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    भारत

    आज की औरत की आकांक्षा और कबीर

    By February 27, 2025No Comments5 Mins Read
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    आज की औरत की क्या चाहत हो सकती है इसका कोई सीधा और सरल उत्तर नहीं हो सकता। लेकिन मोटे तौर पर ये कहा जा सकता है कि शादी की इच्छा तो हर औरत को होगी। (ये ध्यान में रखते हुए कि ये ज़रूरी नहीं कि हर लड़की चाहे ही कि वो शादी करे।) लेकिन लोग कहेंगे कि ये तो सदियों पुरानी चाहत है। इसमें नया क्या है ये आज की नारी पर ही क्यों लागू होगा ऐसे में इतना जोड़ना ज़रूरी होगा कि आज की औरत अपने मन के मुताबिक़ पुरुष चाहती है। पहले की तरह नहीं कि जिस खूँटे से बांध दो, चलेगा। वो अपनी पसंद का पति चाहती है। पर प्रश्न ये भी खड़ा हो जाता है कि जो सामाजिक स्थितियां हैं उसमें क्या किसी सामान्य घर की लड़की को मनचाहा पति मिल सकता है समाज में कई तरह की आर्थिक और राजनैतिक  जटिलताएँ हैं और वो ऐसी हैं कि किसी औरत की आकांक्षा को लहूलुहान कर सकती है। छोटी इच्छा बड़ी समस्या बन सकती है।

    कुछ साल पहले ही राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक हुई नुपूर चिताले ने इसी मसले को लेकर `जलेबी’ नाम से एक नाटक किया। ये हाल ही में हुए राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय छात्र संघ की तरफ़ से आयोजित नाट्य समारोह में खेला भी गया। ये एक एकपात्रीय नाटक है जिसमें खुशबू कुमारी नाम की अभिनेत्री ने जया लेखी नाम की एक ऐसी लड़की का किरदार निभाया जो बिहार की रहनेवाली है और पसंदीदा शादी करना चाहती है। पर उसकी ये चाहते पूरी नहीं होती। हालाँकि अपनी पसंद का लड़का या पति तलाश करते-करते वो बिहार से मुंबई पहुंच जाती है। पर वहां भी वो सफल नहीं हो पाती और एक आपराधिक मामले में फँस जाती है। उसके सपने चकनाचूर हो जाते हैं। (वैसे प्रसंगवश ये भी बता दिया जाए कि खुशबू कुमारी भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्नातक रह चुकी है।)

    लग सकता है कि जया लेखी नाम के चरित्र के साथ ये सब खटाखट हो गया। ऐसा नहीं हुआ और नुपूर ने जिस तरह इस नाटक को निर्देशित किया उसमें औरत की आकांक्षा और चाहत के साथ अस्मिता के कई सारे पक्ष उभरते हैं। वो भी आज के अस्मितावादी विमर्श के लहजे में नहीं बल्कि अस्तित्व की दार्शनिक व्याख्या की तरफ़ जाते हुए। नुपूर हिंदी के मध्यकालीन संत कबीर की वाणी का सहारा लेती है। यों कबीर के बारे में कुछ लोगों ने धारणा बनाई है कि वे नारी विरोधी थे। लेकिन ये कुछ अकादमिक लोगों के द्वारा बनाई गई है। 

    वास्तविकता ये है कि कबीर की वाणी को सीमित अर्थ में नहीं समझा जा सकता है। ऐसा करने पर अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। कबीर एक कवि भी है किंतु सामान्य कवि नहीं है। वे दार्शनिक कवि हैं। आध्यात्मिक कवि हैं। उनकी भाषा उलटबांसी से भी बनी है जो मध्यकाल के नाथों और सिद्धों की भाषा भी रही है। इस काव्यभाषा में सामान्य अर्थ से अधिक व्यंजित अर्थ अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। शब्दार्थ से अधिक व्यंगार्थ की अहमियत होती है।

    ये छोटी सी भूमिका इसलिए कि इस नाटक का पूरा आस्वाद करने के लिए कबीर की कविता के मर्म को भी जानना और समझना ज़रूरी है। इसमें कबीर के कई पद बार-बार आते हैं। जब आप इन पंक्तियों  को सुनते हैं – `दुलहिन के सिर मौर बिराजे दुल्हा को चुनरी, पंच सकल बरियाती आये, उनहूं के लग्न परी’ तो न सिर्फ आपकी भाव भूमि का  विस्तार होता है बल्कि ये भी महसूस होता है कि समाज में भी कई तरह की उलटबांसियां चल रही हैं। महिलाओं को लेकर, शादी को लेकर, सामाजिक बराबरी को लेकर, अधिकारों को लेकर समाज में घोषणाएँ की जाती हैं। मगर यथार्थ उससे अलग हो जाता है। 

    हम जिस दौर में जी रहे हैं उसमें सत्तावान लोग बार-बार लोकतंत्र की दुहाई देते हैं। वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चुनकर भी आते हैं। लेकिन उनके सत्ता का चरित्र सर्वसत्तावादी होता है। कहना कुछ और मंतव्य कुछ और।

    इसी प्रक्रिया को कबीर और दूसरे संतों ने उलटबांसी कहा था। ऐसी उलटबांसियां पुरुष- स्त्री संबंधों में भी होती रही हैं। पहले भी होती थीं और आज भी होती हैं। `जलेबी’ की जया लेखी एक सहज सांसारिक चाहत लिए हुए है। पर उसकी चाहत पूरी नहीं होती। सोचिए उसके मन में कितने ऊहापोह होंगे कैसी उलझनें होंगी कितने तरह के भाव मन में उठे होंगे उनको व्यक्त करने के लिए निर्देशक को कबीर या दूसरे संतों की वाणियों की ज़रूरत पड़ी क्योंकि इस दुख को समझना पड़ता है। कबीर कहते हैं या ये कहें कि उनके माध्यम से `जलेबी’ जया लेखी के दिल की आवाज निकलती है – `मेरी मति बौरी, मैं राम बिसान्यों, किन बिधी रइनी रहौ रे। सेजे रमत नयन नहीं पैख्यो। ईहु दुख कासों कहे रे।‘

     - Satya Hindi

    नुपूर जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अपना डिप्लोमा प्रॉडक्शन कर रही थी तो उसने शेक्सपीयर का `मिड समर नाइट ड्रीम’ किया था। उसमें भी उसने कई तरह के तोड़फोड़ किए थे और नए अर्थ और व्यंजनाओं  का अनुसंधान किया था। वो उन युवा निर्देशकों में है जो नई तरह की नाट्य भाषाएं सृजित कर रहे हैं। नाटक के पुराने चौखटे से निकल रहे हैं और अपना स्वर विकसित कर रहे हैं। प्रयोग कर रहे हैं। हर प्रयोग में जोखिम होता है इसलिए नुपूर जोखिम भी उठा रही है। 

    आधुनिक हिंदी और भारतीय रंगमंच को निर्मित करने वालों- हबीब तनवीर, इब्राहीम अल्काजी, बव कारंत जैसे मूर्धन्यों ने अपने अपने वक्त में भी कई तरह के प्रयोग किए। उनके कारण भारतीय रंगमंच एक नई ऊंचाई पर पहुंचा। पर अब कई ऐसे युवा निर्देशक- महिला और पुरुष- आ गए हैं जो पुराने मूर्धन्यों की राहों से निकल कर अपना पथ बना रहे हैं। नूपूर भी उनमें से एक है। इस नाटक को उसने किसी स्टूडियो या कार्यशाला में नहीं बनाया। वो अपने विचारों के साथ अपने शहर मुंबई से निकलकर खुशबू कुमारी के शहर बेगुसराय (बिहार) गई और वहां रहकर इस नाटक को तैयार किया। मराठी निर्देशक। बिहारी अभिनेत्री। दोनों की आवाज़ को व्यक्त करने के माध्यम बने कबीर।

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