अली ख़ान महमूदाबाद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले ने भारतीय नागरिकों के अभिव्यक्ति के अधिकार को ख़तरनाक तरीक़े से सीमित कर दिया है। यह फ़ैसला कुछ वैसा ही है जैसे कैद से निकालकर एक लंबी रस्सी से आपके पैर बांध दिए जाएँ और आपके मुँह पर पट्टी बाँध दी जाए।यह फ़ैसला आज़ादी देने के नाम पर आज़ादी छीन लेने का नया तरीक़ा है।लेकिन यह सिर्फ़ अली ख़ान की आज़ादी का ही मामला नहीं।यह फ़ैसला हर लिखनेवाले को चेतावनी है कि वे अपनी शैली में नहीं लिख सकते और उन्हें लिखते वक्त बहुसंख्यक आबादी की भावना का ख्याल रखना पड़ेगा।
यह भावना राष्ट्रवादी भावना है जिसकी व्याख्या अदालत करेगी।बल्कि यह कहना अधिक ठीक रहेगा कि अदालत ने लिखे या बोले की व्याख्या करने के अपने कर्तव्य को तिलांजलि दे दी है और यह काम भी पुलिस को सुपुर्द कर दिया है। साथ ही अदालत ने अली ख़ान के पक्ष में एकजुटता ज़ाहिर करने वाले विद्यार्थियों और अध्यापकों को भी धमकी दी। इस तरह यह आदेश लोगों के संगठित होने के अधिकार को भी सीमित करता है।
भारत की प्रतिष्ठित अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र पढ़ाने वाले डॉक्टर अली ख़ान की गिरफ़्तारी ने पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया था। यह गिरफ़्तारी उनकी दो छोटी टिप्पणियों की वजह से की गई। उन पर इल्ज़ाम लगाया गया कि अपनी टिप्पणी से उन्होंने एक धार्मिक समुदाय की भावना को चोट पहुँचाई है, दो धार्मिक समुदायों के बीच वैमनस्य और घृणा पैदा की है और उससे भी ऊपर राजद्रोह किया है।उसके पहले यह आरोप भी लगाया गया कि उन्होंने अपनी टिप्पणी से औरतों को अपमानित किया है।अली ख़ान की उन टिप्पणियों में कितना भी खोजने पर वैमनस्य, घृणा और राजद्रोह का कोई इशारा भी नहीं मिलता।औरत के अपमान का तो सवाल ही नहीं।
लेकिन हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष की ज़िद है कि अगर इन टिप्पणियों से उन्हें लग रहा है कि इसमें महिला का अपमान है तो उनका लगना ही काफी है।यह पुलिस का काम है कि वह इस टिप्पणी में वह अपमान खोज कर निकाले जिसका आरोप वे अली ख़ान पर लगा रही हैं। उसी तरह उनके बाद हिंदुत्ववादी राजनीतिक दल भारतीय जनता के हरियाणा के एक नेता ने पुलिस को कहा कि उनके सामने अली ख़ान ने कुछ ऐसी बातें कीं जिनसे उन्हें चोट पहुँची। पुलिस ने उनकी चोट को गंभीरता से लिया और अली ख़ान पर राजद्रोह का आरोप लगा दिया।
अब एक बार फिर देख लें कि अली ख़ान ने क्या लिखा था। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत की सैन्य कार्रवाई के बारे में,जिसे सरकार ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का नाम दिया अली ख़ान ने छोटी छोटी दो टिप्पणियाँ कीं। उन्होंने भारतीय सैन्य कार्रवाई के संयम की तारीफ़ की और आतंकवाद को प्रश्रय देने के लिए पाकिस्तान की आलोचना की।लेकिन उन्होंने उन लोगों को आलोचना की जो इस बहाने युद्धोन्माद पैदा कर रहे हैं।उन्होंने लिखा कि युद्ध के लिए भड़काना कायरता है और उसका विरोध करना ही वीरता है।
पाकिस्तान पर आक्रामक कार्रवाई के ब्योरे देने के लिए भारत सरकार ने दो महिला फ़ौजी अधिकारियों को चुना। इनमें एक मुसलमान थीं।इस कदम से सरकार के समर्थकों और विरोधियों, दोनों को ही हैरानी हुई। पिछले 11 वर्षों में मुसलमानों को प्रत्येक सार्वजनिक स्थान से बाहर किया गया है।ख़ुद प्रधानमंत्री ने और उनके दल ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ निरंतर घृणा का अभियान चला रखा है। हिंदुओं के मन में मुसलमानों के ख़िलाफ़ शक भरा जा रहा है।सड़कों, शहरों के नाम बदलकर इस्लामी छाप मिटाई जा रही है।
इसीलिए अली ख़ान ने लिखा, “मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि इतने सारे दक्षिणपंथी टिप्पणीकार कर्नल सोफिया कुरैशी की सराहना कर रहे हैं, लेकिन शायद वे उतनी ही ज़ोर से यह भी मांग कर सकते हैं कि भीड़ द्वारा हत्या, मनमाने ढंग से बुलडोजर चलाने और भाजपा के नफ़रत फैलाने के शिकार लोगों को भारतीय नागरिकों के रूप में सुरक्षा दी जाए। दो महिला सैनिकों द्वारा अपना पक्ष प्रस्तुत करने का दृश्य महत्वपूर्ण है,लेकिन उस दृश्य को ज़मीन पर हक़ीक़त में बदलना चाहिए, अन्यथा यह सिर्फ़ पाखंड है।”
आगे उन्होंने लिखा,
“मेरे लिए यह प्रेस कॉन्फ्रेंस एक क्षणिक झलक थी – शायद एक भ्रम और संकेत – एक ऐसे भारत की जो उस तर्क को चुनौती देता है जिस पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था।जैसा कि मैंने कहा, आम मुसलमानों के सामने जो जमीनी हकीकत है वह उससे अलग है जिसे सरकार दिखाने की कोशिश कर रही है, लेकिन साथ ही प्रेस कॉन्फ्रेंस से पता चलता है कि अपनी विविधता में एकजुट भारत एक विचार के रूप में पूरी तरह से मरा नहीं है।”
जैसा आप देख सकते हैं, इन टिप्पणियों में कहीं भी महिला अधिकारियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है, उनके अपमान की बात तो दूर रही।एक मुसलमान और हिंदू महिला अधिकारी के जोड़े के भारत के प्रतिनिधि होने की प्रतीकात्मकता की प्रशंसा करते हुए आप भारत में मुसलमानों की हर दिन की प्रताड़ना को कैसे भूल सकते थे? उसी की याद अली ख़ान ने दिलाई।
अली ख़ान ने लिखा कि इस दृश्य से यह भ्रम हुआ कि धर्मनिरपेक्ष भारत का ख़याल अभी भी ज़िंदा है। भले ही ज़मीन पर हक़ीक़त बदल चुकी है। इस टिप्पणी में भारत के हर मुसलमान के दुख का इज़हार है।और उसकी इच्छा की अभिव्यक्ति है कि उसे इस देश में शामिल किया जाना चाहिए।
लेकिन हरियाणा के महिला आयोग की अध्यक्ष रेणु भाटिया ने आरोप लगाया कि इसमें महिला अधिकारियों का अपमान किया गया है। वे ख़ुद साबित नहीं कर पाईं कि किस शब्द से यह अपमान हो रहा है।लेकिन उनका कहना था कि यह साबित करना उनका काम नहीं है। यही पर्याप्त सबूत है कि उन्हें बुरा लगा है। उनका बुरा लगना अली ख़ान का अपराध है। यह काम अब पुलिस का है कि वह पता करे कि अली की टिप्पणी से उन्हें क्यों बुरा लगा। उन्होंने अली ख़ान को स्पष्टीकरण देने के लिए बुलाया। लेकिन अली ख़ान आख़िर क्या स्पष्ट करते? क्या उनसे यह उम्मीद थी कि वे अपनी टिप्पणी में वह चीज़ खोजकर निकालें जो रेणु भाटिया को बुरी लगी थी? यानी वे अपना अपराध ख़ुद खोजें?
रेणु भाटिया की पार्टी के एक दूसरे सदस्य ने पुलिस के सामने वही शिकायत की जो रेणु भाटिया ने की थी। उनके मुताबिक़ अली ख़ान की बात से उन्हें तकलीफ़ हुई थी।
यह सब कुछ इतने भयानक रूप से बेतुका था कि चारों तरफ़ अली ख़ान की गिरफ़्तारी की निंदा होने लगी। लेकिन तब जैसे सत्ता पक्ष ने तय कर लिया कि अली ख़ान को घेरकर मारा जाना है।शिक्षा संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण जगहों पर बैठे लोगों ने , उनमें से कई कुलपति हैं, अली ख़ान पर हमला बोल दिया। उन्होंने कहा कि अली ख़ान ने छद्म अकादमिक भाषा में स्त्री विरोधी बातें कही हैं और उन्होंने सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने का काम किया है। इन लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय को कहा कि वह अली ख़ान के वक्तव्य के क़ानूनी और सामाजिक आशय की गंभीरता को समझे। यानी अली ख़ान जो लिख रहे हैं, वही उसका मतलब नहीं है बल्कि वह है जो महिला आयोग की अध्यक्ष कह रही है।
जब सर्वोच्च न्यायालय के सामने अली ख़ान के वकील इस अर्ज़ी के साथ आए कि उनके ख़िलाफ़ पुलिस की कार्रवाई रुकनी चाहिए तो अदालत ने उलटे अली ख़ान से सवाल किया कि उन्होंने इतने नाज़ुक माहौल में लोकप्रियता हासिल करने को यह लिखा ही क्यों। और उन्होंने ऐसी ज़ुबान में क्यों लिखा जो हर किसी की समझ में नहीं आती। उसने शक ज़ाहिर किया कि अली ख़ान इतने पढ़े लिखे हैं तो शायद वे जो लिख रहे हैं, उससे बिल्कुल अलग उनका मतलब होगा।
अदालत ने इसके साथ ही उन छात्रों और अध्यापकों को धमकी दी जो अली ख़ान के साथ एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे थे।
अदालत ने अली ख़ान को अंतरिम जमानत दी लेकिन उन पर हो रही बेतुकी कार्रवाई को नहीं रोका। बल्कि यह कहा कि उन्हें रिहा इसलिए किया जा रहा है कि वे जाँच में मदद करें। अदालत ने अली ख़ान को उन विषयों पर बोलने से मना कर दिया जो उनपर कार्रवाई से जुड़े हैं। उनका पासपोर्ट जमा करवा लिया गया।
अली ख़ान का लैपटॉप भी जमा करवा लिया गया है। किसी भी शोधार्थी के लैपटॉप में बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जिसे आज की भारतीय पुलिस राष्ट्रविरोधी ठहरा सकती है। उस सामग्री के बीच अली ख़ान की टिप्पणी को रखकर उसके कोई भी मायने लगाए जा सकते हैं।
इस तरह अली ख़ान जेल से तो बाहर आ गए लेकिन उनके पैर बाँध दिए गए हैं और उनकी ज़ुबान पर भी ताला लगा दिया गया।
अदालत ने एक और अजीब बात की। 1530 शब्दों की अली ख़ान की टिप्पणियों की भाषा की पेचीदगी को खोलने और उसका आशय पता करने के लिए उसने 3 पुलिस अधिकारियों की जाँच समिति बना दी। क्या अदालत इन 1530 शब्दों को पढ़कर उनका मतलब ख़ुद नहीं समझ सकती थी? और क्या अब पुलिस अधिकारी अध्यापकों और लेखकों के लेखों और भाषणों की जाँच किया करेंगे? क्या यह संयोग है कि जो बात अदालत ने कही, वह 200 कुलपतियों और अन्य लोगों के बयान में पहले कही जा चुकी थी?
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं कि हम मात्र राष्ट्रवादी या देशभक्तिपूर्ण बातें ही कर सकते हैं।लेकिन अली ख़ान के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का यही मतलब है। यह आम तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार के लिए एक बहुत ख़तरनाक आदेश है।
फिर भी इस मामले में एक और बात है जिस पर ध्यान जाना ही चाहिए। वह है अली ख़ान का नाम।जो बात उन्होंने लिखी वह भारत में सैकड़ों लोग अलग-अलग तरीक़े से लिख चुके हैं। फिर अली ख़ान को ही निशाना क्यों बनाया गया? इस मामले में बार-बार अली ख़ान के पूर्वजों का ज़िक्र क्यों हो रहा है जिनमें से एक पाकिस्तान के समर्थक थे? उनकी विशाल संपत्ति का उल्लेख बार-बार क्यों किया जा रहा है? अली ख़ान का अभिजात्य क्या उनके ख़िलाफ़ जा रहा है? क्या मुसलमानों को बतलाया जा रहा है कि उनके अभिजन की तालीम और समाजी हैसियत भी उन्हें नहीं बचा सकती? क्या इस पूरी कार्रवाई से यह बतलाने की कोशिश की जा रही है कि एक शिक्षित मुसलमान और ख़तरनाक होता है?
नागरिकता के क़ानून का विरोध करने के आरोप में पिछले 5 साल से शरजील इमाम, उमर ख़ालिद, मीरान हैदर जैसे अध्येता जेल में हैं।अदालतों में उनके मामलों पर हुई बहसों में बार बार पुलिस ने उनके शिक्षित होने को ही शक के लिए पर्याप्त बतलाया है। शिक्षित होने के कारण वे अपनी भाषा में अपने ख़तरनाक इरादों को छिपा लेते हैं, उन पर यह आरोप लगाया गया है। उमर ख़ालिद के मामले में अदालत ने ख़ुद यह कहा है कि उमर जो नहीं बोल रहे वही असली बात है जो वे बोलना चाहते हैं। अली ख़ान के मामले में सर्वोच्च न्यायालय यही कह रहा है। तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आगे बढ़कर एक मुसलमान के अपने अन्दाज़ में बात करने की आज़ादी के अधिकार का मसला बन जाता है।