मध्य प्रदेश सरकार द्वारा वनवासी समुदायों को वन अधिकार कानून के तहत दावों की सुनवाई के लिए वर्ष 2019 में वन मित्र पोर्टल लांच किया गया था। यह डिजिटल प्लेटफॉर्म यूं तो आदिवासी समुदायों की मुश्किलें आसान करने के इरादे से लाया गया था। लेकिन समय-समय पर इस प्लेटफार्म को लेकर शिकायतें आती रही हैं। लेकिन हाल फिलहाल में दावों की ऑनलाइन सुनवाई के राज्य सरकार के फैसले ने वनवासी समुदाय की असंतुष्टियों को और भी बढ़ा दिया है।
मध्य प्रदेश में वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत व्यक्तिगत दावों की सुनवाई को लेकर वनवासी समुदाय और मप्र जनजातीय विभाग के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। यह विवाद तब और गहरा गया, जब केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय ( MOTA) के 24 फरवरी के पत्र के बावजूद राज्य सरकार ने सुनवाई को ऑनलाइन मोड में ही करने का फैसला लिया। यह निर्णय 4 मार्च को पेसा व एफआरए एक्ट के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए बनी टास्क फोर्स की उपसमिति की बैठक में लिया गया है।
इस बैठक में जनजातीय कार्य एवं पंचायत तथा ग्रामीण विकास विभाग को निर्देशित किया गया है। इस निर्देश में वन अधिकार के ऑफलाइन दावों को ग्राम पंचायत सचिव या ग्राम रोजगार सहायक के माध्यम से ऑनलाइन वन मित्र पोर्टल पर अपलोड करना अनिवार्य किया है। वहीं दावों की मान्यता पोर्टल और एप से जनरेट होने वाले ओटोपी पर निर्धारित कर दी गई है।
दूसरी ओर, आदिवासी समुदायों और संगठनों का आरोप है कि वन मित्र एप और पोर्टल, जोकि सुविधा के लिए बनाया गया था, अब आदिवासियों के अधिकारों को छीनने का जरिया बन गया हैं।
मप्र जनजातीय विभाग के इस फैसले के खिलाफ आदिवासी समुदायों और संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन करने के साथ न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की तैयारी भी की जा रही है। वे जल्द ही कोर्ट में इस मामले को लेकर केस फाइल करने की योजना बना रहे हैं।
वन मित्र पोर्टल: सुविधा या अभिशाप ?
मध्य प्रदेश सरकार ने दिसंबर 2019 में वन मित्र पोर्टल और मोबाइल एप लॉन्च किया था। इसका उद्देश्य वन अधिकार कानून (एफआरए) के तहत दावों की समीक्षा और निराकरण प्रक्रिया को आसान करना था। लेकिन इस पोर्टल के आने के बाद भी आदिवासी समुदाय की समस्याओं में और इजाफा ही हुआ है।
सतना जिले की मझगवां तहसील के तुर्रा गांव में रहने वाले आदिवासी शिवप्रसाद अपनी जमीन के लिए वन अधिकार अधिनियम के तहत दावा करना चाहते थे। उनके पास पुश्तैनी जमीन के कुछ कागजात थे, जो उनके बाप-दादा के समय से चले आ रहे थे। लेकिन जब वे अपना दावा दर्ज करने गए, तो अधिकारियों ने उन्हें बताया कि अब दावा केवल वन मित्र पोर्टल या ऍप के जरिए ही स्वीकार होगा।
शिवप्रसाद कहते हैं कि ,
मेरे पास स्मार्टफोन तो है, लेकिन पोर्टल का इस्तेमाल करना मुझे नहीं आता। गांव में नेटवर्क की समस्या रहती है और अधिकतर समय पोर्टल बंद (ठप्प) रहता है। मैंने शहर जाकर ऑनलाइन संचालक की मदद से ऑनलाइन दावा दायर किया।
लेकिन कुछ माह बीत जाने के बाद उन्हें पता चलता है कि उनका दावा खारिज हो गया है। उन्हें इसके पीछे की वजह तकनीकी साक्ष्य जैसे सैटेलाइट इमेजरी की कमी बताई जाती है।
मध्य प्रदेश में वन अधिकार कानून साल 2008 से लागू है। अगर इस कानून के मद्देनजर व्यक्तिगत दावों के आंकड़ों को देखा जाए तो 2008 से जनवरी 2019 तक कुल 5,79,411 व्यक्तिगत दावे (आईएफआर) प्राप्त हुए थे। इनमें से 3,54,787 यानि 61.2 फीसदी दावों को निरस्त कर दिया गया है, और सिर्फ 2,24,624 दावों को ही मंजूरी मिली हैं।
वहीं राज्य में वन मित्र पोर्टल के लागू होने के बाद से (2019 से लेकर जनवरी 2025 तक) कुल 6,27,513 दावे प्राप्त हुए हैं। इनमें से 5,85,326 दावें व्यक्तिगत और 42,187 दावे सामुदायिक थे। गौरतलब है कि इनमे से 2,66,901 व्यक्तिगत दावें और 27,976 सामुदायिक दावों को मिलाकर कुल 2,94,585 को मंजूरी मिली है। परंतु 3,22,407 यानि 51 प्रतिशत दावों को अब तक खारिज किया जा चुका है।
ये आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि वन मित्र पोर्टल और मोबाइल एप के आने से दावों की अस्वीकृति दर 61.2 प्रतिशत से घटकर 51 प्रतिशत रह गई है। लेकिन यह तथ्य अभी भी बरकरार है कि प्रदेश में आधे से अधिक दावे खारिज हो रहे हैं। अपने ख़ारिज हुए दावे का जिक्र करते हुए शिवप्रसाद कहते हैं,
मुझे नहीं पता कि सैटेलाइट इमेजरी क्या होती है और इसे कहां से लाऊं। अधिकारी मेरी मदद करने को तैयार नहीं थे। अब मेरी जमीन का क्या होगा।
हालांकि राज्य सरकार ने सैटेलाइट इमेजरी के लिए एफआरए एलटस बनाया है। लेकिन आदिवासी संगठनों का आरोप है कि इस एटलस में काफी त्रुटियां देखने को मिलती हैं। मसलन इसके नक़्शे समय पर अपडेट नहीं होते हैं और जिन्हें दावे नहीं मिले हैं उनके दावे भी इस एटलस में दर्शाए जाते हैं।
कुछ ऐसी ही कहानी सतना जिले में आने वाले आदिवासी बाहुल्य परसमानिया पठार वनवासियों की है। सुरेंद्र दाहिया यहां के आदिवासी समुदायों के लिए काम करने वाले श्रमजीवी संगठन के सचिव हैं। दाहिया बताते हैं कि, वन अधिकार अधिनियम के नियम 13 के अनुसार आदिवासी समुदाय को ऑनलाइन या ऑफलाइन किसी भी सुविधाजनक माध्यम से दावा प्रस्तुत करने का अधिकार है। लेकिन जब उन्होंने परसमानिया पठार में आने वाले 16 ग्राम सभाओं के वनवासियों के साथ मिलकर ऑफलाइन दावा जमा करने की कोशिश की, तो अधिकारियों ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
दहिया आगे कहते हैं,
मप्र जनजातीय विभाग के जुलाई 2023 के आदेश का हवाला देकर अधिकारी कहते हैं कि दावा सिर्फ वनमित्र एप व पोर्टल से ही करना होगा। हमने ऑफलाइन कागजात जमा किए, लेकिन खाली हाथ लौटना पड़ा।
ठीक ऐसी ही समस्याएं बुंलदेखंड आदिवासी किसान मजदूर मुक्ति मोर्चा के अमित कुमार के सामने भी आई। अमित ने पुराने दस्तावेजों और कुछ स्थानीय गवाहों के आधार पर ऑनलाइन दावा किया था। लेकिन उनके दावे को सैटेलाइट इमेजरी जैसे तकनीकी सबूतों के आभाव में खारिज कर दिया गया।
अमित आगे बताते हैं,
नियम कहता है कि तकनीक का इस्तेमाल दावेदार के पक्ष में होना चाहिए, लेकिन यहां इसका दुरुपयोग हो रहा है। अधिकतर दावों को बिना कोई कारण बताए खारिज कर दिया गया। हमें न तो अस्वीकृति का कारण बताया गया और न ही अपनी बात रखने का मौका दिया गया।
आदिवासी कार्यकर्ताओं का विरोध
अगर 2011 की जनगणना को आधार माना जाए तो मध्य प्रदेश की 1.53 करोड़ यानी 21 फीसदी आबादी आदिवासी समुदाय से आती है। मध्य प्रदेश देश भर में सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाला राज्य है। इसके बावजूद उन्हें वन संसाधनों पर अधिकार प्राप्त करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इन वजहों से उनकी आजीविका और जीवनयापन पर भी बुरा असर पड़ रहा है। गौरतलब है कि केंद्रीय जनजातीय कार्य विभाग ( MOTA) की एफआरए इम्प्लिमेंटेशन रिपोर्ट के अनुसार वन अधिकार दावों को खारिज करने के मामले में मध्य प्रदेश शीर्ष पर बना हुआ है।
आदिवासी संगठनों के द्वारा इस मामले को सड़क से लेकर विधानसभा तक उठाया जा चुका है। इसके बाद भी राज्य के अधिकारी पारदर्शिता, दक्षता, लागत और समय की बचत का हवाला देकर ऑनलाइन प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दे रहे हैं। बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के सदस्य और आदिवासी समुदायों के लिए काम करने वाले राज कुमार सिन्हा का मानना है कि ऑफलाइन दावों की सुनवाई न होना नियमों के विपरीत है।
सिन्हा आगे कहते हैं,
राज्य सरकार के अधिकारियों को पड़ौसी और अन्य राज्यों से सीख लेने की जरूरत है। हम (आदिवासी संगठन) ऑनलाइन प्रक्रिया के खिलाफ नहीं हैं। हम भी चाहते है कि राज्य सरकार डिजिटल प्रणाली का उपयोग करे। लेकिन उसे रिकार्ड रखने तक सीमित रखा जाए, न कि उसके माध्यम से दावों की सुनवाई की जाए।
एडवोकेट डॉ राहुल श्रीवास्तव कहते हैं कि पोर्टल अपने उद्देश्य में पूरी तरह से असफल सिद्ध हुआ है। श्रीवास्तव आगे कहते हैं कि,
यह पोर्टल मात्र एक सुविधा है, जोकि असुविधा का काम कर रहा है। इसीलिए राज्य में ऑनलाइन के साथ ऑफलाइन प्रक्रिया को दोबारा शुरू किया जाना जरूरी है, ताकि वनभूमि पर काबिज समुदायों को एफआरए की मंशा के अनुरूप अधिकार मिल सकें।
ओडिशा का हाइब्रिड मॉडल
ओडिशा में आदिवासी और वनवासी समुदाय राज्य की आबादी का 22 प्रतिशत से अधिक हैं। यह राज्य वन अधिकार दावों के निपटान में अग्रणी राज्यों में शामिल है। ओडिशा में साल 2021 में वसुंधरा पोर्टल लाॅन्च किया गया था। इस पोर्टल के माध्यम से ऑनलाइन दावों की सुनवाई जारी है, लेकिन यहां पर हाईब्रिड मॉडल (ऑनलाइन व ऑफलाइन) काम कर रहा है।
हालांकि यहां का ऑनलाइन मॉडल भी विवादों से अछूता नहीं रहा है। लेकिन राज्य में ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से दावों की सुनवाई की जा रही है और ग्राम सभा के अधिकारों को सीमिति नहीं किया गया। साथ ही 5000 से अधिक ग्राम स्तरीय अधिकारियों को डिजिटल प्रक्रियाओं की ट्रेनिंग दी गई है। यही वजह है कि यहां पोर्टल के लागू होने बाद दावों का निपटान 6 माह से घटकर 3 माह में हो रहा है।
अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो यहां 2021 ने लेकर जनवरी 2025 तक कुल 720,019 दावे प्राप्त हुए हैं। इनमें 691757 व्यक्तिगत और 28262 सामुदायिक दावे शामिल हैं। इन दावों मे से 461418 व्यक्तिगत और 8230 सामुदायिक दावे मंजूर किए गए है, जबकि 144636 दावे खारिज किए गए हैं।
मध्य प्रदेश में वन मित्र पोर्टल आदिवासियों की सहूलियत की मंशा के साथ शुरू किया गया था। लेकिन अब इसी की वजह से आदिवासियों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित होना पड़ रहा है। इसके निराकरण के लिए प्रक्रिया को आसान बनाना, डिजिटल साक्षरता को बढ़ाना और ओडिशा की तरह हाइब्रिड मॉडल की पहल एक विकल्प हो सकता है।
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