
Aurangzeb Tomb Controversy History and Politics (Photo – Social Media)
Aurangzeb Tomb Controversy History and Politics (Photo – Social Media)
Aurangzeb Kabra Vivad: कभी मुगलों का सबसे ताकतवर बादशाह, आज उसकी साधारण सी कब्र विवादों के घेरे में है। इतिहास में औरंगजेब एक ऐसा नाम है जो जितना सशक्त था, उतना ही विवादास्पद भी। जहां कुछ उसे ‘इस्लाम का सच्चा अनुयायी’ मानते हैं, वहीं बहुसंख्यक आबादी उसे ‘हिंदुओं का अत्याचारी’ बताती है। हाल ही में आई मराठी फिल्म “छावा” और उसकी प्रतिक्रिया ने इस बहस को और गहरा कर दिया है। फिल्म में छत्रपति संभाजी महाराज पर औरंगजेब के अत्याचारों को दर्शाया गया, जिसके बाद से महाराष्ट्र से लेकर देश के कई हिस्सों में औरंगजेब की कब्र को लेकर विवाद तेज हो गया।
कब्र से विवाद क्यों
औरंगजेब की कब्र महाराष्ट्र के खुल्दाबाद में स्थित है, जो औरंगाबाद से लगभग 30 किलोमीटर दूर एक छोटा सा कस्बा है। यह कब्र न तो आगरा में है, जहां ताजमहल बना, और न ही दिल्ली में, जहां से उसने अधिकांश राज किया था। सवाल उठता है कि क्यों एक महान सम्राट को ऐसे अनजाने कस्बे में दफन किया गया? और क्या वाकई केंद्र सरकार हर साल इस कब्र पर लाखों रुपये खर्च करती है? आइए जानते हैं ।

औरंगजेब की कब्र से जुड़े ऐतिहासिक संदर्भ, उनके गुरु सूफी संत ज़ैनुद्दीन शिराज़ी के बारे में साथ ही कब्र पर होने वाला सरकारी खर्च, कब्र को लेकर उठती राजनीतिक और धार्मिक मांगों से जुड़े मुद्दों के बारे में विस्तार से –
ये थी औरंगजेब के अंतिम दिनों की सच्चाई जब क्रूर शासक से बना कट्टर संन्यासी
मुगल वंश का छठा शासक औरंगजेब 1658 से 1707 तक भारत का सम्राट रहा। उसने अपने पिता शाहजहां को कैद कर, भाइयों की हत्या कर और सिंहासन हथिया कर सत्ता हासिल की थी। औरंगजेब का शासन अपने पूर्वजों के विपरीत बेहद कठोर, धार्मिक रूप से कट्टर और विस्तारवादी था।
उसने जजिया कर दोबारा लगाया, मंदिरों को तुड़वाया और धर्मांतरण को बढ़ावा दिया। इतिहासकारों और समकालीन लेखकों ने उसे “मुगलों का अंतिम वास्तविक सम्राट” और “मजहबी कट्टरपंथी” बताया है। लेकिन क्या आपको पता है कि इसी औरंगजेब ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में खुद को एक तपस्वी जीवन की ओर मोड़ लिया था।
महाराष्ट्र में कब्र क्यों? औरंगजेब की अंतिम इच्छा
यह सवाल बार-बार उठता है कि जिस शासक ने दिल्ली और आगरा जैसे शहरों से शासन किया, उसकी कब्र महाराष्ट्र के दूरस्थ क्षेत्र खुल्दाबाद में क्यों है?

असल में, औरंगजेब ने अपने जीवन के आखिरी 27 वर्ष दक्कन के क्षेत्र में बिताए थे। 1636 में शाहजहां ने उसे दक्कन का सूबेदार बनाकर भेजा था। यहीं उसने औरंगाबाद को अपना केंद्र बनाया और बार-बार दक्षिण भारत के राज्यों पर हमले किए। खुल्दाबाद में उसे सूफी संत हज़रत सैयद ज़ैनुद्दीन शिराज़ी की शिक्षाएं मिलीं और औरंगजेब उन पर इतना मोहित हुआ कि उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मान लिया। उन्होंने अपनी वसीयत में यह निर्देश दिए कि मरने के बाद उन्हें अपने पीर की कब्र के पास दफनाया जाए। यही कारण था कि 3 मार्च 1707 को अहमदनगर में मृत्यु के बाद उसे खुल्दाबाद में दफनाया गया।
औरंगजेब के गुरु हज़रत सैयद ज़ैनुद्दीन शिराज़ी कौन थे
हज़रत ज़ैनुद्दीन शिराज़ी का जन्म 1302 ई. में ईरान के शिराज़ शहर में हुआ था। वह मक्का और दिल्ली के रास्ते भारत आए और सूफी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के अनुयायी बने। बाद में उन्होंने महाराष्ट्र के दौलताबाद और खुल्दाबाद में सूफी शिक्षाओं का प्रसार किया।
चिश्ती सिलसिले से जुड़े ज़ैनुद्दीन शिराज़ी की शिक्षाएं विनम्रता, सादगी, मानव सेवा और अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण पर आधारित थीं। उनके उपदेशों ने औरंगजेब जैसे कठोर शासक को भी प्रभावित कर दिया था।
औरंगजेब की अंतिम वसीयत ‘मेरी कब्र पर पैसा मत खर्च करना’
औरंगजेब की मृत्यु के पहले लिखी गई वसीयत एक साधारण जीवन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है। उसने कहा था कि उसकी कब्र बिल्कुल साधारण हो, उस पर केवल 4 रुपये 2 आने खर्च किए जाएं, दफन का खर्च उस पैसे से किया जाए जो उसने टोपी बुनकर और कुरान लिखकर कमाया था, कब्र के पास कोई छायादार पेड़ न लगाया जाए। यह वसीयत अपने आप में एक उदाहरण है कि जिस सम्राट ने समृद्ध महलों में जीवन बिताया, वह मरने के बाद केवल मिट्टी चाहता था।

क्या औरंगजेब की कब्र पर लाखों खर्च करती है सरकार
हाल ही में एक आरटीआई (सूचना का अधिकार) के तहत यह खुलासा हुआ कि औरंगजेब की कब्र एक राष्ट्रीय धरोहर है और इसके संरक्षण की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की है। रिपोर्ट के अनुसार, इस मकबरे की देखभाल और मरम्मत पर औसतन 1.7 लाख से 2 लाख रुपये प्रतिवर्ष खर्च किए जाते हैं। हालांकि यह खर्च ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण के संदर्भ में सामान्य है, लेकिन औरंगजेब के प्रति जनभावनाओं को देखते हुए यह विषय राजनीति का मुद्दा बन गया है।
कब्र को लेकर हो रही राजनीति और विरोध प्रदर्शन
फिल्म छावा की रिलीज के बाद महाराष्ट्र के नागपुर और पुणे जैसे शहरों में औरंगजेब के नाम वाले साइनबोर्ड्स पर कालिख पोती गई। नागपुर में मकबरे को गिराने की मांग को लेकर हिंसा भड़की और प्रशासन को कर्फ्यू लगाना पड़ा।
राजनीतिक दलों और धार्मिक संगठनों ने यह सवाल उठाया कि क्या एक “हिंदू विरोधी” शासक की कब्र को संरक्षित रखना चाहिए? क्या उस पर सरकारी खर्च जायज़ है? दूसरी ओर, कुछ इतिहासकार और सेक्युलर समूहों का कहना है कि इतिहास को मिटाने से अतीत नहीं बदलेगा। उसे समझकर ही भविष्य बेहतर बन सकता है।
‘बीबी का मकबरा’ और औरंगजेब का स्थापत्य प्रेम

भले ही औरंगजेब ने अपने लिए सादा कब्र चाही, लेकिन उसने अपनी पत्नी राबिया उद्दौरानी के लिए औरंगाबाद में बीबी का मकबरा बनवाया था। यह मकबरा वास्तुकला की दृष्टि से ताजमहल की तरह है, इसलिए इसे “दक्कन का ताजमहल” कहा जाता है।
ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्ज़न और कब्र की सजावट
1905 में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्ज़न जब औरंगजेब की कब्र देखने पहुंचे तो उसकी सादगी से प्रभावित हुए। उन्होंने वहां संगमरमर की पट्टियां लगवाईं और कब्र के चारों ओर लोहे की ग्रिल बनवाने का आदेश दिया, ताकि कब्र की पवित्रता और सुरक्षा बनी रहे। यह विडंबना ही है कि जिसने भव्य स्मारकों को महत्व नहीं दिया, उसकी कब्र को सजाने का कार्य अंग्रेजों ने किया। औरंगजेब की कब्र केवल मिट्टी और पत्थर का ढांचा नहीं है, यह उस इतिहास का प्रतीक है जिसने भारत को वैचारिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर गहराई से प्रभावित किया। समाज में उठते सवाल क्या सरकार को उसके मकबरे पर खर्च करना चाहिए? असल में यह एक धार्मिक भावना से जुड़ा वैध सवाल है, लेकिन इस पर विचार करते समय यह भी सोचना होगा कि क्या हम इतिहास को मिटा सकते हैं या केवल उसे स्वीकार कर, आगे बढ़ सकते हैं? कब्र मिटा देने से इतिहास नहीं मिटेगा। लेकिन इतिहास को समझकर समाज को जोड़ने की कोशिश की जा सकती है।