थे। यानी ऐसी तमाम सीटों पर कांग्रेस के बागी या मजबूत निर्दलीय तीसरे स्थान पर हैं।
कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने पर बहादुरगढ़ सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले राजेश जून ने 41,999 वोटों से शानदार जीत दर्ज की। बुधवार को राजेश जून बीजेपी में शामिल हो गए। उनके अलावा दो निर्दलीय विधायक भी भाजपा में शामिल हो गये। ये दोनों भी कांग्रेस के विद्रोही हैं। फरीदाबाद जिले में तिगांव सीट और बल्लभगढ़ सीट भी इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। बल्लभगढ़ में कांग्रेस ने शारदा राठौर का टिकट काटा। वो निर्दलीय लड़ी और दूसरे स्थान पर रहीं। कांग्रेस प्रत्याशी पराग शर्मा तीसरे नंबर पर चली गईं। तिगांव सीट पर कांग्रेस ने पूर्व विधायक ललित नागर का टिकट काटा। ललित नागर ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और तीसरे नंबर रहे लेेकिन कांग्रेस के बिल्कुल नये युवा उम्मीदवार रोहित नागर चुनाव हार गये।
इसी वजह से भूपिंदर सिंह हुड्डा गुट का कांग्रेस टिकट वितरण सवालों के घेरे में हैं। इसी वजह से असंतोष फैला और इनमें से कुछ चेहरों ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। लेकिन इसके पीछे कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि सूत्रों का कहना है कि बल्लभगढ़ की बागी शारदा राठौर और तिगांव के बागी ललित नागर तो हुड्डा गुट के ही थे। फिर भी हुड्डा इन्हें टिकट नहीं दिला पाये। तो सवाल यही है कि बल्लभगढ़ से पराग शर्मा और तिगांव से रोहित नागर को टिकट दिलाने में कांग्रेस के किसी केंद्रीय नेता की भूमिका है। जबकि रोहित और पराग कांग्रेस के पुराने नेता नहीं हैं।
अंबाला कैंट का उदाहरण भी सटीक है। अंबाला कैंट में भाजपा के अनिल विज ने जीत हासिल की। लेकिन यहां कांग्रेस की बागी चित्रा सरवारा थीं, जो 7,277 वोटों के अंतर से हारकर दूसरे स्थान पर रहीं। कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार पलविंदर पाल परी विज से 45,000 से अधिक वोटों से तीसरे स्थान पर रहे। क्या कांग्रेस जांच करेगी कि चित्रा सरवारा का टिकट हुड्डा ने काटा या केंद्रीय नेतृत्व ने।
करीबी मुकाबले वाले चुनावों में, कम से कम 11 सीटों पर जहां कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही, तीसरे स्थान पर रहे निर्दलीय उम्मीदवार को पार्टी की हार के अंतर से अधिक वोट मिले। ये सीटें हैं कालका, दादरी, महेंद्रगढ़, तोशाम, सोहना, समालखा, सफीदों, रानिया, राई, बाढड़ा और उचाना कलां। अगर यहां बागी मजबूती से नहीं लड़ते तो कांग्रेस को आसानी से बहुमत मिल जाता। इन उम्मीदवारों में सोमवीर घसोला और वीरेंद्र घोघरियां कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने के बाद निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे। वे पिछले महीने पार्टी द्वारा “पार्टी विरोधी गतिविधियों” के लिए निष्कासित किए गए 10 नेताओं में से थे। घसोला ने बाढड़ा से चुनाव लड़ा और 26,730 वोट हासिल किए। इस सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार सोमवीर सिंह 7,585 वोटों के अंतर से हार गए। उचाना कलां में घोघरियां मैदान में उतरे, जहां कांग्रेस के बृजेंद्र सिंह 32 वोटों से हार गए।
सोहना में, जावेद अहमद, जिन्होंने 2019 का विधानसभा चुनाव बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के टिकट पर लड़ा था और बाद में AAP में शामिल हो गए, ने निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा और 49,210 वोट हासिल किए। कांग्रेस यह सीट 11,877 वोटों के अंतर से हार गई। समालखा में, स्वतंत्र रूप से लड़ते हुए, रविंदर मछरौली, जिन्होंने 2014 में सीट जीती थी और कुछ समय के लिए भाजपा में रहे थे, को भी 21,132 वोट मिले। कांग्रेस यह सीट 19,315 वोटों से हार गई। सफीदों में, जहां कांग्रेस 4,037 वोटों से हार गई, जसबीर देसवाल, एक प्रमुख जाट चेहरा, जिन्होंने 2014 में एक स्वतंत्र विधायक के रूप में सीट जीती थी, 20,014 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे।
हालांकि कांग्रेस ईवीएम का मुद्दा उठा रही है और काफी हद तक उसके आरोपों में दम भी है। लेकिन कांग्रेस को अपना घर भी ठीक करना चाहिए था। अगर बागी उम्मीदवार कांग्रेस प्रत्याशी के मुकाबले में नहीं उतरते तो कांग्रेस कम से कम 44-45 सीटों पर आसानी से पहुंच सकती थी और कोई ताज्जुब नहीं कि उसे बहुमत भी मिल जाता। इसलिए हरियाणा में ईवीएम के अलावा कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति ने भी इस चुनाव को प्रभावित किया।