‘ऑपरेशन सिंदूर’ को लेकर विपक्ष ने सरकार के साथ जैसी एकजुटता दिखाई अभूतपूर्व ही नहीं, आश्चर्यजनक भी है। इस ऑपरेशन से पहले विपक्ष ने एक सुर में सरकार के हर फ़ैसले का साथ देने का वादा किया था जो उसने सौ फ़ीसदी निभाया। लेकिन अफ़सोस कि मोदी सरकार पाकिस्तान को जवाब देने के नाम पर राजनीतिक लाभ लेने और विपक्ष को कमज़ोर करने में जुटी नज़र आ रही है। यही वजह है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नेपथ्य में चला गया और चर्चा ‘ऑपरेशन थरूर’ के ज़रिए कांग्रेस को कुहनी मारने की हो रही है।
प्रधानमंत्री मोदी इस लिहाज़ से प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू से ज़्यादा भाग्यशाली हैं कि उन्हें युद्ध-कालीन परिस्थिति में विपक्ष का बिना शर्त समर्थन मिला। वरना इतिहास तो यह है कि 1962 में चीन युद्ध के समय विपक्ष, ख़ासतौर पर जनसंघ पं. नेहरू के ख़िलाफ़ देश भर में प्रदर्शन कर रहा था। जनसंघ के युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी की माँग पर नेहरू जी ने युद्ध के बीच ही संसद सत्र बुलाया और तमाम आलोचनाओं का सामना किया था। उन्होंने सर्वदलीय बैठकों में भी विपक्ष के तमाम सवालों का जवाब दिया था। गोपनीयता को लोकतंत्र के विरुद्ध मानते हुए उन्होंने संसद के ‘गुप्त सत्र’ के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था।
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष से मिले इस बिना शर्त समर्थन का कोई सम्मान नहीं किया। न वे सर्वदलीय बैठकों में शामिल हुए और न संसद का विशेष सत्र बुलाने को ही राज़ी दिख रहे हैं। उल्टा इस नाज़ुक वक़्त में भी विपक्ष को कमज़ोर करने का कोई मौक़ा वे छोड़ना नहीं चाहते। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है बिना कांग्रेस की सहमति के उसके सांसद शशि थरूर को सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनाना। सरकार ने कांग्रेस से प्रतिनिधिमंडल में शामिल किए जाने वालों के नाम माँगे थे पर जो नाम मिले, उन्हें तवज्जो न देकर अपनी मर्ज़ी से प्रतिनिधिमंडल का स्वरूप तय किया। यानी एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल को सरकारी प्रतिनिधिमंडल में बदल दिया गया। यह सिर्फ़ थरूर के ‘ज्ञान’ का मसला नहीं है। बीजेपी में भी सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे विदेश नीति के अच्छे जानकार मौजूद हैं जिन्हें प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा नहीं बनाया गया जबकि थरूर का नाम न देन के लिए कांग्रेस की आलोचना का बाज़ार गर्म है।
यही नहीं, सीज़ फ़ायर के तुरंत बाद जिस तरह से रातों-रात सैनिक भेष में पाकिस्तान को सबक़ सिखाने वाले मोदी जी के पोस्टर-बैनर देश भर में लगाये गये, वह बताता है कि सेना के शौर्य और बलिदान को बीजेपी की राजनीतिक पूँजी बनाने की पूरी कोशिश हो रही है। एफ़एम रेडियो के ज़रिए तमाम टीवी और फ़िल्म अभिनेताओं से सेना के शौर्य के साथ-साथ सरकार और उसके ‘नेतृत्व’ की वाह-वाह कराने का भी अभियान जारी है। यहाँ तक कि रेल के टिकटों पर भी ऑपरेशन सिंदूर की सफलता दर्ज की जा रही है। विपक्ष अगर कोई सवाल उठाये तो उस पर ‘नाज़ुक वक़्त’ में राजनीति करने का आरोप लगाने के लिए टीवी चैनलों के ‘लाहौर-इस्लामाबाद विजेता’ एंकर हर वक़्त मुस्तैद हैं।
जाति जनगणना के सवाल पर भी उन्होंने ‘अगर-मगर’ किया है। बीजेपी इसका फ़ायदा उठाकर केरल में फिर खेल करना चाहती है। बीते चुनाव में मेट्रो-मैन श्रीधरन जो नहीं कर पाये थे, वह शशि थरूर के ज़रिए कराना चाहती है। उसे लगता है कि शायद इससे केरल में उसका खाता खुल जाए। यह बात भुला दी गयी है कि मोदी जी कभी शशि थरूर को ‘पचास करोड़ की गर्लफ़्रेंड’ के जुमले से निशाना बना चुके हैं या बीजेपी आईटी सेल की ओर से उन्हें अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर की हत्या का आरोपी बताते हुए अभियान चलाया गया था।
या कि थरूर ने कभी कहा था कि ‘नरेंद्र मोदी शिवलिंग पर बैठे बिच्छू की तरह हैं, जिसे न तो हाथ से हटाया जा सकता है और न चप्पल से मारा जा सकता है।’ बीजेपी के लिए शशि थरूर की किताब ‘मैं हिंदू क्यों हूँ’ के शीर्षक का ही महत्व है, हालाँकि इसमें उन्होंने बीजेपी और आरएसएस की समझ से उलट ‘बहुलतावाद’ को हिंदू धर्म की ताक़त कहा है।
22 अप्रैल को पहलगाम हमले के बाद के शोकाकुल माहौल में भी बीजेपी अपने थरूर प्रोजेक्ट से ध्यान नहीं हटा सकी। पिछली 2 मई को पीएम मोदी केरल के विझिनजाम में इंटरनेशनल सीपोर्ट का उद्घाटन करने पहुँचे थे। मंच पर सांसद होने के नाते शशि थरूर भी थे। उस मौक़े पर पीएम मोदी ने कहा था, ‘आज का कार्यक्रम कई लोगों की नींद उड़ा देगा।’ जब हिंदी में बोले गये उनके इस जुमले के अनुवाद पर जनता ने कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी तो पीएम ने आगे जोड़ा, ‘जहाँ पहुँचनी चाहिए बात पहुँच गयी होगी।’ ज़ाहिर है, इशारा राहुल गाँधी की ओर था लेकिन इसने बीजेपी की आगामी चुनाव को लेकर केरल नीति को साफ़ कर दिया था।
वैसे, विदेशों में प्रतिनिधिमंडल भेजने में मोदी जी ने काफ़ी देर कर दी। ऐसे प्रयास उरी और पुलवामा में हमले के बाद ही शुरू कर देना चाहिए था ताकि पहलगाम हमले के बाद दुनिया भारत के साथ खड़ी होती। हक़ीक़त ये है विदेशी दौरों का रिकॉर्ड बना चुके मोदी जी ऑपरेशन सिंदूर पर किसी देश का समर्थन हासिल नहीं कर सके। हालत ये है कि विदेशमंत्री जयशंकर की तालिबान के मंत्री से हुई बातचीत मीडिया को सुर्खी बनानी पड़ी। यह उस भारत का हाल है जो शीतयुद्ध के दौर में क़रीब डेढ़ सौ देशों का नेता हुआ करता था। आज दुनिया की नज़र में भारत और पाकिस्तान परमाणु हथियारों से लैस दो तनावग्रस्त पड़ोसी हैं जिन्हें एक पलड़े पर रखते हुए समझाने-बुझाने की बात हो रही है। जबकि कभी भारत का मुक़ाबला महाशक्तियों से था, न कि पाकिस्तान से।
किसी देश ने खुलकर पाकिस्तानी को आतंकवाद की शरणस्थली नहीं बताया, उल्टा राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत के साथ उसे भी ‘महान देश’ का तमग़ा दे दिया। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के ज़रिए मोदी सरकार अपनी इस नाकामी में विपक्ष को हिस्सेदार बनाना चाहती है और उसके तमाम सवालों को भोथरा करना चाहती है। विदेश में विपक्षी पार्टी के सांसद सरकार के पक्ष में बोलेंगे तो देश में विरोध करना मुश्किल होगा।
लेकिन देश जानना चाहता है कि ऑपरेशन सिंदूर का हासिल क्या रहा? क्या इससे आतंकवाद ख़त्म हो गया? पहलगाम में बेक़सूर सैलानियों की जान लेने वाले कौन थे और कहाँ गये? उन्हें अब तक पकड़ा क्यों नहीं गया? जिस कश्मीर में सैनिकों की रिकॉर्ड उपस्थिति है वहाँ पहलगाम में एक भी सिपाही क्यों नहीं था? विदेश मंत्री क्यों कह रहे हैं कि हमले के पहले पाकिस्तान को बता दिया गया था? ये कौन सी रणनीति है और किसके कहने पर बनी? क्या बताकर हमला करने से पलटवार की तैयारी का मौक़ा नहीं मिला पाकिस्तान को? इसका मतलब ये क्यों न निकाला जाए कि पाकिस्तान के साथ एक ‘फ़िक्स मैच’ खेला गया जिसमें देश के तमाम नागरिक और सैनिक शहीद हुए! लड़ाकू जहाजों का भी नुक़सान हुआ। कितना और क्या नुक़सान हुआ, सरकार ने अब तक नहीं बताया! अगर पाकिस्तान मिट्टी में मिल गया तो वहाँ ‘फ़तेह जुलूस’ कैसे निकल रहे हैं? अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का ये कहना कि ट्रेड बंद करने की धमकी देकर सीज़-फायर करवाया, भारत की प्रतिष्ठा पर सीधी चोट है पर पीएम मोदी या विदेशमंत्री जयशंकर की ओर से इसका खंडन नहीं किया गया।
नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने 2022 में ही संसद में कहा था कि चीन और पाकिस्तान को साथ आने का मौक़ा देना भारत की विदेश-नीति के लिए डिज़ास्टर होगा और सरकार ने इसे हो जाने दिया। इस लड़ाई को पाकिस्तान ने नहीं चीन ने लड़ा है, यह अब खुला रहस्य है। चीन की सारी सैन्य तकनीक पाकिस्तान को उपलब्ध थी। लेकिन तुर्किए और अज़रबैजान के बायकॉट का ऐलान करने वाले न चीन पर चीं बोल रहे हैं और न अमेरिकी राष्ट्रपति को कोई जवाब दिया जा रहा है। यह जवाब पीएम मोदी की ओर से आना चाहिए था लेकिन ऐसा लगता है कि पीएम मोदी की रुचि ऑपरेशन सिंदूर से ज़्यादा ‘ऑपरेशन थरूर’ में है और वे पाकिस्तान से ज़्यादा विपक्ष को कमज़ोर करने से ख़ुश होते हैं।