यूपीएससी लैटरल एंट्री का विज्ञापन पिछले शनिवार को आया था। विपक्ष और सहयोगी दलों (जेडीयू-एलजेपी पासवान) ने इसका विरोध किया। तीन दिन बाद ही मोदी सरकार ने उस विज्ञापन को वापस ले लिया। वापस लेते समय पीएमओ मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह ने मोदी का जमकर महिमा मंडन किया और कहा कि दलितों के असली हित चिन्तक प्रधानमंत्री मोदी ही हैं। लेकिन भाजपा को संचालित करने वाले आरएसएस ने अपने मुखपत्र पान्चजन्य में जाति व्यवस्था को सही ठहराते हुए इस भारत को जोड़ने वाला बताया। यानी मनुस्मृति में जिस वर्णवाद की वकालत की गई उसी की बात को आरएसएस अपने अखबार के जरिए आगे बढ़ा रहा है। मनुस्मृति कहती है कि जिसका जो काम है, उसकी वो जाति है। यानी शूद्रों को निम्नस्तरीय काम की वजह से वर्ण का नाम शूद्र दिया गया। आरएसएस के इशारे पर भाजपा आरक्षण को किनारे कर लैटरल एंट्री जैसे उपायों से सवर्ण लोगों को सरकार में उच्च पदों पर बैठा रही है। 57 अधिकारी पहले से ही लैटरल एंट्री के जरिए सरकार में घुस चुके हैं। इनकी भर्ती में किसी भी आरक्षण का पालन नहीं किया गया।
आरएसएस-भाजपा के इरादों की पुष्टि अब पान्चजन्य ने भी कर दी है। संघ के अखबार ने अपने संपादकीय में जाति व्यवस्था को भारतीय समाज का “एकीकृत कारक” (यानी जोड़ने वाला) बताते हुए कहा कि मुगल इसे समझ नहीं सके, अंग्रेजों ने इसे बारत पर अपने कब्जे के लिए एक बाधा के रूप में देखते थे। अखबार के संपादक हितेश शंकर ने लिखा है- “जाति व्यवस्था एक चेन सिस्टम की तरह है जो भारत के विभिन्न वर्गों को उनके पेशे और परंपरा के अनुसार वर्गीकृत करने के बाद एकसाथ रखती है। औद्योगिक क्रांति के बाद, पूंजीपतियों ने जाति व्यवस्था को भारत के रक्षक के रूप में देखा।” यानी पूंजीवाद भी जाति व्यवस्था का समर्थक है।
पांचजन्य के संपादकीय में तर्क दिया गया है कि जाति व्यवस्था हमेशा हमलावरों का लक्ष्य थी। मुगलों ने सेवा और सुधार की आड़ में तलवार के बल पर इसे निशाना बनाया। अंग्रेजों ने मिशनरियों की आड़ में निशाना बनाया। जाति के रूप में भारतीय समाज ने एक साधारण सी बात समझी – अपनी जाति से गद्दारी करना राष्ट्र से गद्दारी है। ईसाई मिशनरियों ने भारत के इस समीकरण को मुगलों से बेहतर समझा: यदि भारत और उसके स्वाभिमान को तोड़ना है, तो सबसे पहले जाति व्यवस्था को आपस में जोड़ने वाली चेन को तोड़ दो।
संपादकीय में तर्क दिया गया कि ईसाई मिशनरियों द्वारा जाति व्यवस्था की इस समझ को अंग्रेजों ने अपनी “फूट डालो और राज करो” नीति के लिए अपनाया था। संपादक शंकर ने तर्क दिया कि यह एक जाति समूह में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारित होने वाले कौशल के कारण था कि भारतीय कारीगर, जैसे कि बंगाल के बुनकर, इतने अच्छे थे कि मैनचेस्टर की मिलें इतनी अच्छी गुणवत्ता वाले उत्पाद नहीं बना सकती थीं। संपादकीय में लिखा गया है- “भारत के उद्योगों को नष्ट करने के अलावा, आक्रमणकारियों ने भारत की पहचान को बदलने के लिए धर्मांतरण पर ध्यान केंद्रित किया। जब जाति समूह झुके नहीं तो उन्हें अपमानित किया गया।”
संपादकीय में कहा गया है कि “जो आंखें भारत की पीढ़ीगत प्रतिभा को देखकर आहत होती हैं, वही आंखें हिंदू धर्म की विविधता, परंपराओं और रीति-रिवाजों को नष्ट करने का सपना देखती हैं।”
जाति जनगणना का खुला विरोध
भाजपा तो शरमाते हुए, दबी जुबान से जाति जनगणना के विरोध में है। वो कभी कभी तो समर्थन तक कर देती है। लेकिन आरएसएस ने इस बात को कभी नहीं छिपाया कि वो जाति जनगणना के विरोध में हैं। यानी इस देश में कितने मल्लाह, कितने कोरी, कितने माझी, कितने पासवान हैं, यह तथ्य कभी सामने न आए। इस संपादकीय में भी जाति जनगणना का विरोधी किया गया है। पांचजन्य में लिखा गया है- ”हिंदू जीवन, जिसमें गरिमा, नैतिकता, जिम्मेदारी और सांप्रदायिक भाईचारा शामिल है, जाति के इर्द-गिर्द घूमता है। …तो कांग्रेस ने इसे हिंदू एकता में एक बाधा के रूप में देखा। वह अंग्रेजों की तर्ज पर लोकसभा सीटों को जाति के आधार पर बांटकर देश में बंटवारा बढ़ाना चाहती है। यही कारण है कि वह जाति जनगणना चाहती है।” बता दें कि कांग्रेस जाति जनगणना की मांग बार-बार कर रही है। आरजेडी, सपा भी इसके समर्थन में हैं।
पांचजन्य द्वारा जाति व्यवस्था को सही ठहराने के लेख की वजह को समझा जा सकता है। यह ऐसे समय में सामने आया है जब आरएसएस को यह बार-बार सफाई देनी पड़ रही है कि वह दलित वर्गों के लिए आरक्षण के खिलाफ नहीं है। लेकिन पांचजन्य का संपादकीय तो कह रहा है कि जाति व्यवस्था जरूरी है। आरएसएस ने बार-बार जाति व्यवस्था की जड़ों को श्रम विभाजन पर आधारित प्राचीन वर्ण व्यवस्था में खोजने की कोशिश की है। आरएसएस आम तौर पर समाज में लागू जाति भेदभाव और छुआछूत को लेकर आंखें मूंद लेता है। संघ ने हमेशा मनुस्मृति को महत्व दिया। उसने एक बार भी मनुस्मृति को जलाने या कूड़ेदान में डालने की बात नहीं कही। जबकि संविधान निर्माता डॉ बी आर अंबेडकर ने तो मनुस्मृति को न सिर्फ जलाया बल्कि पैरों से रौंदा भी था। आरएसएस ने आज तक मनुस्मृति का विरोध नहीं किया।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने बार-बार कहा है कि जातिगत भेदभाव भारतीय समाज के लिए अभिशाप है और इसे खत्म किया जाना चाहिए। संघ के सदस्य यह कहने में गर्व महसूस करते हैं कि वे अपने सहयोगियों की जाति नहीं जानते। पिछले साल, भागवत ने कहा था कि निचली जातियों द्वारा 2,000 वर्षों से झेले गए भेदभाव की भरपाई के लिए अगर आरक्षण को अगले 200 वर्षों तक जारी रखना होगा, तो वह इसका समर्थन करेंगे। लेकिन यही भागवत हैं जो 2015 में कह चुके हैं कि आरक्षण पर फिर से विचार करने की जरूरत है। अगर देश के अधिकांश लोग इसे पसंद नहीं करते हैं तो यह क्यों हो। इसके बाद उन्होंने एक बार और भी आरक्षण का विरोध किया था। लेकिन जब संघ को समझ आ गया कि आरक्षण का विरोध सत्ता से भाजरा को दूर कर देगा तो इस संगठन ने गिरगिट की तरह रंग बदल लिया।
पांचजन्य में आरएसएस के विचार उसके तमाम दोहरे चरित्र को बताते हैं। मसलन उसने लिखा है कि जातियां हिन्दू समाज को जोड़ती हैं और इससे पूरा भारत जुड़ता है। तो सवाल यह है कि जब जातियां इतनी महत्वपूर्ण हैं तो आरएसएस जाति जनगणना का समर्थन क्यों नहीं कर रहा। क्या आरएसएस ने अपना संघ प्रमुख कभी किसी दलित को बनाया। अगले साल संघ की स्थापना को सौ साल हो जाएंगे, आज तक कभी कोई दलित आरएसएस प्रमुख नहीं बना। संघ की शाखाओं में आने वाले अधिकांश लोग सवर्ण तबके से ही क्यों होते हैं। उनमें महिलाओं को क्यों नहीं आने दिया जाता। आरएसएस ने 60 वर्षों तक अपने नागपुर मुख्यालय में तिरंगा झंडा नहीं फहराया। संघ की शाखाओं में सिर्फ भगवा ध्वज फहराया जाता है। ऐसा क्यों है। आरएसएस अंबेडकर की तरह मनुस्मृति को अवैध ग्रंथ क्यों नहीं घोषित करता। संघ ने यूपीएससी में लैटरल एंट्री के खिलाफ कुछ क्यों नहीं कहा।