
Jagdeep Dhankhar Resignation: राजनीति में कुछ विदाइयाँ गदगद कर जाती हैं तो कुछ गदगदाकर भेज दी जाती हैं। जगदीप धनखड़ की विदाई न तो गदगद थी, न गरिमामयी बल्कि इतनी खामोश कि जैसे कोई चुपचाप चप्पल पहनकर दरवाजे से निकल जाए और किसी को भनक तक न लगे। अचानक इस्तीफा न विदाई भाषण, न स्मृति-चित्र और न ही कोई औपचारिक ‘अलविदा दिल्ली’।
अब सवाल: धनखड़ ने इस्तीफा दिया या उनसे ले लिया गया?
कुछ कह रहे हैं स्वास्थ्य कारण है तो कुछ कह रहे हैं स्वास्थ्य कारण तो बहाना है, असल में सत्ता का विश्वास डगमगाया है। सुप्रीम कोर्ट को घूरने वाले तेवर, किसान आंदोलन पर असहज सवाल और अंत में जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव को मंजूरी देना शायद इन सबने सत्ता-सुरक्षा की सेंसर लाइट्स जला दीं।
जनता दल से भाजपा तक का सफर: शुरू होता है तिलक से, खत्म होता है चुप्पी से
धनखड़ का मामला अनोखा नहीं है। वो तो बस जनता दल से भाजपा में आए उन नेताओं की सूची में नया नाम हैं, जो बड़े ठाठ से आए, पर जाते वक्त न तिलक और न ताली। देखिए किन-किन नेताओं के नाम शामिल हैं। इन सबकी एक बात समान रही कि भाजपा में आए, मुखर हुए और फिर दरकिनार कर दिए गए।
सत्यपाल मलिक – जिनकी मुखरता गवर्नर रहते-रहते इतनी बढ़ गई कि सरकार खुद सोचने लगी, क्या हमने गवर्नर नियुक्त किया था या ‘गवर्नमेंट ऑडिटर’?
मेनका गांधी – जो अब भाजपा की ‘डिज़िटल मौनसभा’ की सदस्य बन चुकी हैं। न कहीं बुलावा और न कोई बयान।
यशवंत सिन्हा – जिनका भाजपा से बाहर जाना ऐसा था जैसे कोई पुराना मंत्रीश्री अचानक विपक्ष की गोदी में गिर पड़े।
सुब्रमण्यम स्वामी – जिन्हें भाजपा ने राज्यसभा भेजा लेकिन लगता है वो ट्विटर से ही शासन चला रहे थे।
रीति-नीति और संघीय समझदारी की कसौटी
भाजपा के अंदर के सूत्रों का मानना है कि दिक्कत विचारधारा की नहीं, विचार व्यक्त करने की शैली की है। जो संघ या एबीवीपी से आए हैं, वो अंदर-अंदर उबलते हैं, लेकिन बाहर सिर्फ मुस्कुराते हैं। जबकि जनता दल के पूर्वज… माफ कीजिए, पूर्व नेता… सवाल पूछते हैं, मंच से बोलते हैं और ट्वीट में काट देते हैं। अब ऐसे में टकराव तो होगा ही। भाजपा एक अनुशासित टोली है जहां ‘असहमति’ अगर सार्वजनिक हो गई, तो ‘पद’ सार्वजनिक नहीं रह पाता।
फेयरवेल का फिक्स्ड डिपॉजिट भी नहीं
धनखड़ को फेयरवेल स्पीच तक का वक्त न दिया जाना अपने-आप में बहुत कुछ कहता है। राजनीति में जहां नेता हारने पर भी फूलों से लदे ट्रैक्टर पर विदा होते हैं, वहां उपराष्ट्रपति का यूं चुपचाप जाना बताता है कि कभी-कभी सत्ता के गलियारे भी गलियाते हैं।
धनखड़ का जाना, इस्तीफा देना या दिलवाया जाना सबका निष्कर्ष एक ही है, जो भाजपा की रीति को नहीं समझते उन्हें नीति समझाने की जरूरत नहीं पड़ती, बस रिटायर कर दिया जाता है। राजनीति में कभी ‘राजा’ तो कभी ‘राज्यसभा’ मिलती है, लेकिन सत्ता के खेल में एक नियम तय है ‘जो ज्यादा बोलेगा, वो जल्दी जाएगा’।